क्या बकरी स्वयंम्बर की जगह पशुपालकों के नुणाई त्यौहार को अपना सकती है प्रदेश की सरकार?

भेड़ालों की अनोखी दुनिया का अनूठा पर्व है “नुणाई”…! सेरुवा के लिए तो पहुंचना ही पड़ेगा मानथात या खारसी के बुग्यालों में!
(मनोज इष्टवाल)
जौनसार बावर क्षेत्र जनजातीय क्षेत्र की अर्थ व्यवस्था का सबसे बड़ा माध्यम समझे जाना वाला पर्व खतरे में है। पर्व इसलिए खतरे में है कि यहाँ का जनमानस अब अपनी अर्थ व्यवस्था के सबसे बड़े माध्यम भेड़ बकरी पालन को सिरे से लगभग खारिज कर चुका है जिसके कारण न सिर्फ इस क्षेत्र के कई खत्तों की थातों में जुटने वाले “नुणाई मेला” समाप्त हो गए हैं बल्कि उससे सम्बन्धित समस्त लोक परम्पराएं भी समाप्ति की ओर हैं।

मानथात के नुणाई मेले में मातृशक्ति।
इसका सबसे बड़ा कारण है इस व्यवसाय में प्रदेश सरकार के पशुपालन विभाग की उदासीनता। जहां उत्तराखण्ड के दूरस्थ जिले उत्तराकाशी व पिथौरागढ़ न सिर्फ प्रदेश की बल्कि देश की अंतरराष्ट्रीय सीमाएं बांटते हैं। वहीं इन दोनों जिलों की सबसे बड़ी अर्थब्यवस्था का स्रोत ही पशुपालन और मुख्यतः भेड़ बकरी पालन है। 
सरकारी उपेक्षा के चलते जहां इन जिलों के ग्रामीणों ने इस रोजगार से धीरे धीरे मुंह मोड़ना शुरू कर दिया वहीं आये दिन हर बर्ष अपनी भेड़ बकरियों की समृद्धि व ब्रीड बढ़ने के लिए वनदेवीयों के बंधन में जुटने वाले भेङ बकरियों को समर्पित मेले धीरे धीरे बन्द होने लगे हैं। मध्य हिमालयी भूभाग के विभिन्न थातों पर जुटने वाले “नुणाई” नामक ये मेले न सिर्फ संकुचित हो रहे हैं बल्कि कई थातों पर ये बन्द भी हो गए हैं।

गोट विलेज के स्वयंम्बर में।
ऐसे में जौनपुर के गोट विलेज नामक स्थान पर ग्रीन पीपुल नामक संस्था ने ” बकरी स्वयम्बर” आयोजित करना शुरू कर दिया और विगत बर्ष की भांति इस बर्ष भी स्वयंम्बर रचकर जहां हमारी पुरातन संस्कृति के मेलों के स्वरूप में एक अलग रीति-रिवाज का बेहद अलग संस्कृति का मेला थोपना शुरू कर दिया है वहीं तर्क ये है कि इस स्वयम्बर के माध्यम से वे भेड़ बकरी पालन को प्रमोट कर रहे हैं। आश्चर्य यह है कि इसमें शामिल होने विदेशी लोग आ रहे हैं। 
यह पहल प्रथम दृष्टया क्या है व ग्रीन पीपुल नामक यह एनजीओ कहाँ से इसके आयोजन का फंड जुटा रही है यह जानना जहां जरूरी हो गया है वहीं इसमें इस बर्ष मीडिया विरोध व लोकसंस्कृति में बेवजह की घालमेल का जनविरोध होने से आखिर प्रदेश सरकार ने कैबिनेट में इस तरह के कार्यक्रम में प्रदेश सरकार की भागीदारी को सिरे से नकार दिया।

मानथात में उमड़ी भीड़।
हिमालयन डिस्कवर ने सर्व प्रथम इस तरह के बकरी स्वयंम्बर का पुरजोर विरोध करते हुए लिखा था कि आखिर हिन्दू सनातन धर्म के किस ग्रन्थ में बकरी स्वयंम्बर के मंत्रोच्चारण हैं, किस संस्कृति में उसके लिए बाने लगाने, वेदी चुनने व माँगल गीत गाने का रिवाज है। इस पर चर्चा हुई और धर्म संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज व वन मंत्री डॉ हरक सिंह रावत की दखल के बाद प्रदेश सरकार ने इस आयोजन में शामिल होने को सिरे से नकार दिया जिसके कारण मायूस आयोजकों को यह आयोजन पोस्टपोंड करना पड़ा लेकिन फिर भी इसे वे अपनी नाक का सवाल बनाकर विगत 11 मार्च को बिना सरकारी सहायता के आयोजित करने में सफल रहे। जिस से साफ विदित हो रहा है कि ग्रीन पीपुल नामक संस्था इस तरह के बकरी स्वयंम्बर को पहाड़ की लोकसंस्कृति में शामिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। 
