क्या फर्क है निदा फाजली और जावेद अख्तर में जानना जरूरी है ।

(वेद विलास उनियाल)

1- निदा फाजली दक्षिणपंथी नही थे। शुद्ध वामपंथ विचारधारा से प्रभावित थे। लेकिन वामपंथ को वे कबीर की निगाहों से देखते थे। आम इंसान की निगाह से देखते थे। इसलिए लिख पाए- अल्हा तेरे एक को इतना बडा मकान। इसीलिए लिख पाए – हैवान यहां भी, हैवान वहां भी। बहुत बडा कलेजा चाहिए इन पंक्तियों को लिखने के लिए । जावेद अख्तर सात जन्म में ऐसा नहीं लिख सकते। न ऐसा जी सकते। मजबूरियां सामने आ जाएंगी। चेहरा बेनकाब हो जाएगा।

जावेद अख्तर, जान लो निदा जी क्या लिखते थे – गिरजा में मंदिरों में, अजानों में बंट गया, होते ही सुबह आदमी खानों में बंट गया ।

नहीं आप नही लिख पाएंगे ऐसा।

2- जावेद अख्तर ने हमेशा संसद की ओर ललचाई निगाहों से देखा। कभी खुद कभी पत्नी शबाना आजमी के लिए। निदाजी बहुत उम्दा जमाने के शायर थे। कबीर से होते हुए गालिब मीर की परंपरा को जीता एक इंसान। उसने शायद ही किसी नेता से एक बीड़ी भी पीने के लिए मांंगी हो। संसद तो बहुत दूर की बात है।

3- जावेद अख्तर केवल प्रज्ञा से परेशान होते हैं। बाकी सबको छूट है इस देश में। निदा के लेखों में पूरे देश की पीडा झलकती थी वे हर बुरे को बुरा कहने की ताकत रखते थे। जावेद अख्तर चुंनिदा पत्थर मारने पर यकीन करते हैं। नहीं जावेेद अख्तर, निदा फाजली बनने में तुम्हें सात जन्म लगेंगे। तुम देश भर और सीमा पार कुछ शैतान खुले घूम रहे हैं । तुम्हारी हिम्मत नहीं उन्हें कुछ कहने की।

4- निदा चाहते थे स्कूली बच्चे स्कूल जाएं । किसी भी कोम का किसी भी क्षेत्र का । गरीब का बच्चा पढे लिखे। जावेद अख्तर की चिंता बडे लोगों के लिए दिखी। मुंबई की गरीब की बस्ती में भले न पहुंचे हो पर बेगुसराह के ग्लैमर में दिख जाते हैं। फर्क है निदा और जावेद में। मीर , मीरा को पढने वाले गुढ़ने वाले निदा चर्चा में रहने के लिए हल्के काम नहीं किया करते थे।

5- निदा ने उच्च स्तरीय शायरी की। देश के दुख दर्द जीवन को गहरे महसूस किया। वह सही मायनों में आज के कबीर थे। किसी राजनीतिक दल के चापलूसी नहीं की। किसी के पक्षधर नहीं दिखे। बस लिखते रहे। – सीधा साधा डाकिया जादू करे महान , एक ही थैले में रखे आंसू और मुस्कान । जावेद अख्तर की जिंदगी चापलूसी की पतवार पर चलती दिखती है।

6- कितने बुरे बयान दिए गए। क्या महबूबा ने क्या सिद्धू ने क्या आजम ने। तोबा जावेद अख्तर को कुछ सुनाई नहीं दिया। लेकिन साध्वी प्रज्ञा ने चुनाव लडने की ठानी तो सबसे पहले प्रोब्लम इन्हें हुई। कुछ अजीब तो लगा। कैसे कैसे ठग बदमाश चुनाव लड़ गए इस देश में। पर नजर इनकी भोपाल पर गई। प्रज्ञा अपने स्तर पर गलत या सही हो सकती है अदालत बताएगी पर जावेद अख्तर ने घर पर ही प्रमाणपत्र बना दिए। राजनीति के तंग गलियारों से निदा भी हैरान और परेशान रहते थे पह उन्होंने खांचे नहीं बनाए। जावेद अख्तर की तरह लाभ हानि के सौदे नहीं देखे। शबाना आजमी संसद में हो सकती है मगर प्रज्ञा नहीं । यह व्याख्या कौन सी है। जब तक कानून और सुप्रीम कोर्ट आदेश न दे।

