गढ़ चाणक्य सेनापति पुरिया नैथाणी की सोलहवीं सदी की तलवार! क्या है पुरिया की मौत का राज!
गढ़ चाणक्य सेनापति पुरिया नैथाणी की सोलहवीं सदी की तलवार! क्या है पुरिया की मौत का राज!
(मनोज इष्टवाल)
जिन्हें चक्रवर्ती सम्राट अकबर के नवरत्न बीरबल की तरह की ख्याति प्राप्त हुई हो! जिनकी बुद्धिमत्ता के किस्से यदा-कदा गढ़वाल के बुजुर्गों के मुंह से निकलकर बच्चों तक ठीक उसी तरह पहुँचते रहे हैं जैसे बीरबल और अकबर के ! तो भला ऐसे महान सेनापति के बारे में कौन नहीं जानना चाहेगा जिन्हें गढ़ चाणक्य कहा गया! अकाल के दौर में पूरे देश में गढ़वाल ही एकमात्र ऐसा राज्य रहा जो गढ़- चाणक्य पुरिया नैथाणी की सूझ बूझ और बुद्धिमत्ता से जजिया कर मुक्त रहा और तो और इस दौरान यदि मुगल सेना के अभिन्न अंग गढ़वाल होकर तिब्बत या चीन जाते थे तब वे श्रद्धा से महाराजा गढ़वाल को भेंट स्वरूप टैक्स देते थे!
(सेनापतियों की तलवारें । बीच में पुरिया की सीधी तलवार)
संवत 1705 यानि सन 1648 में शुक्ल पक्ष पूर्ण मासी के भाद्रपद में पौड़ी गढ़वाल के (वर्तमान में विकासखंड कल्जीखाल, पट्टी मनियारस्यूं) नैथाना गाँव में पंडित गेंदामल नैथानी ( जिन्हें ग्रामीण गैंदु नैथानी के नाम से जानते थे) के घर जन्में पुरिया नैथानी बचपन से ही बेहद बुद्धिमान थे! यहाँ कुछ लोगों का मत है कि उन्होंने भैंस चुगाते हुए महाराजा भर्तहरी जो एक ऐसे सन्यासी बने जिन्हें आज भी अमर कहा जाता है कि खिचड़ी खाई और तब वे बिद्धवान बने जोकि सरासर गलत है!
(पुरिया नैथानी की तलवार )
दरअसल पुरिया नैथानी के पिता कर्मकांडी ब्राह्मण थे लेकिन एक गरीब ब्राह्मण कहलाये जाते थे! रिश्तेदारी उनकी उच्च कुलीन थी इसीलिए उनका श्रीनगर दरवार में आना जाना लगा रहता था! तत्कालीन महाराजा के सेनापति महान ज्योतिष डोभाल उनके दूर के रिश्ते में आते थे! पंडित गेंदामल नैथानी उम्रदराज होने लगे थे लेकिन स्न्स्तान सुख से बंचित थे! पुरिया नैथानी उनके बुढापे में जन्मी औलाद कही गयी ! उनके जन्म के समय कारणवश जब सेनापति डोभाल उनके गाँव से गुजर रहे थे तब पंडित गेंदामल नैथानी ने उनसे पुरिया की जन्मकुंडली दिखाई ! कहते हैं पुरिया की जन्मकुंडली देखते ही सेनापति डोभाल बोले – यह आने वाले समय में महान कीर्तिमान और बुद्धिमान के धनी होंगे इसलिए इनका नामकरण संस्कार खूब धूमधाम से होना चाहिए! बिपप्न ब्राह्मण गेंदामल नैथानी सोच में पड गए कि भला मैं कैसे यह सब कर पाऊंगा! घर में धन तो है ही नहीं और न ही कोई ऐसा सोर्स ही है जो कहीं से आ जाय!
(चांदी सोने की मुठ वाली राजघराने की फ़ौलाद निर्मित तलवारें)
कहते हैं सेनापति डोभाल ने पंडित गेंदामल नैथानी से पुरिया को माँगा था क्योंकि उनकी एक मात्र पुत्री थी! लेकिन बुढापे में पैदा औलाद के सुख से वे कैसे बंचित रह पाते! अचानक घटनाक्रम बदला और पंडित गेंदामल नैथानी के घर घोड़े के सौदेर आये! यह घोड़ा जिसे पंचकल्याणी नाम से जाना जाता था वह उन्हें राजघराने से दान स्वरूप मिला था! उन्हें अति प्यारा था लेकिन पुत्र मोह में उन्होंने उसे बेचकर धूमधाम से पुरिया का नामकरण संस्कार किया!
सेनापति डोभाल ने जब पंडित गेंदामल नैथानी के आगे पुरिया की शादी अपनी पुत्री से करने की बात रखी तब वे ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो गए ! सात बर्ष की उम्र में पुरिया को सेनापति डोभाल ने श्रीनगर शिक्षा दीक्षा हेतु बुला दिया यहाँ वे राजकुमारों की पाठशाला में पढ़े व बेहद बुद्धिमान छात्र होने के साथ साथ बेहद बलिष्ठ विद्यार्थियों में भी गिने जाने लगे! उन्हें भैंसों को उठाकर पटकने की महारत हासिल हुई और वे घुडसवारी में भी अबल निकले!