अब प्रश्न उठता है कि बकरी स्वयंम्बर से ग्रीन पीपुल नामक संस्था प्रदेश के अंदर क्या संदेश देना चाहती है? जबकि इनका कहना है कि वे इस तरह का आयोजन कर बकरियों की नस्ल सुधारने का प्रयास कर रहे हैं ताकि ग्रामीण क्षेत्र के बकरी व्यवसाय को प्रोत्साहन मिले। यहां मेरा कहना है कि बेवजह की परंपराओं को थोपकर ही क्यों। क्यों नहीं ग्रीन पीपुल सोसाइटी या संस्था ने इस पर रिसर्च किया और इस क्षेत्र में प्रचलित सदियों पुराने “नुणाई” नामक मेले को ही नए सिरे से प्रोत्साहित करने के लिए कदम बढ़ाए। इसलिए सन्देह यह होता है कि कहीं ग्रीन पीपुल विदेशी फंडिंग के माध्यम से हमारी लोक परम्पराओं के साथ उसी तरह का खिलवाड़ तो नहीं करने जा रही है जैसे मैकाले ने हमारी पुरातन शिक्षा पद्धत्ति के साथ किया है।

मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि ग्रीन पीपुल अगर सचमुच भेड़ बकरी ब्यवसाय को प्रमोट करना चाहता है तो ईमानदारी से वह प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों के थातों में जुटने वाले “नुणाई” मेलों में अपनी भागीदारी निभाये फिर देखिए पूरा प्रदेश उनके कदमों पर कदम ताल करता दिखाई देगा लेकिन स्वयंम्बर रचकर उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति को कुरूप कर देना शायद यहां के सांस्कृतिक जन मानस को कतई बर्दाश्त नहीं होगा। 
आइये आपको हमारी लोक संस्कृति में प्रचलित भेड़ बकरियों के पुरातन मेले के स्वरूप के रूप में जौनसार क्षेत्र के लाखामण्डल गोरा घाटी क्वान्सी क्षेत्र के मानथात व खारसी गांव के नुणाई मेले के स्वरूप का वर्णन सुना देते हैं:-

खारसी गांव में नुणाई मेले में जुटी मातृशक्ति।
देहरादून जिले के विकास खंड चकराता के क्वांसी से लगभग 17 किमी. दूर व देहरादून से 157 किमी. दूरी पर स्थित खारसी गॉव की उंचाई समुद्रतल से लगभग 7500 फिट है. यहाँ पहुँचने के लिए क्वांसी पुल से आपको 16 किमी. पैदल ट्रेक करना पड़ता है. वैसे मानवा-खारसी के लिए 15 किमी. कच्ची सड़क से भी आप यहाँ पहुँच सकते हैं जिसमें फिर भी आपको लगभग 2 किमी. पैदल चलना पड़ता है लेकिन बरसात के इस मौसम में यह सड़क बेहद ख़राब रहती है. सड़क की चिकनी मिट्टी में 4×4 वाहन के नए टायर भी यूँ फिसलते हैं माने नागिन सड़क पर चल रही हो. यह सडक आजकल के मौसम में बेहद खतरनाक है. जितनी देर भी आप इसमें यात्रा करते हैं आपकी अंदर की सांस अंदर और बाहर की बाहर रहती है. फिर भी इस क्षेत्र के ग्रामीण निर्द्वंध इस सड़क पर एक गाडी में 20-25 लोग यूँ भरकर यात्रा करते हैं मानों जान की कोई कीमत न हो.
