गोरला जाति पडसोली क्वाठा (किला) व गोरखा…..ब्रिटिश सरकार !
ट्रेवलाग…….नैनीडांडा महोत्सव… 2020!
(मनोज इष्टवाल 1 फरवरी 2020)
अँधेरा घिर चुका था…! सुन्दरखाल से लगभग 15 किमी. आगे रामगंगा की गोद में बसा मर्चूला भला कहाँ दिखने वाला था! मैंने शीशा डाउन किया तो नदी के बहाव की सांय-सांय सुनाई दी! बस हम पहुँचने ही वाले हैं यह मन में ही रह गया कि चन्द्रेश योगी ने गाडी को बांयें मोड़ा! गाड़ी के मुड़ते ही तारिणी कॉर्बेट कैंप का साइन बोर्ड दिखाई दिया जिसमें हम दाखिल हुए! मैं बोला- लगता है मंजिल आ गयी! चन्द्रेश बोले- बिलकुल भाई साहब..! हम पहुँच गये!
तारिणी कॉर्बेट कैंप के ऊपर हिस्से पर पार्किंग थी! हम सामान उतारकर जैसे ही कैंप में दाखिल हुए वहां दायीं ओर अलाव (कैंप फायर) से घिरे कुछ बांके जवान हुक्के के सुट्टे के साथ दिखाई दिए! हमारी नजर पड़ते ही वे और चौड़े नजर आये! मैं मुस्करा दिया कि ये बांके जवान हरियाणवी जाट ही हो सकते हैं! मेरा शक सही निकला क्योंकि उनकी भाषाई अशुद्धता ने रही सही कसर पूरी कर दी!
इस कॉर्बेट कैंप का रिसेप्शन कहाँ है यह तो ज्ञात नहीं हो पाया लेकिन बाहर ही हमें कुछ अपने हिसाब के लोग दिखाई दिए! चन्द्रेश के अलावा हम अन्य किसी से परिचित नहीं थे! इसलिए चन्द्रेश ने ही सबसे परिचय करवाया! उनमें नेगी जी…तारिणी कॉर्बेट कैंप के मालिक, यादव जी व दो एक सज्जन और खड़े थे! तब तक किचन के दरवाजे से एक व्यक्ति बाहर निकला तो रतन असवाल बोल पड़े- अरे मेरा साला कहाँ से ले आये पकड़ कर..!
फिर क्या था साला-जीजा ऐसे लिपटे मानो बर्षों से अब मिलन हुआ हो! परिचय हुआ तो पता चला ये रावत जी हैं! हमारे ही विकास खंड कल्जीखाल के सीरों गाँव के! अर्थात सांसद तीरथ सिंह रावत के परिजन..! परिचय की ब्यापकता तब बढ़ी जब यह पता चला कि नेगी जी, रावत जी व उनकी टीम आज गुजडू गढ़ के तीन फिट बर्फ में ट्रेकिंग पर गए थे! तब पता चला कि रावत जी…दूरदर्शन दिल्ली में प्रोड्यूसर हैं! वे वहां का इतिहास बखान करने लगे तो रतन असवाल बोले- कुछ जानकारियाँ कम पड़ जाएँ तो इष्टवाल जी से ले लीजिये! ये हमारे साथ इनसाइक्लोपीडिया की भूमिका में हैं! भला दिनेश कंडवाल छौंका मारने में पीछे रहते! बोले- हाँ..हाँ, गढवाल, कुमाऊं जौनसार अर्थात पिंडारी से लेकर फ़तेपर्वत चाईशिल तक जितनी गढ़ी-किले हैं सब इनसे अछूते नहीं हैं! इन्हें सचमुच उत्तराखंड के वास्कोटिगामा की उपाधि से लखनऊ उत्तरायणी में सम्मानित किया जा चुका है!
