गढ़वाल में बचे सिर्फ 15-20 प्रतिशत लोगों पर राज किया गोरखाओं ने।
(मनोज इष्टवाल)
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि गोरखा शासन काल (1803 से 1815) में जब गढ़वाल राज्य में गोरखाओं ने शासन किया तब उन्होंने सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत शेष बची गढवाळी जनता पर राज किया।
यह मैं नहीं बल्कि वे दस्तावेज कहते नजर आ रहे हैं जो गढ़वाल नेपाल के उस दौर के संधिपत्र में वर्णित नजर आ रहे हैं। कुमाऊँ पर अपना राजकाज फैलाने के बाद जब अप्रैल 1791 के अक्टूबर 1792 तक गोरखा सेना ने गोर्खाली कप्तान कालू पांडे की अगुवाई में गढ़वाल राज्य की घेराबंदी की तब ये लोग भैरों गढ़ी से आगे नहीं बढ़ पाए थे जबकि कर्णप्रयाग के रास्ते ये लोग गैरसैण होते हुए श्रीनगर पहुंचने को आतुर रहे लेकिन ज्यादात्तर सेना बावर व भैरवगढ़ में फंसने के कारण इन्होंने कूटनीति से राजा गढ़वाल प्रधुम्नशाह से एक धर्मपत्र बनवाया जिसके तहत शाके 1714 संवत 1849 सन 172 में यह संधिपत्र बनाया गया जिसमें लिखा गया-
श्रीराम:1
श्रीमहाराज प्रधुमनशाही मैं स्वस्तिश्री श्रीकेदार रघुनाथ गंगा7 (मुद्रा) श्री प्रधुमनशाह।। कप्तान कालू पांडेजी को धर्मपत्र लिख दीया गोरसा गढ़वाल का इष (इष्ट) भया कालू पांडे जी नै गोर्षा दरबार मैं गढ़वाल दरबार….मदत मैं रहण कालू पांडेजी की संतान गढ़वाल….रि मैं आवे ताऊ जो गोरखा दरबार मैं कालू पांडे जी की मानता। माफिक गौर गढ़वाल दरबार नै करणी अन्यथा करैं उपरि लिखित देवता कुदृष्टि करै साक्षी गुरू जय देव पांडेजी मणिराम भट्टजी 1849 कार्तिक 11 गते (23 अक्टूबर 1792)।
इस संधि पत्र के प्रारूप के आधार को अगर जोड़कर देखा जाय तो यह विदित होता है कि गोरखा राज नहीं 12 साल अप्रत्यक्ष (1792 से 1803) वे 12 साल प्रत्यक्ष (1803 से 1815) रहा।
बाबू राम आचार्य की पुस्तक ” नेपाल को संक्षिप्त इतिहास” के अनुसार बैशाख 6 गते 1858 संवत (16 अप्रैल 1801) को 1792 की संधि को 10 बर्ष के लिए नवीनीकृत किया गया लेकिन अपने साम्राज्य के विस्तार को आतुर नेपाल ने इस संधि पत्र का तब उल्लंघन किया जब 1 सितंबर 1803 यानी अनन्त चतुर्दशी गुरुवार के दिन आये भूकम्प ने गढ़वाल की 85 प्रतिशत जनता को लील लिया और पूरा गढ़वाल महामारी व अकाल से जूझ रहा था। तब 12 गते कार्तिक 1860 संवत (दशहरा 26 सितंबर 1803 में नेपाली सेना ने मात्र 25 दिन की यात्रा तय कर श्रीनगर में प्रवेश किया। इस विनाशकारी भूकंप ने श्रीनगर महल भी बहा दिया था। अपने प्राण संकट में देख कुछ विश्वसनीय सिपाहियों के साथ महाराजा प्रधुमनशाह छिपते छिपाते देहरादून पहुंचे व वहां से सहारनपुर पुंडीर राजपूत व लंडोरा से गुर्जर सैनिकों की टुकड़ी लेकर पुनः देहरादून लौटे। जहां नेपाली सेनापति रण बहादुर थापा और हस्तिदल चौतरिया की विशाल सेना के साथ निर्णायक युद्ध लड़ा।
15 गते आषाढ़ 1861 संवत (26 जून 1804) को खुडबुडा देहरादून के निर्णायक युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए और इस तरह गढ़वाल राज्य का अंत हुआ। इस बात से संतुष्टि तो हुई कि मात्र 15 प्रतिशत गढ़वालियों ने तब भी गोरखा सेना से लोहा लिया जबकि वे महामारी की जद में थे वे अपनों की लाशों के लिए लकड़ी व कफ़न ढूंढ रहे थे।
बहुत ही सुंदर जानकारी अतीत की ।
शुक्रिया जी।