सन 1666 ई. शुक्ल पक्ष अष्टमी को 18 बर्ष की आयु में उनकी विधिवत शादी डोभाल सेनापति की पुत्री से हुई! कहा तो ये भी जाता है कि उनकी शादी बाल्यकाल में ही हो गयी थी रस्म 18 साल बाद हुई! घुडसवारी में अबल होने के कारण उन्हें राजदरबार में ही अश्वशाला के अध्यक्ष पद पर नौकरी मिल गयी! उनका काम घोड़ों को पढ़ाने का होता था और उन्हें महाराजा का श्यामकल्याण घोड़ा सबसे प्रिय था!
राजदरवार के अनछुवे इतिहास में बर्णित है कि सन 1667 ई. में बिजयदशमी के पर्व पर दिल्ली दरवार के राजदूत श्रीनगर आये थे जिन्होंने इस उत्सव में शिरकत की! यहाँ मैदान में घोड़ों का करतब देखते हुए उन्होंने यूँहीं मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि भला ये भी कोई घोड़े हुए हमारे घोड़े तो इतनी ऊँची छलांग लगा लेते हैं कि क्या कहने ! कोई ऐसा घोड़ा हो जो उस छोटी हवेली को छलांग मार पार कर जाए तो मानूं? महाराजा श्रीनगर असमर्थता व्यक्त करने ही वाले थे कि स्वाभिमान के धनि पुरिया बोल पड़े- जी हमारे घोड़े भी इस लायक हैं! आप देखिये कि महाराजा जिस घोड़े पर सवार होते हैं वह कितना बुद्धिमान व साहसी है! उन्होंने महाराजा के घोड़े श्यामकल्याण के लिए सीटी बजाई घोड़ा दनदनाता हुआ पुरिया के पास आ पहुंचा! महाराजा की आज्ञा लेकर पुरिया उस दुस्साहसिक कार्य को अंजाम देने निकल पड़े! सबकी साँसे थमी की थमी रह गयी जब पुरिया ने घोड़े सहित छोड़ी हवेली लांघ डाली! यह तो शुक्र था कि हवेली पार घोड़ों का मल पडा हुआ था और पुरिया घोड़े सहित वापस लौट आये! पुरिया की जय-जयकार होने लगी! राजदूत ने घोषणा की कि पुरिया न सिर्फ गढ़ नरेश बल्कि दिल्ली स्थित चक्रवर्ती सम्राट के लिए भी स्वाभिमान हैं! पुरिया नैथानी की मात्र एक बर्ष के कार्यकाल में ही अश्वशाला अध्यक्ष से घुड़सवार सेना के सेनापति के रूप में नियुक्ति हो गयी! उनका दाम्पत्य जीवन बेहद कष्टकारी रहा और लम्बी बीमारी के बाद उनकी पत्नी की मात्र एक बर्ष की अवधि में मौत हो गयी! सेनापति डोभाल उनकी अन्यत्र शादी करना चाह रहे थे लेकिन उन्होंने साफ़ घोषणा कर दी कि अब वे ब्रह्मचार्य का पालन करेंगे! उनकी सेवाओं से खुश व कई युद्धविजय के कारण महाराजा प्रदीप शाह ने रामगंगा के बांये छोर पर सन 1748 में उनके जुनिया गढ़/जूना गढ़ युद्ध में अद्वितीय पराक्रम दिखाने के लिए नैथाना गढ़ की स्थापना की! जो रामगंगा के बांये छोर पर द्वाराहाट कुमाऊ में स्थित माना जाता है! सन 1750 में पुरिया नैथानी द्वारा राजसेवा से अवकाश लिया गया! कहते हैं इस दौरान उनकी भेंट रानीगढ़ अदवाणी के आस-पास महाराजा भर्तहरी से हुई जो सन्यासी बन गये थे! और अमर सिद्ध पुरुष कहे जाते थे! तब से पुरिया बेहद शांत, सात्विक और संन्यास के प्रति आकृष्ट हो गये थे!
यह बेहद आश्चर्यजनक बात है कि वे पहले ऐसे व्यक्ति हुए जिन्होंने अपने जीवन के 84 साल सिर्फ गढ़राज्य की सेवा को न्यौचावर किये ! 112 बर्ष की उम्र में पुरिया नैथानी हरिद्वार कुम्भ (1760) स्नान हेतु गए जहाँ से वे अंतर्ध्यान हो गए! कहा तो यह भी जाता है कि वे भी राजा भर्तहरी की तरह अमर हो गए! इसलिए उनकी मौत हुई भी कि नहीं यह अभी तक राज बना हुआ है! देहरादून स्थित टिहरी हाउस संग्राहलय में उनकी लगभग 450 बर्ष पुरानी तलवार ठाकुर भवानी सिंह द्वारा हमें दिखाई गयी! यह तलवार अन्य तलवारों की अपेक्षा बेहद अलग व सीधी है!
पुरिया जी के जीवन के कुछ अनसुलझे पहलू उजागर हुए ।कभी ऐसा भी लगता है कि पूर्व इतिहासकारों ने उनके जीवन वृतांत के साथ सम्पूर्ण न्याय नही किया । इसका क्या कारण था यह भी एक प्रश्न है ।
उत्तम लेख अच्छी जानकारी
शुक्रिया जी।