मुझे डर था कि कहीं पिछले दो दिन से मेरे इस टाइटल की भुज्जी बनाकर जिस तरह ये मुझे ठसकोटिगामा करके पुकार रहे हैं कहीं रतन असवाल पुनः कुछ शुरू न हो जाएँ! ईश्वर का भला हो रावत जी ने प्रसन्नता के साथ अपने मोबाइल पर कैद वह वीडिओ दिखाना शुरू कर दिया जिसमें उन्होंने गुजडू गढ़ का फिल्मांकन किया हुआ था! उनके मुंह से निकल पड़ा- गुजडू गढ़ की स्थापना नकुल ने की! अर्थात वह पांडवकालीन है! मैं उनके इस बयान को सुनकर हतप्रभ रह गया! मैं बोला- क्या कह रहे हैं रावत जी..! उन्होंने वीडियो पौज किया तो दिखा एक बोर्ड पर वहां की किसी समिति ने सचमुच यही लिखा था! बहस छिडनी लाजिम थी! मैं बोला- रावत जी, उत्तराखंड में पौड़ी गढ़वाल स्थित जितनी भी पहाड़ियां हैं वह लघु हिमालयी क्षेत्र में आती हैं व ये दुनिया की सबसे नवीनतम पहाड़ियां हैं जिनका काल अभी 3000 साल से अधिक ही हुआ है! द्वापर काल में भला यह गढ़ कैसे बना होगा? रही बात गढ़ों की तो ये ग्यारहवीं सदी के बाद ज्यादात्तर अस्तित्व में आये हैं! रावत जी समझ गए कि अगर मुझे इस बारे में जानना है तो यह व्यक्ति उचित है! बोले-मुझे सुबह आपसे विस्तार से बात करनी है! (यह वही विस्तार था जो मैं पूर्व में गुजडू गढ़ी पर लिख चुका हूँ)
यहाँ ठंड कुछ ज्यादा ही थी! ऊपर से पाला और कोहरा…! लेकिन कैंप फायर की आग उसे हमसे दूर किये हुए थी! हमें कॉटेज नम्बर 8 आबंटित हुई! दिनेश कंडवाल बोले- असवाल जी, कॉटेज में और एसी..! रतन बोले- हाँ भाई साहब! ये सफेद कपडे से निर्मित स्विस कॉटेज हैं! यहाँ गर्मियों में बहुत गर्म है इसलिए..!
मुझे अपने क्षेत्र के कॉमेडियन अर्जुन लाल (ग्राम-सौंडूल, असवालस्यूं) इसलिए याद आ गए क्योंकि वह एक तुकबंदी वाला गीत तब गाया करते थे जब मैं सातवीं-आठवीं का छात्र था! गीत के बोल कुछ यों हुआ करते थे- “रामगंगा मी तरैs द पोरा…घुघूती कु घोला!” आज यह गीत इस सुंदर सी कॉटेज में अचानक याद हो आया तो ब्रिटिश सरकार के कर्नल निकोलस व एडवर्ड गार्नर याद हो लिए जिन्होंने इसी रामगंगा तट पर फरवरी-मार्च-अप्रैल तक अपनी फ़ौज के साथ कैंप किया था व गोरखा सेना को पूर्वी गढवाल से लेकर पाली-पछाऊँ तक का क्षेत्र छोड़ने को मजबूर कर दिया था!

अब जब याद आ ही गया तो इतिहास के उन सुनहरे पन्नों की बात भी संक्षिप्त दोहरा देते हैं! जब पूर्वी गढवाल तक खबर पहुंची कि ब्रिटिश सेना ने गोरखाली सेना को बाकी जगह से खदेड़ दिया तब एक गुप्त योजना के तहत बाघा रौत ने तुलाराम के माध्यम से एक पत्र ब्रिटिश सेना के चीफ को भेजा जिसमें कहा गया कि सलाण, मल्ला सलाण, बूंगी-पैनो के कमीण सयाणा भी गोरखाली सेना का भरपूर विरोध करने को तैयार हैं! तब समय पर ब्रिटिश सेना का कोई प्रत्युत्तर न पाकर पाली-पछाऊँ नैथाणा गढ़ी में, रामगंगा के तट आर-पार जुनियागढ़, गुजडू गढ़, लोहबागढ़ पर स्थित गोरखा सेना से यहाँ के कमीण, मालदार, थोकदारों ने स्वयं ही बदला लेने की ठान ली! बाघा रौत, पदमु बंगारी, बिर्शादु गुसाईं, कल्पू लोभानेगी, बूंगी के शिमसेरू नेगी, गुजडू के उलमतु रौत, खाटली के मोहन रौत, सल्ट के मुद्रास नेगी, बंगारस्यूं के सोईबत रौत, ढौंडियालस्यूं के दशरथ बामण, मेल्धार के भंडारी, तलाई के धरमु नेगी, कोलागाड़ के उबदलु रौत, सैंजधार के भुवानन्द