क्या अल्पकाल में ही लुप्त हो जाएगी जौनसार बावर की जनजातीय वैभवपूर्ण लोकसंस्कृति!
क्या अल्पकाल में ही लुप्त हो जायेगी जौनसार बावर की जनजातीय वैभवपूर्ण लोक संस्कृति!
(मनोज इष्टवाल)
सुनने में शायद अटपटा लगे लेकिन जो इस समय मैं महसूस करके आया हूँ उससे मुझे यही आभास हो रहा है कि आगामी 10 बर्षों में हम एक ऐसी वैभवपूर्ण लोकसंस्कृति से कोसों दूर छिटक जायेंगे जिसके बलबूते पर हम सभी उत्तराखंडी गर्व से कह पाते हैं कि हाँ हम अपनी संस्कृति की जड़ों से जुड़े हैं.!
आज से 10 बर्ष पूर्व जो यह जनजातीय समाज था उसकी लोकसंस्कृति का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा भी वर्तमान में नहीं रहा. जितनी तेजी से इसके आभूषण गायब हुए उतनी ही तेजी से चोड़ा जंगेल, कुर्ती घाघरा, ढांटू भी गायब होने लगा है. यह बात भले ही इस समाज को ठीक उसी तरह महसूस नहीं हो रही है जिस तरह आज से 40 बर्ष पूर्व गढ़वाली समाज को महसूस नहीं हुआ था जिसने अपनी लोक संस्कृति के पहनावे, रूप रंग, स्वांग, कौथीग आँगन के थडिया चौंफला, छुणक्याली दाथी चौंदक्वटया धोती इत्यादि सब भुला दी है. क्योंकि यह इस समाज की संस्कृति में दिख रहा वही बिखराव है जो हम भुगत चुके हैं.
आज का वर्तमान भले ही कितना भी चिल्लाकर कहे कि आखिर कब तक यूँहीं बंधे रहे हम अपने उस लोकसमाज की डोर में जिसमें जकडन सी लगती है लेकिन वह भूल जाता है कि उसे यही समाज अलग पहचान देता है जिसे वह छुपाने में लगा है.
जौनसार बावर की लोकसंस्कृति व लोक समाज के बिखराव की स्थिति का आंकलन बावर क्षेत्र से अगर करें तो उसके लगभग 90 प्रतिशत गॉव अब पुरानी दियाई (दीवाली) नहीं मनाते. उसका कारण और कोई नहीं बल्कि वहां का लोक समाज स्वयं है क्योंकि उन्हें अपनी सहूलियत अपनी संस्कृति से पहले चाहिए. मैंने जब कारण जानना चाहा तो ज्यादातर लोगों का कहना था कि एक तो पुरानी दीवाली पर नौकरशाहों को छुट्टी नहीं मिलती, स्कूली बच्चों को छुट्टी नहीं मिलती उपर से एक महीने बाद मनाई जाने वाली इस दीवाली तक ठंड बढ़ जाती है तीसरा आजकल के नवयुवकों को बम पटाके लडियां इत्यादि ही पसंद हैं न कि अपने चोडा जंगेल के साथ ब्यांठे/होला. अब आंगनों से भी ज्यादातर ने मुंह मोड़ लिया है क्योंकि धूमसू, हारुल इत्यादि लगाने से बेहतर ये सब घर में बैठकर टीवी सीरियल देखना पसंद करते हैं. मेरे मुंह से बस यूँही निकल गया कि हमने भी तो यही किया आज कसमसा रहे हैं कि काश….गॉव में जाकर अपने खलिहानों की फटालों में अपने पैरों की रिदम से बोलों के शोर से उन्हें महसूस करा पाते कि हम मरे खपे तब तक नहीं हैं जब तक हमारी पुरातन संस्कृति के आँगन ज़िंदा हैं.
