गढ़वाल राइफल का वह जनरल बकरा। बैजू नामक बकरे को सलूट करते थे सैनिक।
#जनरल_बकरा
क्या आप जानते हैं कि गढ़वाल राइफल्स में एक बकरा आर्मी में “जर्नरल” भी था ?
(हिमांशु पुरोहित सुरमैया की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट)
गढ़वाल राइफल्स के स्वर्णिम इतिहास से मिला जनरल बकरा का किस्सा सुनने से जितना अटपटा सा लगता है वास्तविकता में यह किस्सा उतना ही रोचक है। बात हिन्दुस्तान आजाद होने से पहले की है। लैन्सडाउन में उस समय गढ़वाल राइफल का ट्रेनिंग सेन्टर हुआ करता था। गढ़वाल राइफल के सभी महत्वपूर्ण फैसले उस समय अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा लिये जाते थे। उस समय फ्रांस, जर्मन, बर्मा, अफगानिस्तान आदि देशों से अंग्रेजी शासन का युद्ध होता रहता था अत: गढ़वाल राइफल की पल्टन को भी हुकूमत के शासन के अनुसार उन स्थानों पर जंग में शामिल होना होता था। गढ़वाली जवान इस समय जहां जहां भी जंग पर भेजे जाते थे अपनी वीरता की धाक ही जमाकर आते थे।
ऐसे ही एक समय अफगानिस्तान के विद्रोह को दबाने के लिये अन्य सैनिक टुकड़ियों के साथ “गढ़वाल राइफल” के जवानों को अफगानिस्तान के “चित्राल” क्षेत्र में भेजा गया। चित्राल अफगानिस्तान पहुंचने पर कमांडर ने जवानों को नक्शा समझाया और टुकड़ियों को अलग अलग दिशाओं से आगे बढ़ने को कहा। सभी टुकड़ियों को एक बहुत बड़े क्षेत्र को घेरते हुये आगे बढ़ना था और एक स्थान पर आगे जाकर मिलना था। वहां के बीहड़ तथा अन्जान प्रदेश में गढ़वाली पल्टन की एक पलाटून टुकड़ी दिशा भ्रम के कारण रास्ता भटक गई और घनघोर बीहड़ जैसे स्थल में फंस गई। कई दिन तक जवानों का भूख प्यास से बुरा हाल था क्योंकि शत्रु प्रदेश में होने के कारण दिन में भूखे प्यासे झाड़ियों में छिपे रहते और रात को छुपते-छुपाते रेंगते हुये आगे बढ़कर रास्ता ढूंढते l
ऐसे ही एक रात थके भटके सिपाही दुश्मनों से बचते-बचाते अपना रास्ता खोज रहे थे कि तभी सामने से किसी के आने की आहट महसूस की और सभी ने अपनी बन्दूकें कस कर पकड़ लीं और ग्रुप कमान्डर के इशारे के आदेश से आक्रमण करने को तैयार बन्दूक साधे झाड़ियों की तरफ टक-टकी लगाये खड़े हो गये । रात के अँधेरे में दुश्मन की स्थिति और संख्या का अंदाजा लगा पाना मुश्किल था लेकिन फिर भी सभी मजबूती से बन्दूकें पकड़े चौकन्ने खड़े थे। लेकिन जब झाड़ियों से आने वाला बाहर निकला तो उसको देख कर, सबकी सांस में सांस आई, बन्दूकों पर पकड़ ढीली पड़ गई और फिर से भूख भी लौट आई । वो जिसको दुश्मन समझ रहे थे और हमले की तैयारी कर खड़े हो चुके थे वो था “एक भीमकाय जंगली बकरा” l
जो उन जवानों के सामने चुपचाप खड़ा उनको देख रहा था । लेकिन वो बकरा बड़ा शानदार था, उसके बड़े-2 सींग और लम्बी दाढ़ी उसकी उम्र भी बता रही थी और वो देवदूत की तरह जवानों की हलचलें देख रहा था। अजनबी देश में भटके हमारे जवान कई दिनों से भूखे भी थे तो उन्होंने उस बकरे को घेर कर पकड़ कर खाने की खाने का फैसला किया और उसकी घेराबंदी करने लगे …….और बकरा भी उनको यह सब करता हुआ चुपचाप खड़ा उन्हे ही देखता रहा।