बामण, बिजलौट के शमशेरू नेगी सहित सैकड़ों पूर्वी गढवाल प्रांत व रामगंगा पार के थोकदार सयाणाओं ने बिना हथियार ही गोरखा सैनिकों की छावनियों व गढ़ों में कब्जा जमाए गोरखाओं को खदेड़ने के लिए तैयार हो गए! सबसे पहले लोहाबा गढ़ी में धावा बोला गया! जहाँ से पानी के स्रोत बंद कर दिए गए! मजबूरन यहाँ से गोरखाओं को भागना पड़ा! यह जानकारी मिलते ही ब्रिटिश फ़ौज के गार्डनर द्वारा इन्हें हथियार उपलब्ध करवाए गए व इन्होने पूरा पूर्वी गढवाल प्रांत ही नहीं बल्कि पाली-पछाऊ भी गोरखा शासन से मुक्त करवा दिया! इनकी इस युद्ध कौशलता पर ब्रिटिश सेना ने इन्हें तोपों की सलामी दी व वृहस्पतिवार 4 बैशाख संवत 1872 अर्थात 27 अप्रैल 1815 को चौतरा बमशाह, काजी चामू भंडारी, कप्तान अंगद सिंह सरदार और जसमदन तथा कर्नल निकोलस के प्रतिनिधि ले.कर्नल गार्डनर एवं गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि एडवर्ड गार्डनर के बीच हुए समझौते में जहाँ गोरखा सेना ने यह पूर्वी प्रांत खाली किया वहीँ ब्रिटिश शासकों ने उपरोक्त गढवालियों को उन्हें स्वतंत्र थोकदारी, कमीण व सयानाचारी बांटी! सन्दर्भ-(सक्सेना-हि.पे. कुमाऊं पत्र-33 पृष्ठ 70-71/एटकिंशन- हिमालयन डिस्ट्रिक्स, जि. 2, पृष्ठ 664)

पडसोली क्वाठा….! अर्थात वीरांगना तीलू रौतेली के भाई पत्वा का दरबारगढ़! गोर्खाली काल में भी इन्हीं गोर्ला रावतों के हस्तगत था लेकिन इनकी गढ़ी व थोकदारी पर गोर्खा काजी चामू भंडारी व चौतरा बमशाह की लगाम थी जो इनसे क्षेत्रीय जनता की कर वसूली करवाते थे व इन्हें भी कर देने के लिए विवश करते थे जिसमें दरबार गढ़ का कर अलग से देना पड़ता था लेकिन जैसे ही ब्रिटिश शासकों ने समझौते के तहत इसे हस्तगत कर उलमतु गोर्ला व थौबा गोर्ला के पिता पढसू गोर्ला को इसकी जागीर सौंपी इन्होने दरबार गढ़ का नाम बदलकर पड़सोली क्वाठा (किला) कर दिया! और इसकी दुबारा से मरम्मत करवाकर इसका आकार चौकोर कर दुपुरा (द्वीपुरा) शैली में प्रवर्तित कर दिया! कहते हैं यहाँ भी कत्यूरियों का दोष लगा तो क्वाठा के अंदर नरसिंह देवता की मूर्ती स्थापित कर उसकी कुल देवता के रूप में पूजा शुरू कर दी! यहाँ के गोर्ला नंदा देवी को अपनी ईष्ट देवी मानते हैं या नहीं लेकिन गुराड़ गाँव में आज भी नंदाखेत है! वहीँ अस्त्रगार में वह चांदी मूठ की चादुई तलवार भी रखी गयी है!
दुपुरा शैली में ज्यादात्तर थोकदारों या गढ़पतियों के किले (क्वाठा) रहे हैं लेकिन इनमें ज्यादात्तर आयताकार हुए! इस क्वाठा की खासियत यह है कि इसके निर्माण पर कई चीजें बहुत ध्यान देने योग्य हैं! इसमें कटौ (कटुवा), कमरस, सागर, प्रस्तर खंड ढुंग, ढुंगो, पाख, कूड़ा की ढुंग, पटाल-पटालखण किस्म के पत्थर लगे हैं, वहीँ लकड़ी में तुन, तूणी, देवदार, चीड, बैतण, खिड़की की उर्ध्व-पट्टिका (पटौ), बल्ली-दुनदार, लकड़ी के फटे-दादर, चीला गारे, दोमट, मास, उड़द की दाल, दोमट मिटटी इत्यादि का प्रयोग किया गया है! चीला (गेंहूँ की भुस्सी) दीवारों पर प्लास्टर, दो पटालों के जोड़ पर भी गारा डालकर तोक बिछाई गई है! छोटा प्रस्तर पणकट गोबर का प्रयोग कमेट-कमेडा की मिटटी से किया गया है! गोबर व लाल मिटटी के फर्श की लिपाई के पाल और पाल डालने के लिए इस्तेमाल में लाई गयी है!

