खाये, पीये और अघाये उत्तराखण्डी जो चिंतन करते हैं तो वह है पलायन।
(पंकज महर की कलम से)
सोशल मीडिया पर खाये, पीये और अघाये उत्तराखण्डी किसी भी चीज पर चिंतन करते हैं तो वह है पलायन और वह जो खुद अपनी मर्जी से पलायित हुये हैं और वही जिम्मेदार हैं, पलायन की भेड़चाल के लिये। पहाड़ में पलायन का सबसे बड़ा कारण है, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, सबसे बडे दो कारण हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य की लचर व्यवस्था। अब जिसके पास संसाधन हैं, वह पहाड़ों में मरने के लिये क्यों रुके?
दूसरी बात पलायन तब रुकेगा, जब पहाड़ में रहने वाले पलायन की पीड़ा को समझेंगे और चिन्तन करेंगे। पहाड़ से पलायन करना गर्व की बात सी होने लगी है, लोग बड़ी शान से बताते हैं कि मेरे बेटे ने देहरादून में, लखनऊ में मुंबई में, दिल्ली में मकान बना लिया है और मैं भी वहीं जा रहा हूं। यह शोबाजी पहाड़ के लोगों को मैदान में जाने के लिये प्रेरित करती है। लोगों को पलायन के लिये प्रेरित करते हैं हम जैसे लोग, जो पहाड़ जाकर अपने बच्चों को बोलते हैं, कि हिन्दी या पहाड़ी मत बोलना, अपनी बीबियों को अंग्रेजी के टर्म में स्टाईल से बात करवाते हैं, अपने महंगे स्मार्ट फोन और गाड़ियां लोगों को दिखाते हैं। यह सब लेखकर पहाड़ का मानस गजबजा जाता है, वह ठान लेता है कि मैं तो कुछ नहीं कर पाया लेकिन अपने बच्चों को इससे बेहतर बनाऊगा।
पहाड़ से पलायन सेमिनारों और फेसबुक से नहीं बचेगा, प्रवासियों को आज से ४० साल पहले के जैसे प्रयास करने होंगे, जब गढवाल भ्रातृ मंडल, कुमाऊं, परिषद, अल्मोड़ा ग्राम कमेटियां बनी और वह थोड़ा-थोड़ा अंशदान कर गांव के विकास के लिये पैसे पहुंचाते थे, इन्ही प्रवासियों के बदौलत कभी पहाड़ों में स्टील के बर्तन और कुर्सियां पहुंची थी। आज हो क्या रहा है, प्रवासी लोग पैसा जमाकर बड़े-बड़े आयोजन कर पहाड़ के कलाकारों को प्रवास में नचाकर संस्कृति बचा रहे हैं, सवाल पहाड़ बचाने का है, पहाड़ बचेगा तो संस्कृति भी बनी रहेगी-बची रहेगी।
पलायन तभी रुकेगा, जब लोग वहां रहने को प्रेरित होंगे, वहां रहने वाले उसे छोड़ना नहीं चाहेंगे, पहाड़ के युवा स्वरोजगार को प्रेरित होंगे, पहाड़ में रहने वाले पहाड़ की महत्ता को समझेंगे और उसका उपयोग करेंगे, सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और संचार सेवाओं को दुरुस्त करेगी।