जब आप “नुणाई थात” पहुंचकर गॉव के चारों ओर उच्च शिखरों तक फैले ढालदार बुग्यालों के बीच बसे इस सुंदर से गॉव को देखते हैं तो सचमुच लगता है जैसे हम दूसरी दुनिया में आ गए. लगभग 150 परिवारों के इस गॉव के करीब सड़क क्या पहुंची इनका भी पलायन खारसी गाड़ (नदी) के निकट अपनी छानियों जिन्हें ये लोग बैरावा व चैमा नाम से पुकारते हैं में होना शुरू हो गया है. लगभग पूरा गॉव वहां पलायन कर चुका है सिर्फ यहाँ ये लोग त्यौहार मनाने ही आते हैं. जोकि सचमुच बेहद आश्चर्यजनक सा लगता है. क्या पहाड़ के गॉव तक पहुँचने वाली सारी सडकें सरकने के लिए ही होती हैं? ऐसा कई गॉव में हुआ है कि जब तक वह मोटर मार्ग से दूर बसागत में रहे तब तक पूरा गॉव भरा पूरा व सम्पन्न रहा लेकिन जैसे ही सड़क आई गॉव खली होने शुरू हो गए. खारसी गॉव भी उन्ही गॉव की श्रेणी में आता है. लगभग 10 आलों (थोकों) के इस गॉव के सयाणा जिन्हें सदर सयाणा भी कहा गया है वे पंवार जाति के लोग है ! 10 आलों के इस गॉव में चौहान बहुतायत मात्र में हैं!
यहाँ एक चीज बखूबी समझ में आती है कि चाहे आपको अपने झड-दादा या पर-दादा का नाम बेशक याद न हो लेकिन आपके सबसे पहले कौन पूर्वज किस गॉव में आकर बसा उसका क्या नाम था जौनसार बावर के हर व्यक्ति को यह पता है भले ही वो इस बात से अनभिज्ञ हों कि जिसका जो आळ है वही उनके सबसे पुराने पुरखे का नाम है. इस गॉव में जो आळ है उनमें खिमाण आळ सबसे बड़ा है उसके बाद दूसरा आळ रिसौऊ और फिर क्रमश: गनियाड़ा,रताण, खेलाण, रवाण, भगऊ, बरियोड़ा, सेतुवाण हैं. यहाँ रिसौऊ आळ में वीर भड थुल्ला चौहान पैदा हुआ था जिसने अपने सदर सयाणा के कहने पर गोरखों से अकेले युद्ध लड़ा था और कवच के रूप में सिर पर लोहे की बड़ी कड़ाई, बदन पर 7-7 कामडी (भारी भरकम ऊनि कम्बल जिसकी लम्बाई लगभग 10 फिट व चौड़ाई 8 फिट प्रत्येक की होती है) लपेटकर व दोनों हाथों में पाटा (हल जोतकर भूमि को समतल करने वाला लकड़ी का भारी भरकम रोलर) लेकर न सिर्फ गोरखों से अकेले युद्ध लड़ा बल्कि कभी अपने गॉव सरहद को कब्जा नहीं करने दिया. थुल्ला के नाम का खौफ गोरखों में भी था उसे ये लोग थुल्ला चौहान को बनमानुष समझते थे उनकी पीढ़ी के अमर सिंह चौहान बताते हैं कि लोगों का कहना है कि जब थुल्ला की मृत्यु हुई तब उन्हें शमशान तक ले जाने वाले उन्हें एक दिन में एक किमी. ही ले जा पाए अंत में थक हारकर यह निर्णय लिया गया कि थुल्ला की लाश दो टुकडो में विभक्त कर ले जाई जाय. जिसे उनके परिवार के विरोध के फलस्वरूप बर्नीगाड़ यमुना तट न ले जाकर खारसी गाड़ तक जैसे तैसे पहुंचाया गया तब से पूरे गॉव का शमशान बर्नीगाड़ (यमुना नदी) के स्थान पर यही हो गया. वे बताते हैं कि उन्हीं की एक बहन हुई जिनका नाम बाला था आज भी जौनसार बावर के इतिहास में डुंगियारा की बाला का नाम रोशन है वह इतनी बलशाली थी कि उनके डर से कोई उस डुंगियारा क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पाता था. आज भी बाला के सिल और बट्टे जिसमें वह मशाला पीसती थी वहां मौजूद हैं जिसके बट्टे को एक आदमी हिला भी नहीं सकता.

