क्या सचमुच लाखों बर्ष पुराने हैं लखुउड्यार सहित उत्तराखंड की कई गुफाओं के शैलचित्र!
क्या सचमुच लाखों बर्ष पुराने हैं लखुउड्यार सहित उत्तराखंड की कई गुफाओं के शैलचित्र!
(मनोज इष्टवाल)
अक्सर सुनने में आता है कि हमने हिमालय नाप लिया है ! और जब ये बातें हमारे कई मित्र कहते हैं तो लगता है कितनी बचकानी बात कह दी! सच कहें तो जितनी बार आप हिमालय के एक रूट को ट्रेक करते हुए आगे बढ़ते हैं उतनी बार उतनी ही बिषमताओं वाली कहानियाँ सामने आकर खड़ी हो जाती हैं जिन पर वह आपको मजबूर कर देता है कि आकर शोधपरक कुछ लिखो! आप कई किताबें पलट लेते हैं कई रातें काली कर देते हैं लेकिन जब कुछ नहीं मिलता तो निराश होकर लोक में प्रचलित कहानियों का सारांश लेकर उसके सन्दर्भ तलाशने शुरू कर देते हैं! ऐसा ही उत्तराखंड प्रदेश के अस्कोट से लेकर आराकोट तक फैली विभिन्न उच्च और निम्न हिमालयी पहाड़ियों पर अपने पदचापों की अगुवाई करती श्रेणियों में स्थित गुफाओं, कन्दराओं, झरनों, हिमशिलाओं, पाषाणों व बुग्यालों का आकर्षण आपको लिखने को मजबूर करता है!
मेरी इस भटकन पर केन्द्रित यह लेख उन शिलाखंडो, गुफाओं, उड्यार इत्यादि पर है जिन पर अभी भी बहुत अधिक शोध होना बाकी है! जब इनके फोटोज आप खींचकर लाते हैं और सोचते हैं कि किसी ने यूँही उकेर दिए होंगे ये रंग बिरंगे भीत्ति-चित्र या शैल चित्र ! लेकिन जब आप इतिहासकारों, पुरातत्वविदों के आलेखों पर नजर दौडाते हैं तो पाते हैं कि ये तो आश्चर्यजनक हैं! लाखों बर्ष पुरानी संस्कृति को आप ढूंढ लाये हैं !
उत्तराखंड में पाषाणकाल के अवशेष, गुफा चित्र अलंकृत शिलाखंड, और शवधानो की खोज डॉ. यशोधर मठवाल, 1956 में डब्ल्यू जे. हैंनउड़ की पुस्तक “एडिनवर्ग यू फिलोसिफिकल जनरल”, 1877 में एच. आर. कंराक की पुस्तक “ जनरल ऑफ़ द एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल XIVI” में कई लेख मानव पशु आकृतियों, नृत्य मानव और मुखौटाधारी मानव, आपाद मस्तक व वस्त्रावृत्त अंकित, गुफाओं में प्राचीन शिलाचित्र के अवशेष, उत्तरमुखी शिलाश्रय, गौरिक वर्णी चित्र शिलाशय, शिलापट पर काफी कुछ लिखा व पढ़ा जा सकता है!
पुरातत्वविद इन्हें लगभग 10 लाख बर्ष पुराना मानते हैं! पाषाणकालीन उपकरण अल्मोड़ा जिले के पश्चिम रामगंगा घाटी, नैनीताल जिले के खुरानी नाले में पाए गए जिनका एक लाख बर्ष पूर्व का होना पाया गया है! पाषाण काल के अवशेष गुफा चित्र, अलंकृत शिलाखंड,कई शवगृह आज भी यहाँ विदमान हैं!
(लखु उड्यार)
अल्मोड़ा पिथौरागढ मार्ग पर अल्मोड़ा से लगभग 20 किमी आगे लघुउड्यार में कई अनगिनत गुफाएं हैं जिनपर शिलाश्रय चित्रित हैं! अल्मोड़ा जिले के फड़का नौली, चुंगी घर, चितई के पास फलसीमा शिलाश्रय, कसार देवी, चमोली में डुंगरी गाँव, बदरीनाथ छिनका के पास ग्वारख्या बड्यार, द्रोणागिरी गाँव द्रोणपर्वत के पास शिलाश्रय, उत्तरकाशी में हुन्डली गाँव, और पौड़ी में झंगरौली तथा ब्रह्मडुंगी, चम्पावत देवीधुरा, मुनिया की ढाई, सुराल्खेत स्थानों पर गुफाचित्रों का पता चला है! जिनका काल पाषाणकाल व नव पाषाणकाल, महाभारतकाल से पूर्व, मेगालिक सभ्यता काल मना गया है!