पड़सोली भवन की आकृत्ति चोकोर है! इसके बारे में राकेश रावत जी बताते हैं किले के अंदर आंगन 45×45 फिट है! यह किला दो मंजिला है व इस पर लगभग 32 कमरे निर्मित हैं! इसमें जेल व घुड़साल भी अंदर ही है! इसका मुख्य द्वार पूर्व दिशा में दो दक्षिणी द्वार हैं!
वहीँ जगमोहन रावत जी कहना है कि इसके मुख्यद्वारों के ऊपर तिबारियाँ हैं! जेल के ऊपर बनी तिबारी का बरामदा खुला रखा गया है व दो मंजिला अंदरूनी भाग खम्ब शैली से निर्मित है! सिर्फ जेल का कमरा ही अंडरग्राउंड है भूतल के एक हिस्से में घुड़साल है व पुराने बताते हैं कि यहीं कहीं से सुरंग का रास्ता दूर कहीं निकलता था जिसका आज अनुमान नहीं है!
वास्तु के हिसाब से अगर देखा जाय तो कोई भी क्वाठा (किला) जब भी हिमालयी भू-भाग में बनाया गया उसके लिए भूमि परीक्षण, शिलान्यास, वास्तु-देवता पूजन इत्यादि कर भवन की नींव रखी जाती थी! और तो और तिबारी का शिलान्यास करते हुए बलि के रूप में मानव बलि, मेंढा बलि या बकरा बलि चढ़ाई जाती थी! यह कितना सच है मैं नहीं जानता लेकिन जब मैं ईड़ा तल्ला सिपाही नेगियों के किले पर शोध कर रहा था तब मुझे बताया गया था कि इसके मुख्य द्वार पर जब तिबारी चढ़ाई गयी तो कहा जाता है यहाँ बंधक बनाए गए दुश्मन को चिना गया था! पड़सोली के दरबार गढ़ में क्या ऐसा कुछ हुआ या नहीं इसका मुझे ज्ञान नहीं और न ही मैंने इस बारे में किसी से जानकारी ही ली!
दुपुरा शैली के किले के निर्माण में अगर उसकी उंचाई 16 से 18 फिट हो तो उसकी नींव अर्थात बुनियाद की चौड़ाई तीन फिट होती है और अगर 20 से 24 फिट हो तो उसकी नींव की चौड़ाई 4 फिट होती है! मेरा व्यक्तिगत अनुमान है कि पड़सोली का यह क्वाठा 20 से 24 फिट ऊँचा है इसलिए इसकी बुनियाद 4 फिट से कम नहीं है, इसकी चौड़ाई भूतल पर आते आते 2 फिट है!
किले के मुख्यद्वार को खोली भी कहा जाता है जिसमें काष्ट गणपति विदमान होते हैं! कई किलों में गणपति के स्थान पर अपने कुलदेवता की मूर्ती प्रस्थापित की गयी है! यहाँ सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि गोर्लाओं की रणदेवी नंदा ईष्टदेवी है जो हर गोर्ला परिवार जानता है! गुराड़ का नंदा ख्यात इस बात की पुष्टि करता है क्योंकि यहीं अपने कुलपुरोहित शिवराम पोखरियाल से तीलू रौतेली व उसकी भाभियों (देवकी, बेला व सुर्जी) ने हथियार चलाने व घुडसवारी सीखी थी! यहीं अपनी भरवा बंदूक से उसने आचुक निशाने लगाने सीखे थे! उसकी गोलियों से मरे कत्यूरियों ने उस बाँझ का नाम ही गोलियां बाँझ रख दिया था जिसकी आड़ से देवकी ने काठी-गोसाईं को मार गिराया था!
गोर्ला जाति वंशज इंडिया टुडे के आर्ट डायरेक्टर चन्द्र मोहन ज्योति बताते हैं कि देवकी कम से कम 6 फिट ऊँची रही होंगी क्योंकि उनकी तलवार 17 किलोग्राम की थी जो गुराड़ क्वाठा में विराजमान थी! बाद में उसे अंग्रेज अपने साथ ले गए थे!
