गॉव में रिवर्स पलायन शुरू..असवालस्यूं नैल के युवाओं की मेहनत लायी रंग!
असवालस्यूं नैल के युवाओं की मेहनत लायी रंग, गॉव में रिवर्स पलायन शुरू..!
(मनोज इष्टवाल)
“इतिहास उधर चल देता है जिस ओर जवानी जाती है”? सचमुच इस गॉव के युवा नया इतिहास लिखने वाले हैं क्योंकि इनकी एक ऐसी चमत्कारिक पहल ने गॉव के उजड़े खंडहर मकानों की धूर फिर से चुनवानी शुरू कर दी है! जो खंडहर के अस्तित्व की अंतिम सांस में थे उनके लगभग कठमाली हो चुके वंशजों ने भी अपने बंजर हो चुके खेत खलिहानों को ढूंढना शुरू कर दिया है. सचमुच इन युवाओं ने पहाड़ के पलायन की परिभाषा ही बदलकर रख दी.
(नैल गाँव असवालस्यूं पौड़ी गढ़वाल)
राज्य निर्माण के शुरूआती बर्षों में ज्यादातर उन्हीं गॉव से पलायन होना शुरू हुआ जो साधन सम्पन्न थे या जो पढ़ा लिखा समाज कहा गया. पलायन के कारण ढूंढें गए तो दो कारण मजबूती से आकर सामने खड़े हो गए पहला शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य व्यवस्था ! आज भी ये दोनों कारण पहाड़ों में उसी मजबूती से खड़े हैं जिस मजबूती से पहले खड़े थे.
प्रथम दृष्टि से देखा गया कि लोगों ने पलायन इसलिए भी किया कि सड़क व विद्युत व्यवस्था गॉव तक नहीं है लेकिन मेरा मानना इसके बिलकुल उलट है. आज भी जिन गॉवों तक सडक नहीं पहुंची वह लगभग 90 प्रतिशत आबाद हैं. और जहाँ जहाँ सडक गयी लोग वहां से तेजी से सरकने लगे. वहीँ शिक्षा व स्वास्थ्य को अपना औजार मानकर महिलाओं ने अपने बुद्धिजीवी पतिदेव को ऐसे ढाला कि वह बेचारा घर का रहा न घाट का. एक बार गृहलक्ष्मी का पैर सुख संसाधनों में क्या पड़ा कि उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
पलायन हर काल में हर देश में हुआ लेकिन उत्तराखंड का पलायन समझ से बाहर है. यहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य को बेस बनाकर हुए पलायन में सिर्फ युवाओं ने पलायन नहीं किया यहाँ जड़ ही उखड गई. पडोसी राज्य हिमाचल में पलायन कभी हुआ ही नहीं ! नवोदित हिमाचल शुरूआती दौर में पत्थर फोड़कर अपने भरण-पोषण करने वाला कहलाता था आज वही हिमाचल उत्तराखंड को हेय दृष्टि से देखता है एवं यहाँ के जनमानस को निकज्जू की संज्ञा से सम्मानित भी करता है.क्योंकि हिमाचल ने अपने खेत खलिहान घर आँगन नहीं छोड़े. बच्चों की पढ़ाई के नाम पर अपना बोरिया बिस्तर समेटकर अपनी पुरखों की कई एकड़ जमीन को लात मारकर 200-300 गज के शहरी प्लाट के शहरी बाबू नहीं कहलाये बल्कि बच्चों को हॉस्टल में रखकर अपने बाग बगीचों को विकसित किया आधुनिक खेती की तर्ज पर उन सिंचित उखड खेतों से मालामाल हुए जिनकी हम मांग सूनी करके गए हैं. उत्तराखंड का यह आधुनिक पलायन वास्तव में हम सबके लिए पहले शर्मसार करने वाला है और उसके बाद उन 16 बर्षों के 8 मुख्यमंत्रियों मंत्रियों व विधायकों की फ़ौज को, जिन्होंने पहाड़ों की ओर पीठ ही फेर दी. आपको यह जानकार हैरत होगी की सम्पूर्ण बजट का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा ही पहाड़ों पर खर्च होता है जबकि 75 प्रतिशत हिस्सा देहरादून, हरिद्वार व उधमसिंह नगर पर. यानि पहाड़ के 10 जिलों के भाग्य में सिर्फ 25 प्रतिशत अंश है.
