क्या प्रथम विश्व युद्ध ने दिया हमें सात समौदर पार जाणा ब्वे…वाला गीत!
(मनोज इष्टवाल)
सात समुदर पार त जाणा ब्वे जाज म जौलू कि ना….! इस गीत को जन्म लिए आज 105 साल होने को हैं लेकिन फिर भी कोई उस रचनाकार को नहीं जानता जिसने यह गीत लिखा है! सभी इतिहासकार, बुद्धिजीवी व गायक यही मानते हैं कि यह हृदय छू देने वाली, तत्कालीन समय में आंसुओं की सौगात देने वाली गीत रचना प्रथम विश्व युद्ध के किसी सिपाही की देन है लेकिन आज तक यह किसी को पता नहीं कि वह सिपाही था कौन ? लेकिन वह कंठ सबको पता है जिससे बहकर यह सात समुदर लांघता हुआ पौड़ी बाजार तक पहुंचा! और एक सूरदास के कंठों ने इसे अमर बना दिया! शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि आखिर वह सूरदास कौन था और कहाँ का था!आपकी जिज्ञासा शांत करने के लिए आपको बता दूँ कि यह गीत पौड़ी गाँव में जन्में भरोंसी लाल के मुंह से सबसे पहले लोगों के कंठों तक पहुंचा जो जन्मांध थे लेकिन कोटद्वार पौड़ी या श्रीनगर पौड़ी आने वाली बसों में अपनी ढपली पर अपने सुरीले कंठ से इस गीत को कुछ यों सुनाया करते थे:-

सात समुदर पार त जाणा ब्वे जाज म जौलू कि ना!
जिकुड़ी उदास ब्वे, जिकुड़ी उदास..!लाम म जाण ब्वे,
जर्मन फ्रांस!कनुक्वेकी जौलू जर्मन फ्रांस ब्वे,
जाज म जौलू कि ना!हंस भोरी बवे आंद उमाळ,
घौर म मेरु ब्वे दुध्याळ नौन्याळ!
कनुक्वे छुडूलू दुध्याळ नौन्याळ ब्वे जाज म जाण कि ना….!!
गीत यूँ तो काफी लम्बा है लेकिन एक सदी पूरी करने के बाद भी घटनाक्रम को ताजा करके दिल में उतर जाने के सारे गुण रखता है! शायद यही कारण भी है कि यह गीत सुप्रसिद्ध लोकगायक चन्द्र सिंह राही, महेश तिवाड़ी व नरेंद्र सिंह ने के कंठों से गुजरता हुआ आज भी नवोदित कई गायकों के कंठों में उसी हिसाब से उतरता हुआ आगे बढ़ता है जिस हिसाब से सौ साल पहले था! अंतर सिर्फ इतना आया है कि तब गीत के फील के साथ जीने वाले सभी हुआ करते थे क्योंकि तब यह हमारे पहाड़ी लोक समाज की रगों में बसी फौजी जिन्दगी का अभिन्न अंग था और इस से न सिर्फ फौजी परिवार ही सुनकर अपनी खुद बिसराता था बल्कि वह हर बहु बेटी माँ भी जो अपने पति, भाई, की खुद इस गीत के बोलों में तलाशती उस खुद को बिसराती थी और यही कारण भी इस गीत की खूबी का सबस बड़ा रहा है कि इसकी उम्र लम्बी होती गयी और बढती ही गयी! पौड़ी गाँव के भरोंसीलाल अगर आपको याद अब भी नहीं आ रहे हों तो यह गीत तो आपने अवश्य सुना होगा:- तेरी ठन्कर्युं मा राधा बसी जालो काणों, मी लद्दाख छऊँ जाणु मिल अभी नी आणु! शायद इस गीत ने आपकी यादें ताजा कर दी हों ! दुर्भाग्य देखिये न मुझे भरोंसीलाल की फोटो मिली न रामसागर और न ही जोधाराम की! भरोंसीलाल शाह के पुत्र भक्ति शाह ने पिता की विरासत को बढाने का यत्न किया ! भक्ति शाह का गायन सुर अपने पिता के जैसे तो नहीं है लेकिन उसके हुडके की थाप जरुर उसके पिता के सुर के साथ आगे बढती नजर आ रही है! भक्ति शाह 1991 से अपने पिता की विरासत के हुडके को हर छोटे बड़े मंच पर बजाता आ रहा है लेकिन दुर्भाग्य देखिये ऐसे लोक विधा के कलाकारों को संवारने के लिए हमारा संस्कृति विभाग आगे नहीं आ रहा है!