ऐसे में अगर यह कहा जाय कि आर्यों से कई लाख बर्ष पूर्व भी उत्तराखंड में आदम जातियों की संस्कृति के कोई चिन्ह विदमान नहीं है तब यह सरासर गलत है क्योंकि यहाँ कि पुरातन परम्पराओं में सतयुग के गंदर्व, कोल- भील, त्रेता,द्वापर काल में भी इन सबके साथ नाग, किरात इत्यादी का वर्णन मिलता है जो आज भी उत्तराखंड की लोक संस्कृति के साथ मिलकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं!
(बग्वाली पोखर)
वहीँ द्वाराहाट में चंद्रेश्वर मंदिर के पास रामगंगा घाटी स्थित नौलाग्राम, रानीखेत द्वाराहाट मार्ग में नौगाँव के पास, काशीपुर के समीप घूसरभांड संस्कृति के अवशेष मिले हैं! धनपुर पोखरी गढ़वाल,अस्कोट (पिथौरागढ़), तामाढौंन व गंगोली (अल्मोड़ा), आदि में लोहे की खाने! पौड़ी जिले के कफोलस्यूं डांग,अगरोड़ा गाँव में ताम्बे की खाने, पिथौरागढ की भटकोट की पहाड़ियों में कई गुफाएं, अल्मोड़ा जिले के चनौली, चुरीकोट, द्यौड़, सिमल्टीनी, सिरकोट, उखोडन, और तल्कुटी, नैनीताल जिले के अजमेर गाँव, बातोखरी, बाल्सी, चोरगल्या, दुलीजर पन्याली, और रौन्सिला, पिथौरागढ़ के जाख क्वेद्ल व सैनथलारी, पौड़ी रामनगर मार्ग में जिप्यो और ठुढगागढ़ की प्राचीन शिलागत आकृतियों को देखा गया है! यही नहीं अल्मोड़ा जिले के पेट्शाला गाँव के उपर दो गुफाएं दीनापानी ल्वेथाल में और हटवाल घोड़ा में बिशाल प्राचीन गुफाएं व शिलालेख मिले हैं!
(बाडेछीना शैलालय)
कुछ तो उत्तराखंड में ऐसा है जो आर्यों के काल पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए अपने तथ्य प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करते हुए यहाँ की लोक संस्कृति का नमूना पेश करते हैं आर्यों के काल से इस देवभूमि की लोकसंस्कृति का आंकलन करना कहीं न कहीं गलत साबित करने के यहाँ पुख्ता प्रमाण है जिन पर बेहद गंभीरता से शोध की आवश्यकता है.
चाहे चमोली के डूंगरी गाँव के गोरख्या उड्यार की पशु व मानवकृतियाँ शैलचित्रों/ भीत्तिचित्रों में उकेरी गयी हों या फिर बाड़ेछीना (अल्मोड़ा) के लखुउड्यार के शैलचित्रों/भीत्ति चित्रों की बात है दोनों का काल 1000 ई.पूर्व से 300 ई.पूर्व बताया जाता है. एक शोध में पता चला है कि ऐसे हि शैलचित्र/भीत्तिचित्र व पाषाणचित्र चन्द्रशेखर नाले, पांडुखोली नाले, रामगंगा नौला, जैबल, देवीधुरा, में बड़ी संख्या में मिलते रहे हैं.
(ल्वेथाप शैलालय)
वहीँ पेटशाल, ल्वेथाप, द्वाराहाट, कफडा, नौगाँव, दीनापानी, सुराइखेत, मुनिया की ढाई, दीनापानी व द्रोणागिरी पर्वत शिखर सहित देवभूमि के कई शिलाखंडों व गुफाओं पर उत्कृत हैं जिनका काल नवपाषाण काल, महाभारत काल से पूर्व , मेगालिक सभ्यता काल का माना गया है. ऐसे में अगर यह कहा जाए कि आर्यों से पूर्व उत्तराखंड की आदम जातियों या संस्कृति के कोई चिह्न विदमान नहीं हैं तो वह सरासर गलत होगा क्योंकि यहाँ की पुरातन परम्पराओं में सतयुग के गंदर्भ, कोल, भील समाज आज भी अपने काल से वर्तमान तक निवासित हैं जिन्होंने अपने काल के साथ अपनी जाति-धर्म परम्पराओं में भी बदलाव कर दिया है.
जहाँ गंदर्भ, नाग, अपने वंश कर्म को बदलाव के साथ अपने धर्म कर्म की अनवरत आख्यायें पेश करते रहते हैं वहीँ कोल भील भी वर्तमान तक अपने वजूद को दर्शाते चले आये हैं. यहाँ गुफाओं में पुरातन काल से रहने की परम्परा वर्तमान में पिथौरागढ़ जिले के राजी जाति के लोगों में देखी जा सकती है जहाँ इन के इन आवासों में आज भी तैलीय शैली के चित्र अंकित मिलेंगे.
