क्या अयोध्या का सही इतिहास इंतजार करवा रहा है या फिर यूँहीं …!

(वरिष्ठ पत्रकार वेद उनियाल की कलम से)

जैसे यूरी गैगरिन सबको याद रहते हैैं। चीफ जस्टिस रंजन गौगौई क्या फैसला दें मालूम नहीं! लेकिन वह इतिहास में हमेशा बने रहेंगे। सवाल यह नही कि फैसला क्या आए? सवाल यह है कि वास्तव में भारत की जनता ने क्या-क्या दुख देखे! अगर वास्तव में बाबर के सिपहसालार ने यह मंदिर तोडा है तो उस समय की जनता के मन में क्या गुजरी होगी। इसका जिक्र ढूंढे नही मिलेगा। न उनके इतिहास लेखन में , न उनके पत्र-पत्रिकाओं/ ऐतिहासिक दस्तावेजों के लेख वृतांतो में। इन पक्षों को वे भुला देते हैं।

अकबर के नौ रत्नों का जिक्र, आम खाने के किस्से, हुमायूं की कस्तूरी बांटने के किस्से , संगीत साहित्य की बातें मिलेंगी लेकिन जिस गुरु से तानसेन को छीना गया था! उस गुरू की थाह इतिहास में कहीं नहीं मिलती और न ही किसने लेने की कोशिश ही की। प्रगतिशीलता के कवियों ने बहुत कुछ उच्च लिखा लेकिन कोई कविता आज तक तानसेन के गुरु पर किसी कवि ने लिखी हो वह नजर नहीं आई। और….. कविता बनती तो फिर अकबर महान कैसे कहलाते। सारा पेंच यही पर है।

इतिहासकारों से देश भरा है। सुख सुविधा ऐश में पले इतिहासकारों ने न जाने क्या-क्या लिखा और क्या-क्या उनसे लिखवाया गया लेकिन वे पन्ने नहीं मिलते जिनमें उस दौर के जनमानस की थाह ली जाती हो। हां… अंग्रेजों के समय भारतीयों ने क्या-क्या जुल्म सहे इस पर लिखा मिल जाएगा। इतिहासकारों ने अंग्रेजों के आने से पहले के युद्ध का वर्णन या हर त्रासदी का वर्णन इस तरह किया मानों आम जनता को इससे कोई मतलब ही नहीं था। मानो सोमनाथ लुटा तो आम जनता को कोई लेना देना न था। पानीपत में लड़ रहे दो राजाओं से आम लोगों को क्या लेना देना। इन लडाइयों को आनंदपाल बनाम गजनवी की लडाई मान कर बहुत कुछ छिपा लिया। कहीं विद्रुप और कुटिल तो है हमारा इतिहास लेखन। किस तरह हल्की की गई कूका विद्रोह , चाफेकर बंधु का बलिदान। और तो और सजगता नहीं होती तो नेफा बचाने वाले जसवंत सिंह जैसा यौद्धा को भी भगौडा बताया हुआ था ।

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