क्या है सांसद अनिल बलूनी की इस अपील का आशय.!
(मनोज इष्टवाल)
एक ऐसा राजनैतिक और सामाजिक चेहरा जिसने बहुत तेजी के साथ उत्तराखंडी जनमानस के मध्य सामाजिक और राजनैतिक छवि बनाई! जिसने सम्पूर्ण राष्ट्र में बतौर भाजपा प्रवक्ता अपने सौम्य व्यवहार से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई! जो भारतीय जनता पार्टी के अग्रिम चेहरों में इतनी कम उम्र में शुमार हुआ कि पुराने दिग्गज ठगे रह गए! यह सब यूँही जादुई छड़ी घुमाकर नहीं होता बल्कि उसके पीछे किया जाने वाला सच्चे दिल का श्रम उस व्यक्तित्व का आइना होता है जिसे आकर खुद ईश्वर भी पूछे आखिर तेरी रजा क्या है? राज्य सभा में उत्तराखंड के सांसद व भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता अनिल बलूनी कुछ न कुछ ऐसा कर ही देते हैं जिस से पार्टी हो या पार्टी के बाहर सभी राजनेताओं के पेट में मरोड़े पड़ने शुरू हो जाते हैं!

उनकी ऐसी ही अनूठी पहलों में पहाड़ और पहाड़ का जनमानस पहले उनके हृदय पटल पर होता है! पलायन की पीड़ा से झूझते पहाड़ को बचाने के लिए चाहे पौड़ी गढवाल के दुगड्डा विकास खंड के बौर गाँव को गोद लेने का मसला हो, या फिर स्वास्थ्य क्षेत्र में अपनी सांसद निधि से पहाड़ी जनमानस के लिए कोटद्वार व उत्तरकाशी में आईसीयू सेंटर, नैनी-दून एक्सप्रेस का रोजाना काठगोदाम से देहरादून और देहरादून से काठगोदाम तक संचालन, राज्य में केंद्रीय आपदा राहत बल की पृथक बटालियन का आवंटन, कोटद्वार व उत्तरकाशी अस्पतालों में आईसीयू वेंटीलेटर की स्थापना, आर्मी व पैरामिलिट्री के अस्पतालों में आम नागरिकों को उपचार की सुविधा, आईटीबीपी के अस्पतालों में उपचार प्रारंभ, राज्य के विशिष्ट बीटीसी अध्यापकों की केंद्र में पैरवी, मसूरी व नैनीताल की पेयजल योजनाओं की स्वीकृति, तीलू रौतेली व माधो सिंह भंडारी के स्मारकों का पुरातत्व विभाग के जरिये संरक्षण के लिए प्रयास, टनकपुर-बागेश्वर से गैरसैंण-कर्णप्रयाग रेललाइन के सर्वे के लिए धन स्वीकृत कराना, राज्य के लिए पृथक दूरदर्शन चैनल प्रारंभ करवाना जैसे काम किए गए हैं।
हाल ही में सांसद अनिल बलूनी ने जिला अधिकारी को एक लेटर लिखा। जिसमें उन्होंने निवेदन किया था कि कोटद्वार की मतदाता सूची से उनका नाम काट कर, इसे पौड़ी के नकोट, कंडवालस्यू, विकासखंड कोट में स्थानांतरित कर दिया जाए। नकोट सांसद बलूनी का पैतृक गांव है। ऐसा करने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य अपनी मिट्टी, अपनी जड़ों से जुड़े रहना है। सांसद अनिल बलूनी ने कहा कि शिक्षा और रोजगार की वजह से उत्तराखंड से लगातार पलायन हो रहा है। गांव खाली हो गए हैं। गांव से लोगों के संबंध खत्म हुए हैं, जिसका असर राज्य की संस्कृति, रीति-रिवाज और बोली-भाषा पर भी पड़ा है, ये खतरे में हैं और इन्हें बचाने की जरूरत है।
गांव को पुनर्जीवित करने के लिए मूलभूत सुविधाओं बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य और रोजगार से जोड़ा जाएगा, जिससे गांव पूर्व के स्वरूप में आबाद हो सके। इस संबंध में शीघ्र ही इस गांव के प्रवासियों के साथ बैठक की जाएगी। निर्जन गांवों को आबाद करने का यह प्रयास मील का पत्थर साबित होगा, उत्तराखंड में पलायन की समस्या काफी भयावह बनती जा रही है। पहाड़ में गांव धीरे-धीरे खाली होते जा रहे हैं और राज्य की महान संस्कृति विलुप्ति के कगार पर है।
ऐसे में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने राज्य की विशिष्ट संस्कृति और परंपरा को संरक्षित करने के लिए प्रयास करें। निर्जन गांवों को आबाद करने का यह प्रयास उत्तराखंड के लिए मील का पत्थर साबित होगा। जो नौजवान रोजगार के लिए गांव छोड़ने को मजबूर हुए हैं, उनको वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराकर रिवर्स माइग्रेशन की जाएगी।