आम जन का मानना है कि यह गीत यूँ तो 28 जुलाई 1914 को छिडे प्रथम विश्व युद्ध के बिगुल बजने की देन बताई जाती है लेकिन एक आध तर्क यह भी आते हैं कि यह गीत द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किसी फौजी महावीर सिंह बिष्ट ने अपनी डायरी में लिखा था! लेकिन विद्वान् इस मत पर एक मत नहीं हैं क्योंकि कई फौजी जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध लड़ा था उनका यह मानना था कि यह गीत उनके समय भी प्रचलन में था! फिर भी मेरा तर्क यह है कि अगर ऐसा था तब ग्रामोफोन पर सुप्रसिद्ध लोकगायक जीत सिंह नेगी इस गीत को क्यों नहीं 1949 में लाये! क्या यह गीत तब इतना लोकप्रिय नहीं था! वहीँ महावीर सिंह बिष्ट की पुत्री श्रीमती सरोज थपलियाल कहती हैं कि यह गीत उनके पिताजी की डायरी में उन्हें मिला, लेकिन इसकी शब्द संरचना से मुझे भी कहीं कहीं संदेह होता है कि यह रचना किसी एक व्यक्ति बिशेष की नहीं हो सकती क्योंकि इसमें नौन्याळ जैसे शब्द गढ़वाल के कम हिस्सों में जैसे चमोली और टिहरी हिस्से में ज्यादा बोले जाते हैं! जबकि अन्य शब्द संरचना पौड़ी के आस पास के क्षेत्र की आम गढ़वाली बोली की लगती है! इसलिए यह अनुमान भी लगाया जाना चाहिए कि हो न हो यह संरचना एक साथ कई व्यक्तियों की मुखाग्र उत्पत्ति हो क्योंकि उस काल में गीत लिखे नहीं जाते थे बल्कि पुटबंदी से जन्मे इन गीतों का सामाजिक प्रचलन बढ़ता ही जाता था जिनमें झोडा, न्योली चांचरी, बाजूबंद, जंगू, भाभी, छोड़े, लामण शैली के गीत प्रमुखत: शामिल हैं! और ये अतीत के गर्भ से लेकर वर्तमान तक यूँहीं निरंतर बहते हुए आगे बढ़ते चले गए!

सुप्रसिद्ध गढ़वाली पत्रिका धाद में सुप्रसिद्ध साहित्यकार देवेश जोशी लिखते हैं कि अरब सागर, काला सागर, कैस्पियन सागर, एड्रियटिक सागर, फारस की खाड़ी, लाल सागर, और भूमध्य सागर में गढ़वाली ब्रिगेड 1/39 व 2/39 बटालियन अलग अलग होकर 21 सितम्बर 1914 के दिन करांची से 13अक्तूबर के दिन फ्रांस के मार्सेस बंदरगाह पहुंची! जिसमें सात भाई के फ़ौज में एक साथ होने की बात आती है तो वहां एक तर्क सामने आया है जिसमें टिहरी गढ़वाल के मंज्यूड गाँव के चार भाइयों ने एक साथ विश्व युद्ध लड़कर ऑन रिकॉर्ड में नाम दर्ज करवाया था! ऑन रिकॉर्ड टिहरी जिले के 36 सिपाही स्यूटा गाँव, 16 जड़धार 11 मंज्यूड, 22 स्वाड चमोली व 11 रैंस गाँव से प्रथम विश्व युद्ध में गए थे! इस गीत को अगर हम प्रथम विश्व युद्ध की देन मानते भी हैं तब इस रिकॉर्ड में पौड़ी से कितने सिपाही प्रथम विश्व युद्ध लडे यह साबित नहीं हो पा रहा है जबकि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गढ़वाल राइफल्स के फाउंडर मेम्बर लार्ड लैंसडाउन के साथ लाड सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी (एडीसी टू वायसराय इन