रोमांच से भरे इस क्षेत्र की सीमाएं कई किमी. तक फैली हैं इसे बुग्यालों का क्षेत्र कहें या भेडालों के लिए स्वर्ग दोनों एक ही बात है क्योंकि यह गॉव जिस पहाड़ी के नीचे बसा है उसकी उच्च श्रृंखला को यहाँ के लोग कुकुर ओड़ार कहते हैं भले ही जैसे-जैसे यहाँ शिक्षा ने कदम बढाए अब इसे टाइगर हिल कहना शुरू कर दिया है. उनका कहना है कि पूर्व में भेडाल अपने कुत्तों के साथ इस चोटी पर बनी गुफा में महीनों तक जीवन यापन करते थे लेकिन इसकी शक्ल शेर जैसी है इसलिए अब लोग इसे टाइगर हिल के नाम से जानते हैं. इसके आस-पास कैंजू का टीमा, जानकुडिया धार,हसटीरा टीमा, ठीक सामने खडम्बा, डागुर का टीमा इत्यादि पर्वत श्रृंखलाएं हैं जबकि बांयी ओर मानवा तो दायीं ओर सीमान्त क्षेत्र के गॉव बनियाना व खाटुवा गॉव इसकी सरहद से अपनी सीमाएं बांटते हैं.
भेडालों की जीवन शैली के अलग अलग अंदाज हैं यहाँ के भेडाल अब भारी भारी से एक महीने में अदला-बदली कर लेते हैं जबकि रवाई व पर्वत क्षेत्र (उत्तरकाशी जिला) के भेडाल अभी भी छ: माह तक भेड़ बकरियों के साथ हिमालयी बुग्यालों का मीलों लंबा सफ़र तय करते हैं. इनकी जीवन शैली के अलग ही मानक होते हैं. जौनसार क्षेत्र के भेडालों की भेड़ों की संख्या भले ही कम हो गयी हो लेकिन पर्वत क्षेत्र के भेडालों के पास आज भी हजारों की संख्या में भेड़- बकरियां रहती हैं. जिनमें सर बडियार व ओसला गंगाड डाटमीर के भेडालों से जुडी कई लोकगाथाएं प्रचलित हैं. इनमें कईयों के आपसी संघर्ष से जुड़े हारुल, लामण व छोड़े आज भी यथावत चलते हैं. कई बार इनके खुनी संघर्ष की गाथाएं सुनने को मिलती हैं. वैसे भेडाल जब अपना दर्द छोड़े या लामण गाकर उच्च हिमालयी शिखरों से गुजरता है तो उसका यह बिछोह प्रलाप दिल चीरकर ले जाने वाला होता है. और जब ये शांय को समय बीतने के लिए अपने डेरे के पास आग जलाकर गंगी गाते हैं तो उनमें बिरह पीड़ा का अलग ही अंदाज होता है जैसे – “आटा गोंदके बणाये फुलके, आज गंगी तेरे पाउणये कल झाणा पराये मुल्के…! इनकी जीवन शैली हर पर्वत श्रृंखला को पार करते ही बदलने लगती है. हर पर्वत को नमन करना इनकी दिनचर्या में शामिल है. भेडालों का कहना है कि ये हरे भरे बुग्याल जितने प्यारे दिन में लगते हैं उतना ही भीवत्स रात्री पहर में तब लगते हैं जब खाना बनाने का समय हो और बारिश बर्फ़ या तूफ़ान आ जाए. या फिर बादलों की कडकड़ाहट गूंजने लगे बघेरा निकट हो या हिंसक जानवर हमारे डेरे के आस-पास हो. ऐसे में हमारे रक्षक बन में विचरण करने वाली परियां (मात्रियाँ), सिलगुर देवता, जाख देवता इत्यादि होते हैं जिनके सहारे हम अपना जीवन जी लेते हैं. उनके जीने के माध्यम