गोल्जू की अद्भुत जागरशैली का गायन होता है उदयपुर में…! अन्य कहीं भी जागर वृदावली रूप में नहीं गई जाती. गोल्जू चावल देखकर करते हैं आज भी आपके प्रश्नों का हल…!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 24 अक्टूबर 2015)


*कुछ तो जरुर है इस देवभूमि में वरना ऐसा अजब-गजब न होता यहाँ…!


23 अक्टूबर की सुबह घोडाखाल से हमारी टीम जिनमें जीवन चन्द्र जोशी, कविता जोशी उनकी पुत्री गरिमा जोशी व हरीश जोशी (सभी घोडाखाल नैनीताल) बिन्ता-उदयपुर (अल्मोड़ा) के लिए निकले! रास्ते में हमें रानीखेत स्थित चमड़खान के गोलज्यू मंदिर भी जाना था इसलिए हम रानीखेत से बिनसर वाले रूट पर आये और चमडखान के गोलज्यू मंदिर में मस्तक नवाकर फिर वापसी के लिए रानीखेत होते हुए सोमेश्वर वाली सडक पर निकल पड़े !

उदयपुर गोल्जू मंदिर में जब मैं पहुंचा तो लगभग संध्या काल शुरू हो गया था देवअर्चना की तैयारी चल रही थी! मंदिर समिति के सदस्यों द्वारा यथासंभव मेहमाननवाजी भी की, मैं उनका शुक्रिया अदा करता हूँ! अब आते हैं गोल्जू देवता के इस नगाड़े पर जिसे बजाने वाले ढोली के हाथ में जो लान्कुड थी वह किसी पेड़ की टहनी से निर्मित नहीं बल्कि जड़ाऊ के सींग या फिर हाथी दांत से निर्मित लग रही थी! इस नगाड़े पर ब्राह्मी भाषा में कुछ अंकित किया गया है जिससे यह आभास होता है कि यह नगाड़ा कत्युरी काल से पूर्व का है जो बाद में चंद वंशी राजाओं से होता हुआ वर्तमान तक पहुंचा है! यह कहा जा सकता है कि यह नगाड़ा लगभग 2000 बर्ष पुराना है!

गोलज्यू मन्दिर समिति बिन्ता-उदयपुर के सदस्यों के बीच मैं व निर्माता जीवन चन्द्र जोशी!


गोल्जू देवता की जागर मैंने न सिर्फ उदयपुर में सुनी बल्कि इससे पहले घोड़ाखाल, चितई, दान्या, चम्पावत सहित कई अन्य लोककलाकारों से इसे सुन चुका हूँ, लेकिन जो जागर गोल्जू की उदयपुर के इस ढोली समाज ने लगाई वह जागर कम वृदावाली ज्यादा लगी उन्होंने धौली-धुमागढ़ नहीं बल्कि गोल्जू की विजय यात्रा में डोटी नेपाल के राजा कृष्णा शाही व सुबनिया डूट्याल से हुए उनके युद्ध का वर्णन भी सुना जो मेरे लिए अद्भुत था क्योंकि अब यह काम और विस्तृत और शोध के लिए व्यापकता का केंद्र बन गया है! मुझे पौड़ी गोरिल कन्डोलिया के पश्वा कमल किशोर याद हो आये जिन्होंने चावल देखते हुए मुझसे कहा था कि तुम क्या सोच रहे हो कि तुम्हारा काम पूरा हो गया है! अभी तो तुमने शुरुआत ही की है! तब मैं मुस्कराया था क्योंकि मुझे लगा था कि यह पश्वा नहीं बल्कि कमलकिशोर बोल रहा है क्योंकि उन्हें क्या पता कि मैं गोलज्यू पर बन रही डाकुमेंट्री फिल्म का अंतिम चरण निबटाने आया हूँ लेकिन जब यह जागर सुनी तो लगा वह कमल किशोर नहीं बल्कि गोरिल कंडोलिया का पश्वा ही था क्योंकि मैं इस से पूर्व सिर्फ धनगढ़ी नेपाल व बैतडी नेपाल की ही ख़ाक छानकर आया था अब लगता है मुझे नेपाल के पूरे पश्चिमी नेपाल के दार्चुला, बैतडी, पाटन, बझांग, डंडेलधुरा, उग्रतारा, अमरगढ़ी, दीपायल, डोटी इत्यादि क्षेत्रों का भ्रमण भी करना होगा! लेकिन कब ..? यह कहना संभव नहीं है!


मैंने यहाँ गोल्जू के साथ हीत व नाचते हुए देखा लेकिन देवात्माएँ खेलने से पहले उनका श्रृंगार होते पहली बार देखा, गोल्जू को चांदी का मुकुट पहनाया गया! फिर जिस तरह गोल्जू अवतारी चावल देखकर सबकी समस्याओं के बारे में बता रहे थे! लगा जैसे सचमुच गोल्जू का न्याय दरबार लगा हो! मैंने स्वयं अपनी समस्याओं के निदान के लिए एक पत्रकार के तौर पर परीक्षा लेनी चाही उलटे मेरे पूरे बदन में ही कंपकंपी होने लगी आँखे बंद होने लगी, तब लगा कि कुछ तो चमत्कार जरुर है! वरना इतनी ठिठुरन भरी रात को इतने महिला पुरुष यहाँ जागरण नहीं करते रहते!

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