पौड़ी जनपद के विकास खंड कल्जीखाल के नैल गॉव के पलायन के बारे में जब मेरी चर्चा हुई तब वहां के बयोवृध लगभग 85 वर्षीय सत्यप्रसाद चमोली (इवान थोक/सर्कारियुं थोक) कहते हैं कि राज्य निर्माण के समय पर उन्हें सन ढंग से याद नहीं है एक साधू संत ने आकर कहा था कि नैल नामकरण होने से इस गॉव पर 12 बरस राहूकाल रहेगा यह पूर्ण रूप से जर्जर हालात में हो जाएगा और यहाँ खेत खलिहान बंजर होंगे. तब उन्होंने उस संत को धमकाते हुए कहा था कि यह नैल गॉव है यहाँ का पानी और यहाँ की हरियाली कभी बूढी नहीं हुई है. इस गॉव में कभी बासमत्ती जैसी हंसराज चावल की महक रहती थी आज भी है और आगे भी रहेगी. अपने ऐसे दुर्वचन बंद करो. वर्तमान स्थिति को देखकर उनकी आँखों की पीड़ा शब्दों में झलककर बहने लगी बोले- भुला, जब तक ज्यूँदो छऊँ, अपणा गौ आणि-जाणी त लगीं ही राली. खुटटोन लाचार करी दे, नौना दुट्याल की पीठ म उबू उन्दु जंक्ये दिद्न! धन्य छ य अबकि शिक्षित नौजवान पीढ़ी जौन हमरी खुद मिटाण क वास्ता फिर स्ये गौ का ढक्यां द्वार खोलि येनी! सतकर्म रै होला व्हे युग का कि मेरी औलाद मेरी स्यवा पाणी छ कनि!
इस पीड़ा में वह अथाह समुद्र था जिसे बाँध पाना संभव नहीं क्योंकि अपने हंसते खेलते 12 जोड़ी के भावरी बैलों को नरसिंग दोष से मुक्ति दिलाकर अपने हर खेतों को हरियाली देने वाले इस सेवानिवृत्त सूबेदार ने इस गॉव के कई बसंत देखे हैं ! उन्हें अब उम्मीद जग गयी है कि बिखरकर समाज का सम्भालना ही सची लोक संस्कृति है वे जोश से कहते हैं- भुला देख फिर नैल आबाद होण बैठीग्ये. जू मिन बचपन म देखि छया आज उंका नौना-ब्वारी ख़ुशी-ख़ुशी गौ लौटण बैठीग्येनी जौन कभी गौ देखि ही नि छयो. कै पुछदन कि हमरा घर-खंदवार कख होला.
ऐसी ही पीड़ा 83 बर्षीय लक्ष्मी प्रसाद नैनवाल के शब्दों से भी झलकती है! उनका कहना है कि जब सेवानिवृत्ति के बाद बेटों के सहयोग से बर्षों पुराना अपना मकान बनाने का सपना संजोया और आड़ा-तिरछा जैसा भी बना हो बनाया शुकून था कि चलो अब आबत-रिश्तेदारों के लिए सादर सत्कार का समय मिल गया है अब जगह ज्यादा हो गयी. बच्चे एक दिल्ली में नौकरी पर था और दूसरा फ़ौज में. दोनों के कहने पर देहरादून में जगह ली व उन्ही के सहयोग से मकान भी बना डाला. अब बच्चों का जोर था कि देहरादून चलो मन नहीं माना ! आखिर मानता भी कैसे बड़े अरमानों के साथ मकान बनाया था और उन्ही अरमानों के साथ घर के आस-पास के साग सगोड़े भी आबाद थे. सब कुछ भरपूर था लेकिन विधि के आगे किसकी चलती है. एक दिन आया जब देहरादून के लिए सामान बाँधा और चल दिया. मैं कोमल दिल का हूँ घर पर ताले लगाते समय आंसू छलक पड़े क्योंकि पशुपालन में नौकरी करते हुए हमेशा गॉव सपनों की भाँती आँखों में तैरता रहा ! अब वही सारी लगभग दो सदियों की यादें छोड़कर देहरादून जैसे प्रदेश की सुख सुविधा भोगने का मन भला इस बुढापे में कहाँ होता ! शहरों ने रोग व्याधियां दी हैं जबकि गॉव में हम हमेशा ही निरोग रहे! अपने बड़े भाई देवी प्रसाद नैनवाल जी का जिक्र करते हुए वे बोले – अब मास्टर जी को ही देख लो लगभग 85 पर पहुँचने वाले हैं फिर भी किसी जवान की तरह अभी भी फिट हैं. पिछले कुछ बर्ष ऐसा हुआ कि देहरादून से छोटा बेटा दिल्ली शिफ्ट हो गया और हम बूढ़-बुढ़िया कभी देहरादून तो कभी दिल्ली ही नाचते रहे वो तो धन्य है इन नए दो तीन मास्टर व इंजिनियर लोगों का जिन्होंने फिर से मेरी सांस में सांस ला दी. अब लगातार गॉव आना जाना बना हुआ है, बहुत शुकून का जीवन है.