ऐसे कई उदाहरण हैं लेकिन अभी बावर और जौनसार के बीच का भरम क्षेत्र जिसे कांडोई भरम भी कहा जाता है अपनी पुरातन लोक संस्कृति से हिला नहीं हैं सिर्फ उसका 20 प्रतिशत हिस्सा ही क्षरण हुआ है 80 प्रतिशत अभी भी वहां के लोक समाज व लोक संस्कृति के दर्शनीय मूल्य ज़िंदा हैं .!
लेकिन जौनसार का यमुना का तटवर्ती क्षेत्र सचमुच अचंभित करता है. लखवाड का अपवाद अगर छोड़ दिया जाय तो 10 बर्ष पूर्व यहाँ की लोक संस्कृति की विविधताएं देखते ही बनती थी. लखवाड़ पहले से ही अड़वांस माना गया है लेकिन उसने भी अपने त्यौहारों की बानगी के घटते मूल्यों की डोर पकड़कर हर बर्ष वहां लोक साँस्कृतिक उत्सव मनाने शुरू कर दिए हैं ताकि सनद रहे कि हम अपनी जड़ों के हिलने से पूर्व उसे मजबूत करने लगे हैं. लेकिन यह क्या …! अन्य कई गॉव यमुना क्षेत्र के ऐसे हो गए जहाँ मरोज पर्व का अता-पता ही नहीं लग रहा . न वो पौणाई रही न वो छुमके न वो आँगन के गीत न भितरा का नाच व गीत ! और तो और सूर पाकोई घेन्घटी के लिए लोक संस्कृति की विशिष्ट पहचान वाले वे कांस के कटोरे जिनमें बेशकीमती जड़ी बूटियों से निकली बेहद दुर्लभ सूर (शराब) छलकती बलखती कंठों में उतरती थी न वह नली (सुराई) रही जिसकी मूठ (गर्दन) से बहती धार का सार आँखें बंद करवाकर अहा से वाह..वाह तक पहुँचाता था. न वे ठुमके रहे जो घर के अन्दर नृत्य करते हुए देवदार के बिछे फट्टों पर चिकनाहट ला देता था. मुझे हैरत तब हुई जब मैंने “छुमका” के वीडियो फिल्मांकन के दौरान इन बिषय वस्तुओं को सजाने की बात कही तो हर जगह से यही जवाब मिलता ! अरे साहब अब कहाँ मिलेंगे आपको कांस के वो कटोरे क्योंकि उन्हें तो भांडे बर्तन बेचने वाले आये दिन ले जाते हैं और चमकीला स्टील पकड़ा जाते हैं. ठीक उसी तरह जिस तरह बचपन में मेरे घर से मेरी कांस की थाली रामझाणी (मुस्लिम समुदाय का ठंठेरा) मेरे हाथ से छीनकर ले गया था और बदले में मूंगफली के दानों से मेरा पल्ला भर गया था. मुझे बरबस तब खारसी गॉव की याद आ गयी जहाँ ये बर्तन बहुतायत मात्रा में हैं शुक्र है कि वहां अभी उन गिद्ध व्यापारियों की नजर नहीं गयी जिन्हें कांसे व स्टील के भाव में कोई अंतर महसूस नहीं होता.
बहुत मन्नत और मेहनत के बाद आखिर कुछ कटोरे तो मिल ही गए जिन्होंने मेरे “छुमका” गीत के फिल्माकन का आशय स्पष्ट करने में बेहद मदद की. उम्मीद है इन कटु लेकिन बेहद मुलायम शब्दों को ह्रदय में रखकर जनजातीय संस्कृति के हमारे युवा साथी अपने बुजुर्गों के बिरासत के मूल्यों को बिखरने से बचाने का यत्न करेंगे ताकि यह लोकसंस्कृति जोकि मेरी नजरों में अल्पकालिक दिखाई दे रही है मुझे अंगूठा दिखाकर कहे ये तमसा और यमुना के बीच का वह क्षेत्र है जहाँ हर खेत उपजाऊ है ठीक उसी तरह जिस तरह हमारा लोक समाज व लोक संस्कृति. जब तक यह थाती-माटी बची है तब तक इस लोक संस्कृति को हम कुरूप होने ही नहीं देंगे.