इंडिया एंड ब्रिटेन) ग्राम- हैडाखोली विकास खंड कल्जीखाल पौड़ी गढ़वाल के अदम्य साहस की वीर गाथा आज भी गढ़वाल रेजिमेंट सेंटर लैंसडाउन में स्वर्णाक्षरों में लिखी मिलती है! मूर्धन्य साहित्कार गोबिंद चातक द्वारा संग्रहित इस गीत में जहाँ रुद्रप्रयाग चमोली के शब्दों की पर्याप्तता झलकती है वहीँ आम गाये गए गीत में पौड़ी का बोलबाला ज्यादा दिखाई देता है! क्योंकि लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने जब यह गीत गाया तो वही सर्वमान्य सा कहलाने लगा! जिसमें शब्दों का हल्का सा अमेंडमेंट नजर आता है! प्रथम विश्व युद्ध 28 जुलाई 1914 से शुरू होकर 11 नवम्बर 1918 में समाप्त होना बताया जाता है जिसमें रूस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी (हैप्सबर्ग) और उस्मानिया पूर्णत: तबाह हो गए, जबकि द्वितीय विश्व युद्ध 1939 से लेकर 1949 तक चला था जिसमें 70 देशों की जल थल नभ सेना ने भागीदारी निभाई थी! अब यह रचना 1918 की है जब युद्ध समाप्ति पर था तो कहा जा सकता है कि यह सौ साल पुरानी है और अगर यह 1914 के शुरूआती दिनों मी है तो यह करीब 105 साल पुरानी! अब यह कहना कि यह रचना 1954 में महावीर सिंह बिष्ट जी ने लिखी थी थोड़ा अपवाद सा लगता है क्योंकि तब तो प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गए थे! गीत उत्पत्ति का रचियता कौन है यह कहना आज भी सम्भव नहीं है क्योंकि यह चाहे भरोंसी लाल सूरदास रहे हो या रूद्रप्रयाग के राम सागर और सतपुली के जोधाराम सूरदास के कंठ से निकला जो पौड़ी-कोटद्वार मार्ग पर चलने वाली हर उस बस में चढ़कर इस गीत को गाकर सुनाते थे जो सतपुली में रूकती थी! इनके अलावा यह बादी समाज के कंठों से निकलकर जब लोकगायकों के सुर में बहा तो अजर अमर हो गया! इस गीत की बिशेषता यह है कि यह आज भी बिलकुल नया तरोताजा लगता है!
सतपुली के सूरदास जोधाराम का नाम पता करने के लिए मुझे कई मित्रों को फोन खटखटाने पड़े आखिर पत्रकार मित्र अजय रावत ने उनके बारे में जानकारी देकर अवगत किया! मुझे लगता है कि आम आदमी की पहुँच में पौड़ी के भरोंसीलाल सूरदास या रूद्रप्रयाग के रामसागर न भी रहे हों लेकिन सतपुली में हर बस में चढ़कर इस गीत को जन जन तक पहुंचाने वाले एकेश्वर विकास खंड के रणीहाट निवासी जोधाराम सूरदास को आपने खूब सुना होगा जिनके गीतों में यह गीत सबसे ज्यादा प्रचलित था ! लोक सुरों के ये अंतिम कड़ी के व्यक्ति हुए जो विगत तीन बर्ष पहले स्वर्ग सिधार गए हैं!
Devesh bhai ne is geet par bahut lamba shaudh kiya hai aapke lekh mein kuch sanshay lag raha hai bhai
क्या मैं भी देवेश जोशी बन जाऊं! उनका शोध उनका है और मेरा…. मेरा! उन्होंने शोध किया है और मैंने उस गीत की समालोचना अपने हिसाब से की है! शोध और समालोचना अलग अलग बिषय हुए अडिग भाई!