हैं ढाबडी, खलूटी व खार्चा यानि उच्च हिमालयी शिखर में यही उन्हें शक्ति देते हैं. भेड़ की ऊँन से बनी ढाबड़ी बारिश बर्फ़ इस बचाती है क्योंकि ढाबडी ओड़कर बैठने से सिर्फ़ उसका ऊपरी हिस्सा ही भीगता है. जबकि बकरी की अंदरूनी खाल से बनी भुर्ली/खलूटी में वे अपनी दैनिक दिनचर्या का सामान व रुपैय्या पैंसा जमा करते हैं. साथ ही ताकुली भी रखते हैं ताकि भेड़ की ऊँन कात सकें.बेहद शीत वाले मौसम में या बर्फ़बारी के समय जहाँ नीचे बिछोने के रूप में बकरी के ऊँन का खार्चा उनकी कमर को सेंकने का काम करता है वहीँ खुरसा (भेड़ बकरी की ऊँन से निर्मित जूता) उन्हें गर्माहट देता है.
खारसी खत बिसलाड के कई भेडाल जिनमें माया राम चौहान, केशर सिंह चौहान, शूरवीर चौहान इत्यादि सम्मिलित हैं ने परियों के अस्तित्व को बेहद सजगता से बर्णन करते हुए कहा कि इनका अहसास हमें अक्सर हवाओं फिजाओं में होता ही रहता है कभी इनकी हंसी गूंजती है तो कभी पायल सुनाई देती हैं कभी इनके नृत्य की आहटें आती हैं तो कभी बेहद करीब से गुजरने की इनकी महक ! सबसे पुराने भेडाल माया राम चौहान का कहना है कि शुरूआती दौर में उन्हें डर लगता था क्योंकि इनकी अदृश्य लीलायें यूँही घाटियों पहाड़ियों में आहटों का सबब बनी रहती हैं लेकिन ये जल्दी से किसी को नुक्सान नहीं पहुंचाती. ये शिलगुर देवता को भेड़ी का देवता मानते हैं जबकि परियों को अगासी नाम से सम्बोधित करते हैं जाख देवता को आग के देवता के रूप में जोड़कर भी देखते हैं इसलिए अपने नियमों का शक्ति से पालन करते हुए ये चूल्हे के पास जूते नहीं ले जाने देते चाहे बर्फ़ कितनी ही अधिक क्यों न पड़ी हो. वहीँ चूल्हे पर ये कभी औजार नहीं लगाते जबकि इनकी दिनचर्या में औजार के बिना ये एक कदम भी नहीं चलते इनका मुख्य औजार …होता है. इनकी कठोरता का आभास इस बात से भी आपको हो जाएगा कि अब भले ही भेडाल जूते पहनने लगे हों लेकिन पुराने भेडाल जूते तक नहीं पह्नते थे. कांटे इनके पैरों के नीचे ही दम तोड़ देते थे लेकिन चुभ नहीं पाते थे. इनके खान-पान में ज्यादातर सब्जियों बेहद औषधिबर्द्धक जंगली सब्जियां ही शामिल हैं जिनमें च्यांव, जन्गुरिया, गोथीचारुव, लिंगुड, डांडा कुरेड, जुम्मा, झगुरिया, रागुड़ी, दाल, गुच्छी, आलू इत्यादि शामिल हैं. वहीँ ये खाने को खाना न बोलकर दावत कहते हैं. इसका भी एक बिचित्र उल्लेख मिलता है. हर भेडाल अपने अपने हिस्से से आटा या चावल देगा उसे गोंदकर उतने ही हिस्से बनेंगे जितने भेडाल होते हैं फिर लगभग हर एक के लिए दो या तीन रोटी पाव-पाव भर आटे से तैयार होती हैं. वे अपने हिस्से की रोटी कभी आपस में बांटते नहीं हैं पेट भरने के बाद वे उसे