सारी जिंदगी विदेशों में बिताने वाले नैल गॉव के ही नवीन चमोली मुन्नू को शायद यहाँ के बुजुर्गों ने भी अपने ही बाल्यकाल में देखा हो! नवीन चमोली मुन्नू भी लगभग 50 बर्ष बाद गॉव लौटे और सिर्फ लौटे ही नहीं उन्होंने वह ऐशोआराम की जिंदगी जीने के बाद शुकून के पल बिताने के लिए अपने पुराने मकान के खंडहर व्यवस्थित ही नहीं किये बल्कि अपना गॉव में आशियाना ही बना डाला. नवीन चमोली मुन्नू की दिली-तमन्ना है कि वह कोई ऐसा प्रोजेक्ट यहाँ शुरू करें जिस से उनकी तरह होनहार पलायन न करें बल्कि यहीं अपनी माटी में ऐसे अंकुर पैदा करें जिससे कई अन्य को भी रोजगार मिल सके. उनका कहना है कि सोशल मीडिया में जब वह विदेश में रहकर अपनों के संपर्क में आये तो उन्हें अपने बचपन की वह डांडी-कांठी, खाल-धार सब बेहद याद आने लगी और उन्होंने सोच लिया कि अब बहुत हुआ इस तरह अपने गॉव को तबाह तो होने नहीं देंगे. उनके परिवार ने उनका साथ दिया और वे सन 2012 में गॉव आ धमके.
खांडा गॉव के सुनील नैलवाल जोकि विगत 30बर्षों से देहरादून में रहे और विगत दो साल पूर्व पूजा में शामिल होने गॉव आये तो बस यहीं के होकर रह गए. सुनील का कहना है कि उनके खंडहर हुए मकान को देखकर वे खुद को ठगा सा महसूस करते हैं अब उन्होंने ठान ली है कि वे अपने पैत्रिक भव्य मकान को फिर से बनवायेंगे ताकि उन्हें ऐसे सामूहिक कार्यों में गॉव के चाचा ताऊ जी के मकान में न रहना पड़े. उन्होंने मकान बनवाने का ठेका भी दे दिया है.
आखिर ऐसा हुआ क्या चमत्कार जो अचानक 130 परिवारों के इस गॉव के लगभग 110 बंद ताले खुलने लगे जिनमें लगभग 60 प्रतिशत मकान ध्वस्त या खंडहर हो गए थे. लगभग तीन बर्ष पूर्व जब इस गॉव के तीन नवयुवक अध्यापक क्रमश: चन्द्रप्रकाश नैनवाल, मनोधर नैनवाल, देवेन्द्र चमोली व प्रधान चन्द्रप्रकाश खरक्वाल व कोटद्वार में रह रहे पेशे से इंजिनीयर अनिल चमोली मिले और बात बात पर यह चर्चा हुई कि गॉव कैसे बचाएं. सभी बुद्धिजीवियों ने इसका मनन करने के बाद हल ढूँढा कि देव पूजा ही एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से साल में कम से कम एक बार मजबूरीवश ही सही हर कोई गॉव आ ही जाएगा! बच्चों को यह समझा बुझाकर ही सही कि बेटा चलो शहरों की गर्मी छोड़कर पहाड़ में पिकनिक कर आते हैं. विचार बना तो बुजुर्गों ने समर्थन किया. अब बात गॉव बसाने की थी या नहीं लेकिन मैं कह देता हूँ कि देवी माँ ने इन युवाओं की सुन ली.
फिर प्रश्न खड़ा हुआ कि आधा नैल राजराजेश्वरी की पूजा करता है और आधा माँ झालीमाली की. भला ऐसे में सभी इकठ्ठा कैसे होंगे? हल निकला दोनों मंदिरों का एकीकरण कर उन्हें एक ही गर्भगृह में अवस्थित किया जाय. कार्य टेड़ा था आपत्तियां होनी स्वाभाविक थी. ऊपर से देवियों को उनके पुराने स्थल से उठाना अपने आप में महाभारत ! खैर समिति का गठन हुआ शुरूआती अड़चनें आई और मंदिर निर्माण शुरू हुआ. माँ राजराजेश्वरी व माँ झालीमाली के मंदिर व उसकी मूर्तियाँ यथावत रखते हुए इन युवाओं ने दोनों की नयी मूर्तियाँ मंगवाकर उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करवाने के लिए वृहद् मेला आयोजन किया. जिसमें सम्पूर्ण ग्राम सभा के जनमानस ने हर संभव मदद की जिनमें खांडा, धमेली, मंजकोट व नैल के ग्रामीण व प्रवासी शामिल हुए.