जब बकरे ने देखा कि सिपाही उसकी तरफ आ रहे हैं तो वह जैसे खड़ा था वैसे ही उल्टे पैर जवानों पर नजर गढ़ाये जिधर से आया था उधर को उल्टा पीछे चलने लगा। धीरे धीरे पीछे हटता देख बकरे को ,सिपाही हौसले में आगये और चाकू हाथ में थामें बढ़ते रहे उसके पीछे । काफी दूर तक चलते चलते बकरा उनको एक बड़े खेत में ले आया था वहां आकर बकरा खड़ा हो गया। जवानों ने फिर बकरे को घेर लिया लेकिन तभी बकरे ने अपने पीछे के पावों से मिट्टी को खोदना शुरू किया थोड़ी ही देर में मिट्टी से बड़े बड़े आलू निकल कर बाहर आने लगे। खेत से आलुओं को निकलता देखकर सिपाहियों समझ गये कि यह बकरा भी हमारी भूख और मन की व्यथा को समझ रहा था शायद ।
और बकरे के मूक व्यवहार को देक सभी सभी जवान गद्-गद् हो गये , सबने हथियार छोड़ बकरे को गले से लगाया । उसके बाद सिपाहियों ने बकरे के खोदे हुये आलुओं को इकट्ठा कर भूनकर खाया। पेट भर कर उनकी जान में जान आई और वे अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हुये । कुछ दूर चलकर उनको अपने साथी भी मिल गये। निर्धारित स्थान पर आक्रमण कर गढ़वाली पल्टन विजयी हुई। लौटते समय सैनिक वहां से जीत के माल, तोप, बन्दूक, बारूद के साथ उस भीमकाय बकरे को भी लैन्सडौन छावनी में ले आये।
गढ़वाल राईफल्स की लैन्सडौन छावनी में विजयी सैनिकों का सम्मान हुआ। उनके साथ ही उस बकरे का भी सम्मान किया गया क्योंकि युद्ध में उसने पलाटून के सभी जवानों की जीवन रक्षा की थी अत: उस बकरे को “जनरल” की उपाधि से सम्मानित किया गया। वह बकरा भले ही “जनरल” पद की परिभाषा तथा गरिमा ना समझ पाया हो लेकिन वह परेड ग्राउन्ड में खड़े सैनिकों, आफिसरों के स्नेह को देख रहा था, सभी उस पर फूल बरसा रहे थे। विशाल बलिष्ठ शरीर, लम्बी दाढ़ी वाला वह “जनरल बकरा” फूलमालाओं से ढका एक सिद्ध संत सा दिख रहा था। सैनिकों ने उसका नाम प्यार व सम्मान से “बैजू” रख दिया था। उस जनरल बकरे को पूरे फौजी सम्मान प्राप्त थे, उसे फौजी बैरिक के एक अलग क्वाटर में अलग बटमैन सुविधायें दी गईं थी। उसकी राशन व्यवस्था भी सरकारी सेवा से सुलभ थी उस पर किसी तरह की कोई पाबन्दी नहीं थी, वह पूरे लैन्सडौन शहर में कहीं भी घूम सकता था। आर० पी० सैनिक उसकी खोज खबर रखते थे। शाम को वो या तो खुद ही आ जाता या उसको ढूंढकर क्वाटर में ले जाया जाता था। बाजार की दुकानों के आगे से वो जब गुजरता था तो उसकी जो भी चीज खाने की इच्छा होती थी खा सकता था चना, गुड़, जलेबी, पकौड़ी, सब्जी कुछ भी। किसी चीज की कोई रोक टोक नहीं थी, उस खाये हुये सामान का बिल यदि दुकानदार चाहे तो फौज में भेजकर वसूल कर सकता था। अपने बुढ़ापे तक भी वह “जनरल बकरा” बाजार में रोज अपनी लंबी-लंबी दाढ़ी हिलाते हुये कुछ ना कुछ खाता तथा आता जाता रहता था। नये रंगरूट भी उसे देखकर सैल्यूट भी ठीक बूट बजाकर मारते दिखते थे, ऐसा क्यों ना हो वह जनरल पद से सम्मानित जो था।
लेकिन फिर एक दिन वृद्धवस्था होने की वजह से वो मर गय। उसकि मृत्यु पर फौज व बाजार में शोक मनाया गया। जनरल बकरा मर कर भी दुनिया को एक संदेश दे गया। “प्राणी कोई भी हो उसका स्वरूप कुछ भी हो, परन्तु आत्मा एक ही होती है, मनुष्य ही नहीं जानवर भी दिल रखते हैं.. प्यार करते हैं, परोपकार की भावना उनमें भी मानव से कम नहीं होती बल्कि उनसे अधिक होती है…”।