बकरी या भेड़ को खिला देंगे लेकिन दुसरे को नहीं पूछते कि तुझे खाना है तो खा ले. और तो और अगर मेहमान आ गया तो उसे भी अपने हिस्से से कुछ नहीं देते उसके लिए अलग से बनाते हैं. ये इनके नियमों में शामिल है. मायाराम चौहान का कहना है कि पहले चाहे कितनी ठण्ड हो भेडाल कभी चाय नहीं पीते थे और न ही भात (चावल) खाते थे अब यह चीजें प्रचलन में आने लगी हैं वहीँ ये लोग सातु (सत्तू) पीया करते थे वो आज भी प्रचलन में है. मोर सिंह ठाकुर (भेडाल) गॉव ठान्गूठा खत छजाड कहते हैं कि भले ही भेडाल की जीवनशैली बेहद कठिन है लेकिन रोग-ब्याधि इसके नजदीक नहीं फटकती हाँ अपने ऐब हमेशा भेडाल को ले ढूबते हैं.
मैंने कई क्षेत्रों में भेडाल विहीन भेड़-बकरियों को दिन भर कुत्तों के दिशा निर्देश पर चरते देखा है. ये कुत्ते ज्यादातर शिकारी कुत्ते हैं जिन्हें आम भाषा में भोटिया कुत्ता कहा जाता है. इनकी नजर इतनी तीक्ष्ण होती है कि एक मेमना भी इनकी नजर से ओझल नहीं हो पाता. इनकी चौकसी में बाघ तेंदुवे साहस नहीं करते कि किसी बकरी या भेड़ का शिकार कर पाए. भेड़ों को चुगाकर शाम को फिर खेमे तक लाना ये इनकी मुख्य जिम्मेदारी होती है और हमेशा भेड़ बकरियां बीच में रहती हैं आर पार भेडालों के तम्बू लगे रहते हैं.

भेडाल जिस दिन गॉव की सरहद के पास आ पहुँचते हैं उस दिन गॉव में बनेट होती है. खारसी गॉव के पढ़े लिखे युवा सुरेश चौहान बताते हैं कि पूर्व में बनेट पर आपस में भेडा (मेंडा) लड़ाने का प्रचलन होता था और इसको देखने के लिए गॉव के गॉव जुटते थे. इसीदिन गॉव की थात पर ढाई पाथे का एक मीठा सेरुवा (रोटी के आकर का) सब अपने अपने घरों से बनाकर ले जाते थे जिसका आधा टुकडा काटकर मात्रियों यानि बनदेवियों/परियों को चढ़ाया जाता था आधा सेरुवा भेडालों के हाथ दिया जाता था जिसे वह प्रसाद के रूप में सबको बांटते थे. साथ ही बन अप्सराओं के नाम के सोने चांदी के टीके, बिंदीचूड़ी, साज श्रृंगार का सामन, हल्दी, आटा, चावल चढ़ाया जाता था. उस दिन शांय काल से पूरी रात गीत लगाए जाते थे और अगली सुबह नुनेत होती थी इस दिन भेड़ बकरियों को नहलाया जाता है फिर उनके बाल उतारे जाते हैं, भेड़-बकरियों को नमक खिलाया जाता है और सारे पकवान भी नमकीन ही बनाए जाते हैं. और दिन भर डयान्टूडियां (मायके आई बेतिया) अपने मायके में तरह तरह के पकवानों का रस्वादन करती हैं अपने परिधानों व आभूषणों में पंचायती आँगन में हारुल, झैंता, रासो इत्यादि गीत नृत्यों से शमां बाँध लेती हैं जिनका साथ गॉव के सभी लोग देते हैं. वहीँ यहाँ एक नया प्रचलन देखने को यह मिला कि घर घर मेहमान-नवाजी के लिए नुनेट के दिन बकरे काटे जाते हैं.