पड़सोली का दरबार गढ़ क्षेत्रीय जनता के लिए इन्साफ का न्यायालय भी था! यहाँ सिर्फ एक बात ही अलग लगी कि यहाँ गोर्लाओं के कुल देवता भैरों के स्थान पर नरसिंग विराजमान हैं! उस पर ज्यादा जानकारी तभी दे पाउँगा जब इस पर व्यापक रिसर्च लेकर आऊंगा! फिलहाल इस किले की शानदार नक्कासीदार तिबारी, घुड़कंठ, धरणी, पट्टिका, पार्श्व झालर, छत्र, घट-पल्लव, पार्श्व स्तम्भ, लता-वल्लरियाँ, पुष्प अभिप्राय, ज्यामितीय उत्कीर्ण, चौखट, पेडया, तलछन्द, चाख, खिड़कियाँ, छजली, तोड़े, पट, मौन खिड़कियाँ, जालीदार खिड़कियाँ, बंद खिडकियां, मोरी, उल्टी छत्त, कोठार, रेलू, सीढियां सहित जाने क्या-क्या निर्माण पर इमारती लकडियाँ ही इस्तेमाल की गई हैं! प्रथम दृष्टा इस किले पर लकड़ियों में अखरोट, असीन, अंगू, सैंदन, उत्तीस, कीमू, कुकुरकाट, खैर, खार्सू, गेंठी, चौड़, तुन, तिलंज, देवदार, पय्याँ, पांगर, मेलु, सिरस व पर्वतीय कन्नार (साल) इत्यादि का प्रयोग किया गया है! यहाँ रणीहाट (जनानागाह) में जालीदार लकड़ी की खिड़कियाँ बनी हैं जहाँ से बाहर देखने के लिए तो दिख जाएगा लेकिन अंदर आसानी से देखना सम्भव नहीं है!
पड़सोली क्वाठा पूर्णत: एक किले की किलेबंदी से कम नहीं है! सचमुच तब के लोग हमसे कई अधिक बुद्धिजीवी थे क्योंकि उन्होंने कभी भी क्वाठा की उंचाई दो मंजिला से अधिक नहीं बढाई! उनकी तकनीक ऐसी की आजतक जाने कितने भूकम्पों का सामना करने के बाद भी यह क्वाठा आज भी अजर अमर है लेकिन यह भी सच है कि गोर्ला अपनी ऐतिहासिक विरासतों के प्रति बहुत अधिक उदासीन है वरना ये लोग इन्हें संग्रहित करने के लिए अवश्य तत्पर रहते! ऐसा अभी नहीं है कि गोरला बड़े पदों पर आसीन न हों! गुराड़ के गोरला तो लेफ्टिनेट जनरल से लेकर विधायक तक बने लेकिन सबसे बुरी स्थिति आज किसी गाँव की है तो वह तीलू रौतेली के मायके वाले गाँव गुराड़ की है! जहाँ न बर्षों से नंदा की सामूहिक पूजा हुई है न थौळ ही आयोजित हुआ है! माँ नंदा भला करे वसुंधरा नेगी का जिसने नंदाख्यात में वीरांगना तीलू रौतेली का नाट्य मंचन कर एक इतिहास रचा व दिल्ली में नाट्यकर्मी लक्ष्मी रावत ने इसे हिंदी में प्रस्तुत कर इसका स्वरूप वृहद किया!
यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जिस क्वाठा में तीलू रौतेली ने जन्म लिया वह सिर्फ बंजर ही नहीं बल्कि खंडहर भी हो गया है! कभी मैंने इस क्वाठा में खूब रोटियाँ खाई व शुकून की नींद सोया था! आज शुकून की नींद में गोर्ला थोकदार हैं और मैं घिमडू हुडक्या की भूमिका में धकी..धैंs धैंss कर गोर्ला थोकदारों की नींद उड़ाने का काम कर रहा हूँ ताकि वे संगठित होकर एक प्रस्ताव तो कम से कम अपने क्षेत्रीय विधायक जोकि वर्तमान में पर्यटन व धर्मस्व-संस्कृति मंत्री हैं, सतपाल महाराज जी को भेजें व प्रदेश सरकार ही नहीं बल्कि देश की सरकार से भी अर्ज करें कि वीरांगना तीलू रौतेली के ऐतिहासिक स्मारकों का जीर्णोद्वार किया जाय!