माँ झालीमाली राजराजेश्वरी विकास समिति के सचिव मनोधर नैनवाल ने बताया कि मंदिर निर्माण सिर्फ उन सबकी एक छोटी पहल थी जिसमें उनके अग्रजों ने हम सभी की पीठ थपथपाई ! मनोधर बताते हैं कि उन्होंने शुरूआती दौर में इसे एक आन्दोलन के तौर पर लिया कि बस करना है चाहे कुछ भी हो जिसमें गॉव के प्रो.हरीश नैनवाल, सुदामा प्रसाद खरक्वाल, इंजिनीयर दिनेश चमोली, इंजिनीयर बिनोद चमोली, सूर्यप्रकाश नैनवाल व नवीन चमोली मुन्नू जैसे बुद्धिजीवी व कर्मठ व्यक्तित्वों का संरक्षण व वैचारिक समर्थन मिला. और कड़ियाँ जुड़ती गयी.
मनोधर नैनवाल हंसते हुए कहते हैं कि मेरे घर वाले जानते हैं कि मैंने आजतक किसी मंदिर में माथा नहीं टेका होगा, मैं स्वयं किसी देवी देवता को नहीं मानता! क्योंकि उनका मानना है कि संसार में भय के दो ही निकाय हैं एक प्रकृति और और दूसरा इंसान! देवताओं के पास इतना समय कहाँ है कि वे आपकी खुशियों में खलल डाल सकें. यह मंदिर मेरे लिए मात्र एक ग्राम देवी का मंदिर हैं जिसके बनस्पत गॉव के लोग दिशा ध्यानियाँ यहाँ एकत्र हों और गॉव खुशहाल हो. लेकिन वह आगे जोड़ते हैं कि हमारे इस प्रयास के चलते आज गॉव बसने लगा है अब लगता है कि कहीं तो कोई चमत्कार श्रृष्टि में है जो उजड़े गॉव की बसागत देव अर्चनाओं से उत्पन्न हुई हैं. वे अँगुलियों में नाम गिनाते हुए कहते हैं कि चन्द्रमोहन नैनवाल, प्रेम कुकरेती, अशोक/महेंद्र नैनवाल, मदनमोहन चमोली, नविन चमोली मुन्नू, अनिल चमोली, आनंदमणी नैनवाल, बैजराम नैनवाल, योगेश नैनवाल, कमलेश्वर चमोली, चन्द्रप्रकाश खरक्वाल, आनंद्मानी चमोली, केशवानन्द, प्रेम.बिनोद नैनवाल, लक्ष्मी प्रसाद नैनवाल, राकेश नैनवाल, जगतराम नैनवाल इत्यादि ऐसे दर्जनों नाम हैं जिन्होंने गॉव में रिवर्स पलायन किया है और फिर से गॉव में चूल्हे चौके जलने लगे हैं, घरों के ठहाके सुनाई देने लगे हैं वरना हम गिनती के कुछ युवा ही थे जिन्हें बूढों के खांसने के स्वर के अलावा कुछ और सुनाई ही नहीं देता था.
सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे स्वयं कहनी थी और हो सकता है कह भी नहीं पाता वह प्रोफेसर हरीश नैनवाल बातों-बातों में कह गए मैंने उनसे प्रश्न किया कि आखिर यह सब इतना बड़ा आयोजन वो भी नैल गॉव में बेहद सिस्टम के साथ कैसे सम्भव हो पा रहा है? वह मेरे प्रश्न पर चौंके हैं या नहीं लेकिन उनकी चौन्काहट मेरी इसलिए समझ आई कि उन्होंने मेरी आँखों में झांकते हुए देखा और कहा- तुम भी वही सोच रहे हो न कि यह वही नैल गॉव है या कोई और ! जहाँ सिर्फ रोड़ा अटकाना आता था लेकिन आज सब उलट है. उन्होंने संयत होकर कहा –सच कहूँ तो मैंने भी इस से पूर्व इतना जिम्मेदार गॉव नहीं देखा है कहीं. यह सात दिन कैसे गुजरे कब गुजरे पता भी नहीं चला. किस सिस्टम से हम रोज चार सौ पांच सौ लोगों को खिला रहे हैं और कभी किसी के चेहरे में न तनाव न शिकायत ? यह वास्तव में आश्चर्य कि बात है. मुझे गर्व है कि हम पहले भी शिक्षित रहे आज भी शिक्षित हैं लेकिन अब ज्यादा अनुशासित हो गए. जो भी काम कर रहे हैं वह अपना समझ कर कर रहे हैं.