खारसी व आस-पास के गॉव के भेडाल अपनी भेड़ों का चुगान सिर्फ अपने जौनसार क्षेत्र में करते हैं जबकि पर्वत, रवाई क्षेत्र के भेडाल कई सौ मील उत्तराखंड की सीमा में भेड़ चुगान करते हैं. इस क्षेत्र ली भेड़ बकरियों का चुगान क्षेत्र मुख्यत: खडम्बा, बमणाई, किणानी, डागुर, जाखा, मोल्टा इत्यादि क्षेत्र पड़ते हैं
भले ही अब नुणाई सिमटकर मानथात व खारसी तक रह गयी लेकिन पहले जौनसार बावर के कई खतों में इसका पर्व मनाया जाता था. जाड़ी के चौहान बताते हैं कि पहले जाड़ी गॉव में भी नुणाई काफी धूमधाम से मनाई जाती थी जिसमें शीला,मंगाड व जाड़ी की भेड़-बकरियां इकटठा होती थी व भेड़ें लड़ाई जाती थी इसके अलावा कनासर में त्यूना, कोटी, मंगताड़ व खत बंदूर में मानथात की नुणाई बेहद लोकप्रिय थी.
नुणाई पर्व के वर्तमान स्वरुप में आये बदलाव से अब यह लगता है कि यह पर्व जल्दी ही दम तोड़कर बेदम हो जाएगा. इसकी अंतिम साँसे बची हैं जिन्हें जीवित रखने के लिए क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों और सामाजिक संगठनों को आगे आना होगा ताकि उत्तराखंड की लोकसंस्कृति की धडकनों में रचा बसा यह लोकपर्व संजीवनी पा सके. और हम जैसे संस्कृति के चितेरे अपने शब्दों से हर उस व्यक्ति तक अपनी संस्कृति का गुणगान कर सकें जिन्होंने मैकाले की शिक्षा पद्धति ग्रहण कर भारतीय लोकसंस्कृति का ह्रास किया है. हमारी टीम जिसमें देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल, धरोहर के चन्द्रशेखर चौहान, लंबा सफ़र की सम्पादक गीता बिष्ट मौजूद थे ने न सिर्फ खारसी गॉव के ग्रामीणों का अभिनन्दन किया बल्कि दिल से गॉव के युवा सुरेश चौहान व उसके पारिवारिक जन जिनमें अमर सिंह चौहान, धूमसिंह चौहान, चतर सिंह चौहान, मयाएआम चौहान, बीरेंद्र चौहान, भारु चौहान, कातगी देवी, बिल्लो देवी, रोशनीदेवी, रूपो देवी, बीडो देवी, अनिता देवी, सुशीला चौहान, पुष्पा चौहान, अनारी देवी, निर्मला चौहान, प्रमिला चौहान, सरिता चौहान, आंचल चौहान, निकिता, रिंकी, संदीप, सुमित, जयपाल सिंह चौहान (खिमाण आळ) इत्यादि शामिल हैं का शुक्रिया भी अदा किया जिन्होंने हमारे रहने खाने की व्यवस्था बिलकुल पारिवारिक परिवेश के आधार पर की थी. भले ही जौनसार क्षेत्र के समाजसेवी व साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले इंद्र सिंह नेगी हमारी टीम का हिस्सा अंतिम समय पर नहीं बन पाए लेकिन उन्हीं के मनोरथ से हम नुणाई का यह लोकपर्व अपनी आँखों से देख पाए.

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