मैं अपने को धन्य समझता हूँ कि भाजपा के केन्द्रीय प्रवक्ता व राज्य सभा सांसद अनिल बलूनी जी ने मेरे लेखों का सन्दर्भ लेते हुए वीरांगना तीलू रौतेली के गाँव गुराड़ व उनकी ससुराल ईड़ा के क्वाठा व चौंदकोट गढ़ी को राष्ट्रीय स्मारकों में सम्मिलित किया लेकिन हमारे उदासीन समाज ने अभी तक इस पर पहल नहीं की! मैं हृदय से गदगद हूँ कि बहाना चाहे नैनीडांडा महोत्सव का रहा हो लेकिन इसी बहाने ठाकुर रतन असवाल ने मुझे तीलू रौतेली विजित वह समस्त क्षेत्र अपने चौपाये घोड़े में घुमाकर वीरांगना तीलू रौतेली के सन्दर्भों को छेड़ने व देखने का अवसर प्रदान कर दिया! मैंने उनकी भावी देवकी ने जहाँ प्राण त्यागे देघाट, बेला भाभी का बेलाघाट व सुर्जी भाभी का सराईखेत देखा! सचमुच कैसी वीरांगना रही होंगी वे महिलायें! जिन्होंने उस काल में रणचंडी का रूप लिया जिस काल में कहा जाता था कि बेटी अगर किसी ठाकुर के घर में जन्म ले तो उसके लिए सबल, कुदाल पहले ही तैयार रहती थी कि कहीं बड़ी होकर हमारी नाक बेटी के कारण नीची न हो! देवकी, बेला और सुर्जी ये तीलू की सगी भावियाँ थी या नहीं ये इतिहास के गर्त में थी लेकिन ये वीरांगनायें भी तीलू से कम नहीं थी क्योंकि इन तीनों ने ही रण भूमि में प्राण त्यागे! यह भी अजीब संयोग है कि वीरांगना तीलू रौतेली गुराड़ से लेकर चौन्दकोट, पिंगलपाखा, तलाई, साबली, काटली, गुजडू, सल्ट पाली-पछाऊँ तक विजय अभियान करके लौटी तो उसे राम गंगा की जगह पूर्वी नयार में मौत मिली! जिसका जल बहता हुआ मैठाना घाट पूर्वी नयार से बहता हुआ दनगल सतपुली होता हुआ गंगा शरण हुआ! कहा तो यह भी जाता है कि मैठाणा घाट तीलू की माँ मैणावती के नाम से पड़ा लेकिन गढवाल के इतिहास में कई ऐसे छेद हैं जिनकी भरपाई कर पाना अब सम्भव नहीं क्योंकि हर काल में जिसने जैसा चाहा इसे वैसे मोड़ा! फिलहाल मुझे फक्र हुआ कि मैंने इस वीरांगना के पुरखों की पड़सोली की माटी को छुआ व उसे हृदय से नमन किया! कांडा व सिसई के गोर्ला वंशज अगर चाहेंगे तो उस जमीन को भी नतमस्तक करने का मन है!
गोर्ला जाति के पडसोली आगमन के बारे में जगमोहन सिंह रावत बताते हैं कि उनके पुरखे गुजरात से सन 761 में आकर यहां बसे हैं। गोरला रावत वशिष्ठ गोत्र के परमार है जो गुरार गांव (वर्तमान गुराड ) में बसने से गुरला/ग्वला/गोर्ला हुए तथा कालांतर मे गोरला नाम से कहलाये। ये 817 संवत अर्थात् 761 ईस्वी मे उत्तराखंड मे आये। पहले काली कुमाऊं क्षेत्र के सीमित भाग के शासक रहे । वहां चंद राजाओं का प्रभाव बढने पर गढ़वाल के परमार शासकों के अधीन गुराड़ मे आये । इनको रावत की उपाधि दी गयी। इनकी कुल देवी कालिका माता, कुलदेवता नरसिंह, रसोइये सेमवाल ब्राह्मण ,जोशी सैंधार गांव के, कुल पुरोहित पोखरियाल, वस्त्र पीत ,खडग भवानी है। पडसोली के थोकदारों के लठैत जेठा रावत थे जो अभी पडसोली के पास ज्योद्लयु गांव मे है । पडसोली के गोरलाओ के झंडे का मुझे ज्ञान नहीं है।
(नोट- फिलहाल तीलू रौतेली सम्बन्धी समस्त जानकारियाँ यहीं ट्रेवलाग में साझा नहीं कर सकता क्योंकि आने वाले समय में यह पुस्तक के रूप में वृहदता लेगी इसलिए कल का सफर अब नैनीडांडा महोत्सव का…! बस पढ़ते रहिये मेरे साथ मेरी बात मेरे ट्रेवलाग में!)
क्रमशः………………….