7- निदा ने हर विसंगति पर चोट की। हिंदू हो या मुस्लिम हर धर्म की सर्कीण पहलू को वह निशाने पर रखते आए। जावेद बचते आए। नफासत का कुर्ता पहन संसद में घुस जाऊं बस। निदा जैसी साफगोई के लिए प्रकृति की बहुत बडी नेमत चाहिए। सच्चाई चाहिए।

8- सच्चाई भी चाहिए। जावेद कभी अपने पिता से इसलिए खफा थे कि उन्होंने दूसरी शादी की। एक औरत को न्याय नहीं दिया। कहते हैं पिता फोन करके गरियाते थे। लेकिन खुद का यही रास्ता पकड लिया। जावेद को कौन गरियाएगा। निदा की जिंदगी साफ सुथरी रही। – वह हक रखते थे कहने का – मैं रोया परदेश में भीगा मा का प्यार दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार

9- शुद्ध राजनीति में आइए। फिर ड्रामेबाजी क्यों। जावेद अख्तर अपने बयान अपनी अदायगी अंदाज से ड्रामा करते नजर आते हैं। निदा शांत सरोवर थे। जमाने की लिखते थे। जमाने को सुंदर बनाना चाहते थे। राजनीति पर चर्चा खूब करते थे पर उसके अंग नहीं थे। राजनीति के लाभ नहीं उठाते थे।

10 – निदा वामपंथी थे। पर हर चीज पर खुली बहस करते थे। जीवन को खुला चाहते थे। बच्चे पढे महिलाओं के चेहरे से बुर्का हटे, हर चीज पर उनकी सोच खुली थी। यहां जावेद बुर्के की बात पर घूंघट पर आ जाते हैं। घूंघट भी जकड़न है तो बुरा है बुर्का भी जकडन है तो बुरा है। पर प्रगतिशील हो तो अगर मगर क्यो। निदा फाजली की जिंदगी में ये अगर मगर नहीं थे। इसलिए वो जावेद अख्तर से सात आसमान बढे थे।

11- निदा फाजली में ये ताकत थी कि सीताराम येेचुरी को टोक देते । क्या अनावश्यक राजनीति लप्फाजियां करते हो। वो सीताराम येचुरी को रामचरित मानस ही नहीं दक्षिण के कंबन की रामायण को भी समझा देते।
वो रहीम और मीरा के सार को बता देते । लेकिन जावेद अख्तर की हिम्मत नहीं येचुरी को एक शब्द कह पाएं। इनके अपने टारगेट तय है। इसलििए बस प्रगतिशीलता धर्मनिरपेक्षता का एक झूठा नकाब ओढा हुआ है। इस नकाम में वे तमाम कट्टरताएं देख नही पाते। हां बीच बीच में यह नकाब उठता है अपने मतलब साधता है। आखिर संसद में जाना है ।

12 – निदा जैसे सदी के शायर को पता भी नहीं था कि देश में पद्म श्री पद्म विभूषण भी मिलते हैं। मिल गया तो ले लिया नहीं मिला तो फकीरी में मस्त। मगर जावेद अख्तर ऐसे हैं क्या। लगता तो नहीं । निदा जी कह गए थे .शायद कम लोगों ने सुना – कोई हिंदू , कोई मुस्लिम , कोई ईसाई है, सबने इंसान न बनने की कसम खाई है।

13 – निदा फाजली सहज और सबके साथ थे। हर छोटा बडा उनके घर पर आ सकता था। निदा घर पर आए लोगों को खुद बनाकर खिलाते थे। प्यार मोहब्बत बांटते थे। खुली बहस करते थे। जावेद अख्तर से कितने मिल पाएं कहां मिल पाए। केवल ऊंचे रसूख वाले, फिल्म वाले । राजनीति में टिकट देने वाले। इन्हें संपन्न करने वाले।

14- निदा की आंखो में स्नेह प्यार जीवन की बेबसी झलकतीथी। शब्दों में अपनापन झलकता था। जावेद को जब देखो तमतमाया चेहरा। गुस्से की आवाज। केवल टीवी के विज्ञापनों में ही मुस्कराते हैं। शायरी का फर्क यही से आता है। निदा फाजली सदियों में एक होता है।

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