वर्तमान में कहीं अगर हम उन्हें अपनी लोकसंस्कृति या लोक धरोहरों में शामिल करने में चूक कर रहे हैं तब वह सरकारी तंत्र की ऐसी उपेक्षा है जिसका कोई इलाज नहीं हो सकता और यही कारण भी है कि इन्हीं उपेक्षाओं के चलते इनका वजूद खतरे में है. पर्यटन एवं धर्मस्व मंत्री सतपाल महाराज द्वारा हाल ही में कुमाऊँ दौरे के दौरान जिस तरह लखु उड्यार के पुरातन काल को 5000 बर्ष पूर्व का बताकर उसकी आख्या मांगी है उसे तरीके से संग्रहित करने के कदम उठाये हैं वह अपने आप में सराहनीय कदम है.
( गोफारा गुफा द्रोणागिरी)
वहीँ गढ़वाल मंडल के उपायुक्त हरक सिंह रावत द्वारा द्रोणागिरी पर्वत को ट्रेक ऑफ़ द इयर घोषित होने के बाद वहां की गुफा के शैल व भीत्तिचित्र के जो प्रमाण दिए हैं वह काबिलेतारीफ हैं. साथ ही आर्कोलोजी विभाग को द्रोणागिरी के शैलचित्रों के काल का अध्ययन करने के लिए एक दल द्रोणागिरी भेजना चाहिए ताकि देश दुनिया के आगे हम उसके पुरातन काल का वजूद स्पष्ट कर सकें क्योंकि द्रोणागिरी रामायण काल से जुडा वह क्षेत्र रहा है जहाँ से हनुमान संजीवनी बूटी के रूप में पर्वत राज हिमालय का एक अंश उठाकर श्रीलंका ले गए थे और इसी गुस्से में द्रोणागिरी क्षेत्र के लोग वहां हनुमान का नाम लेना भी उचित नहीं समझते हैं.
(अपर आयुक्त गढ़वाल हरक सिंह रावत)
द्रोणागिरी स्थित गोफारा उड्यार के बारे में उपायुक्त गढ़वाल हरक सिंह रावत कहते हैं कि गोफारा उड्यार द्रोणागिरी गाँव से ऊपर पर्वत देवता के बेहद निकट है, जहाँ इस बार मैं स्वयं ट्रेक ऑफ़ द इयर 2017 के दौरान गया था. गढ़वाल उपायुक्त हरक सिंह रावत बताते हैं कि द्रोणागिरी गाँव के उनके बुजुर्ग गोफारा गुफा में उत्कृत इन शैलचित्रों या भीत्तिचित्र लेख के बारे में बताते हैं कि पौराणिक काल में तिब्बत से आये कुछ शिकारियों ने इस क्षेत्र में चौंर गाय (चंवर गाय) का शिकार किया जिसे वह बर्फ से बचने के लिए गोफारा गुफा में ले गए उनमें से एक लकडियाँ ढूँढने निकल गया. पर्वत देवता इतने रुष्ट हुए कि उन्होंने पूरी गुफा का बड़ा सा हिस्सा तोड़कर उन्हें वहीँ ज़िंदा दफन कर दिए उनमें से जो बचा था उसी ने इस गुफा पर अपनी भाषा में कुछ लिखा है जिसे उन्होंने विभिन्न तिब्बतीय विद्वानों से पढवाने की कोशिश की है व उन्होंने इसका अर्थ कुछ यों निकाल है:-
“यह एक जीनोबो के सभी जीवित प्राणियों के लिए एक इच्छा है, जो “एक दिव्य प्राणी” क्षेत्र में रहता है जोकि हर एक आत्मज्ञान और आध्यात्मिक दिल जमा कर सकते हैं, किसी बाधा और बाधा के बिना आप लम्बे समय तक जीवित रह सकते हैं और आप दुःख से छुटकारा पा सकते हैं.”
उक्त लेख से पता चलता है कि द्रोणागिरी क्षेत्र में दिव्य भगवान् निवास करते हैं जोकि आदमियों के आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश से इस क्षेत्र में रहने वालों का भला कर सकते हैं. मेरे ख़याल से द्रोणागिरी पर्वत देवता में ही ऐसी सर्व शक्ति विराजमान हैं. क्योंकि लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा करने वाली जड़ी-बूटियाँ सुशेनवैद ने इसी द्रोणागिरी से मंगवाई थी!