राज्यसभा सांसद व भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी अनिल बलूनी ने जिलाधिकारी/निर्वाचन अधिकारी पौड़ी को लिखकर जो अपील की है उसके पीछे का दर्द उन्हीं के शब्दों में तब फूटा जब उन्होंने सोशल साईट पर पत्र की प्रतिलिपि पोस्ट करते हुए लिखा कि- मित्रों, मैंने अपने मूल गांव की मतदाता सूची में अपना नाम जोड़ने का निर्णय किया है। अभी तक मेरा नाम मालवीय उद्यान, कोटद्वार की सूची में था, जिसे मैंने स्थानांतरित कर ग्राम- नकोट, पट्टी- कंडवालस्यु, विकासखंड कोट, जिला पौड़ी में स्थानांतरित कर दिया है।
यह मेरी निजी स्तर पर प्रतीकात्मक शुरुआत है ताकि हम अपने छूट चुके गांव से जुड़ने का शुभारंभ करें और जनअभियान बनायें। पलायन के समाधान के लिए केवल सरकारों पर आश्रित नहीं रहा जा सकता। पहल अपने-अपने स्तर पर हमें भी करनी होगी। ऐसा कर प्रवासियों का अपने मूल गांव से पुनः भावनात्मक रिश्ता बनेगा, गांव की समस्याओं से अवगत होंगे और मिलजुलकर उनका समाधान करेंगे। तभी हमारी समृद्ध भाषा, संस्कृति, खानपान, रीति-रिवाज और महान परंपरायें जीवित रह सकेंगी।
बहरहाल सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या इस पत्र में छुपी उस पीड़ा का आभास उस हर राजनेता, प्रवासी उत्तराखंडी को हो पायेगा जो पहाड़ को पहाड़ के भरोंसे छोड़कर मैदानों में बस गए हैं! ऐसे में अब चाहे भाजपा के अग्रिम पंक्ति के नेता जनरल खंडूरी उनके पुत्र व पुत्री हों, कांग्रेस के नेता हरीश रावत व उनका परिवार हो या फिर वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक…! और तो और उत्तराखंड प्रदेश के सभी दिग्गज शीर्ष नेता व विधायक भी! जो एक बार विधायक बने तो उनके पैर गाँव से उखड़ गए ! क्या ये भी ऐसा साहस जुटा पायेंगे कि अपना मतदान अपने गाँव के नाम पर रजिस्टर करवा पायें! ऐसे में आर्मी चीफ विपिन रावत याद आते हैं क्योंकि वे एक बार अपने गाँव इस दौर में जा चुके हैं व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल उर्फ़ डोभाल भी, जो हाल ही में पूजा करने गाँव गए थे! अब चाहे इसके पीछे इनका खुद का चुनाव लड़ने का मनतव्य रहा हो या पुत्रों का..! यह अलग बात है लेकिन इस सबसे गाँवों को ऊर्जा अवश्य मिली है! इससे इतना तो हुआ है कि प्रवासियों ने गाँव में अपने पुरखों के मकानों के खंडहर ढूंढकर उनमें रहने लायक निर्माण करवाना प्रारम्भ कर दिया है!
पलायन एक सतत प्रक्रिया का अंश रहा है इसलिए यह कहना कि पलायन रुक जाय संभव नहीं है क्योंकि अच्छे शैक्षिक व मानसिक विकास की पृष्ठभूमि के लिए यह जरुरी भी है लेकिन उत्तराखंड में अपने पडोसी राज्य हिमाचल के एकदम उलट बातें हुई हैं, क्योंकि हिमाचल में गाँव वीरान नहीं हुए हैं, पढने लिखने व अच्छी नौकरी लगने के पश्चात वहां के सेवानिवृत्त लोगों ने शुकून तलाशने के लिए महानगर नहीं बल्कि गाँव ही चुने हैं जबकि उत्तराखंड का जनमानस एक बार बाहर क्या निकला दुबारा लौटा नहीं ! अब कुछ युवाओं ने इस बात को चरितार्थ करना शुरू कर दिया है कि इतिहास उधर चल देता है जिस ओर जवानी जाती है! राज्य सभा सांसद अनिल बलूनी बर्षों से इस यत्न में लगे हैं कि कैसे रिवर्स माइग्रेशन हो लेकिन उन्हें पता था कि उन्हें खुद से ही पहल करनी होगी! ऐसे ही पलायन एक चिंतन के नाम से शुरुआत करने वाले रतन सिंह असवाल भी हैं जिन्होंने घर में आलिशान मकान बनाया, पहाड़ी रीति रिवाजों को प्रारम्भ कर गाँव की दिशा ध्यानियों को बुलाकर सांस्कृतिक आयोजन करवाया जिस से प्रेरणा लेकर उनके गाँव के लगभग 95 प्रतिशत प्रवासी गाँव में अपना मकान ठीक कर चुके हैं और अब हर गर्मियों में गाँव आ रहे हैं! उन्हीं में एक गढ़वाली सिनेमा के जनक कहे जाने वाले परासर गौड़ भी हैं जो कनाडा रहते थे, अब उन्होंने भी गाँव में मकान बना लिया है! नैल गाँव के पढ़े लिखे कुछ युवाओं व अध्यापकों ने भी ऐसी ही शुरुआत की और कुलदेवी की पूजा के लिए गाँव के प्रवासियों को बुलाना शुरू किया तो अब यह गाँव भी सरसब्ज होने लगा है!
रिवर्स माइग्रेशन की शुरुआत तो हो चुकी है लेकिन राज्य सभा सांसद अनिल बलूनी की यह अनूठी पहल सचमुच संजीवनी का काम करेगी ऐसा हमारा विश्वास है वरना आगामी 10 साल बाद हर उत्तराखंडी अपने उत्तराखंडडी होने की वजूद की लड़ाई लड़ता दिखेगा इसमें कोई दोराय नहीं!