“कैकी बौराण छ?” महिला सौन्दर्य की उपमाओं का ऐसा खजाना जो प्रकृति में व्याप्त तत्वों की भरमार से भरा है!
“कैकी बौराण छ?” महिला सौन्दर्य की उपमाओं का ऐसा खजाना जो प्रकृति में व्याप्त तत्वों की भरमार से भरा है!
(मनोज इष्टवाल)
कभी जब कलम थाह लेकर शब्दों के बबंडर में उलझ कर कल्पनाओं के कपोल-कल्पित लेकिन यथार्थ संसार को लिपिबद्ध करने में अपनी स्याह को सफ़ेद कागजों में बिखेरने को आतुर हुए आगे बढती है तो उस अप्रितम लेखनी में दिल, होंठ, आँखें, बदन के रोम-रोम मुस्करा देते हैं! होंठों से जब शब्द जुंबिश कर बाहर निकलते हैं तो सिर्फ यही कह पाते हैं- वाहss….!
कल दिन में बिटिया अपनी दादी यानि माँ को याद कर रही थी तो उसकी आँखों के मंडराते आंसू असहनीय थे! वह मुझे व अपनी माँ को कोसती हुई कह रही थी कि तुम दोनों के कारण दादी को जल्दी संसार से विदाई लेनी पड़ी! मेरी दादी इस संसार की सबसे अच्छी दादी थी! उसकी नेमतें मेरे लिए आज भी वरदान हैं! माँ भला किसकी प्यारी नहीं होती लेकिन शब्द अगर मुंह से बाहर निकलने से पहले अंतर्मन की आवाज सुनकर निकले हों तो उसकी पीड़ा का आभास आपको लम्बे समय तक सालता रहा है!
बिटिया के तब कहे शब्द अब कई घंटों बाद मेरे एकांत के साक्षी हुए तो माँ के साथ मेरा बचपन मुझे याद आ गया! बेटी भले ही बचपन की अवस्था से निकल युवा अवस्था में प्रवेश करने जा रही हो लेकिन बाप के लिए बच्चे हमेशा बच्चे ही होते हैं! इन संदर्भों की कड़ियाँ अगर हम अपने लेखन से जोड़ते हुए आगे बढ़ें तो मेरे हिसाब से वह लेखनी सभी के अंतर्मन की पीड़ा को उजागर करने में कामयाब होती है! वक्त, काल, परिस्थिति जो भी हो लेकिन रिश्ते वही हैं जो पुरातन काल से चले आ रहे हैं! हाँ सिर्फ बनावट कहीं रिश्तों में नजर आई है तो वह इस भौतिकवाद के बाद नजर आता है कि हर वस्तु का मोल सिर्फ पैंसा रह गया है!
बचपन की यादों में डुबकी लगाते ही फिल्म बैकग्राउंड में चली गयी! मेरा गाँव, मेरे हमजोली, सल्तराज, बहती नाक, कूड़ी-बाड़ी, इच्ची-दुच्ची, अकड़-बकड, चिन्ना-पथरी, आमी-औट, बाघ-बकरी, अस्टा-चंगा इत्यादि यही तो खेल हुआ करते थे हमारे! आज इन सबका अस्तित्व गाँव में बचा भी है कि नहीं मैं नहीं जानता! फिर बिना मुंडन के बाल, स्कूल से पाटी-बोळख्या लेकर लौटते वक्त रास्ते में खड़े होकर सबसे दूर तक मूतने की प्रतियोगिता, या फिर स्कूल में बोळख्या का पानी सूख जाने पर कलम से उसे घुमाना और कहना-“मकड़ा दिदा मूत-मूत! या फिर मासाब द्वारा रटा लगवाना- “ दो इकम दो, दो दूना! दो दूना चार, तो तिन्यां?” या फिर ” कैs छक्का पुट्ठा-पुठी? छ: छक्का ३६ या फिर कैs नमा मुक्खा-मुखी? सात नमा ६३ या फिर कैs नमा कुखडिम कौवा ! ग्यारह नमा ९९!
सब परिदृश्य की कल्पनाओं में सुबह से शाम तक माँ की भागदौड़, अपनी व गाँव की बहनों के पंचायती आँगन या खल्याणु में थडिया, चौंफल, झुमैलो, बाजूबंद या फिर स्वांग! इस सबके बीच माँ हमेशा ज़िंदा रही! उसका चूल्हे के पास मुझे बैठकर दूध का मलाईदार गिलास देना! कोयले से लकीर खींचकर बोलना कि लिख “ अ आ”! मानों कल की बात रही हो!