आज गॉव रिवर्स पलायन पर है. यानि पहले गॉव से पलायन और अब गॉव के लिए शहर से पलायन ! नयी पीढ़ी के शिक्षित समाज की धारणा बदली और उन्होंने अपने पलायनवादी दादा दादी या मांजी पिताजी से अनुरोध किया कि हम भला अपनी पुरखों की सम्पत्ति पर पुन: क्यों न लौटें? क्यों न हम अपने खंडहर जीर्ण-शीर्ण मकानों की धूर चुनकर अपने आशियाने में रौशनी करें. वक्त चुटकियों में बीता और देखते देखते 130 परिवारों का उजड़ा-बिखरा गॉव फिर सजने सँवरने लगा. लगभग 25 परिवारों के टूटे मकान फिर आबाद हो गए व लगभग 10 परिवारों के नए मकान बन गए. अब बस कुछ कोर कसर है तो बंजर खेत-खलिहान ? जो बस चुटकियों का ही इन्तजार करते नजर आ रहे हैं कि कब उनकी सूनी मांग में पिता स्वरुप बाप का हल रूप फल व माँ स्वरुप माँ की ममता की कुदाल चलेगी और उसकी मांग भरेगी अंकुर फूटेंगे और नैल फिर से लहलहा उठेगा इन स्वरों के साथ कि-
“भोरण दे गुरु नैलाकु पाणी, जति-सती होलो नैलाकु पाणी!
संध्या को चैन्दा नैलाकू पाणी, भोरण दे गुरु नैलाकू पाणी”
अरे मनोज भाई क्यों इतनी गप हांकते हो कितने लोग वापस आये हैं? कभी धरातल पर भी जाते हो? अनावश्यक काल्पनिक लेख मत लिखा करो।
हा हा हा हा काल्पनिक नहीं भाई सत्य है. नैल में वर्तमान में 21 परिवार घर पर हैं और गाँव के कुल आबादी 65 है. पहले यही परिवार घटकर 8 फिर 12 फिर 15 और अब 21 हो गए हैं. आजकल पूजा में नैल का हर परिवार उपस्थित होता है व गाँव में परिवारों की आमद लगभग 42 के आस-पास हो जाति है और आबादी डेढ़ सौ से दो सौ के मध्य! आप और नैळ की सरहद तो मिलती है आप स्वयं जाकर देख आयें. और हाँ रिवर्स माइग्रेशन यूँ नहीं होता कि एक ही दिन में पूरा गाँव भर जाए. कई मकान की छत्त जो टूट चुकी थी वह वर्तमान में मरोम्म्त हो चुकी है. कई लेंटर वाले मकान बन गए हैं जिनमे एक परिवार कुकरेती हैं जो बर्षों बाद गाँव आये व अपना मकान पक्का बना गए. ऐसे कई उदाहरण हैं. मैं काल्पनिक नहीं लिखता धरातल पर रहकर ही लिखता हूँ! आप चाहे तो पूरे गाँव का ब्यौरा ग्राम प्रधान की मोहर सहित साझा कर सकता हूँ.
भाई साहब। मई जून में हर गाँव के लोग जो कि पलायन कर चुके हैं देबी देवता पूजन हेतु गाँव आते हैं व एक हफ्ते के अन्दर वापस चले जाते हैं। आज से दस साल पहले इससे अधिक लोग आते थे व अधिक समय तक गाँव में रहते थे । कारण, अब अधिकांश के पास अपने वाहन हैं तब बस से आना पडता था । नैल के लोग 4 जून के बाद 10% ही गाँव में दिखाई देंगे। रही मकान बनाने की बात तो जब पुराने मकान टूट रहे हों तो नया बनाना पडता ही है।
आप एक चीज़ पर ध्यान दें कि आज से 4 साल पहले पूजा में कितने लोग आये थे और इस वर्ष कितने आये आपको लगेगा कि संख्या में गिरावट आ रही है ।
मुझे आपके लेख का विरोध इसलिए करना पड़ा क्योंकि आपके लेख को पढकर लग रहा है कि लोग हमेशा के लिए वापस आ गये हैं ।
मेरा लेख वापसी की राह तलाशने की एक पहल हैं असवाल जी!