अब आई वह जंदरी जिसकी यादें अक्सर मेरा अतीत व वर्तमान में लोकसंस्कृति के दीये की रौशनी हमेशा ही दीप्तिमान करता रहा है! माँ सुबह चार बजे उठ जाती थी ! कभी कभी उससे पहले भी! क्योंकि दिन भर सुखाया गेंहू व मंडुवा जो पीसना होता था! तब चक्की गाँव से तीन से चार किमी. दूर हुआ करती थी लेकिन अधिक्तर के पास चक्की में गेंहू मंडुवा पिसवाने के पैंसे नहीं हुआ करते थे! अत: ज्यादात्तर महिलायें यही कहा करती थी कि चक्की के पिसे में स्वाद नहीं होता! सच कहूँ तो यह मर्द समाज का बहलावा हुआ क्योंकि उन्हें चक्की तक 20-30 किलो लादना जो पड़ता था या फिर उसकी पिसाई का जुगाड़ करने के लिए पैंसे नहीं होते थे!
माँ जैसे ही जन्दरी (हाथ चक्की) घुमाती थी पता नहीं मेरे साथ क्या रोग था मैं भी उठ जाता और थिन-थिन आवाज निकालकर रोने की एक्टिंग करता लम्बे मिट्टी (जो पिछले शाम सहपाठियों द्वारा एक दुसरे के बालों में घुसाई होती) सन्ने बालों को खुजाता माँ के पास आ जाता! माँ डपटती हुई कहती- शाबाश..ब्यटा, त्वे माँ चैन स्ये दिखणी किलै पसंद आण” (शाबाश बेटे…तुझे माँ चैन से दिखाई देनी क्यों पसंद आएगी)! फिर माँ मेरा बाजू पकडती व मुझे अपनी जांघ में लिटाती! एक हाथ से चक्की घुमाती! दुसरे हाथ से मेरे बालो को सहलाती! साथ में डांटती कि इतनी मिटटी तेरे बालों में घुसी है तो जूँ नहीं होंगे! लेकिन मैं ठहरा मैं! फिर थिन-थिन करता क्योंकि माँ असली मुद्दे पर आई ही कहाँ थी! फिर माँ जंदरी (हाथ चक्की) की घर्र-घर्र के साथ सुर मिलाती व लोरी के जो गीत सुनाती वह अकल्पनीय व संसार के सबसे बड़े सुखों में एक होता!
माँ यह गीत अक्सर गाती! शायद यह गीत मुझे तब से आज तक भूला हो! गीत के बोल थे:-
हे लठयाळी मनु, कैकी बौराण छ?
धुंवा सी हंपली, कैकी बौराण छ?
पाणी सी पतली, कैकी बौराण छ?
केला सी गेल्की, कैकी बौराण छ?
दीवा जसी जोत, कैकी बौराण छ?
नौण सी गुन्दकी, कैकी बौराण छ?
बादल सी झड़ी, कैकी बौराण छ?
दूबला सी लड़ी, कैकी बौराण छ?
भीमळ सी छड़ी, कैकी बौराण छ?
नाक म छ तोता, कैकी बौराण छ?
जीब माँ क्वील, कैकी बौराण छ?
आंख्युं मा आग, कैकी बौराण छ?
गल्वडी मा गुलाब, कैकी बौराण छ?
हुडकी सी कमर, कैकी बौराण छ?
चीणा जसी चम, कैकी बौराण छ?
पलिंगा सी डाळई, कैकी बौराण छ?
हिन्सरै सी गोंदी, कैकी बौराण छ?
काफलैs सी दाणी, कैकी बौराण छ?
घी की सी माणी, कैकी बौराण छ?
चांदू मा की चाँद, कैकी बौराण छ?
बांदू माँ की बांद, कैकी बौराण छ?
इनि मेरी होंदी, कैकी बौराण छ?
हथगुली म सैंदी, कैकी बौराण छ?
अब आप ही बताओ इतनी सारी उपमाओं से क्या कभी किसी अन्य क्षेत्र के कवि-लेखक या साहित्कार ने महिला के स्वरूप को सजाया होगा! यह अपना उत्तराखंड ही है जहाँ कल्पनाओं में श्रृष्टि ने इतने बेशुमार प्रकृति प्रदत्त संसाधन दिए हैं कि उसका अलौकिक संसार दिव्यता के चरम को छु लेता है! मुझे कई बार इन उपमाओं में अपनी माँ को जोड़ने में कोई झिझक नहीं होती! जैसे – नौणी सी गोंदकी..(मक्खन सी डली), दीवा जसी जोत (दीये की जोत सी), गळवडयुं मा गुलाब (गालों में गुलाब), चीणा जसी चम (अन्न प्रदत्त करने वाली देवी सी चमकदार) इत्यादि!
अब जब शैक्षिक वैचारिक स्तर पर आकर इसकी तुलना की जाय तो यह लोरी कहें या फिर चखुल्या गीत (गढवाली गीतों की अनूठी शैली) ! तब अनुभव होता था कि पूर्व में यह गीत उन उत्कंठों से निकले हैं जो पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन जिन्हें कल्पनाओं को संजोने में महारथ थी. जो अपने आस-पान ब्याप्त दूर गगन से लेकर पृथ्वी तक के सारे श्रृंगारों से भली भाँती परिचित थे! और अब जो कल्पनाएँ वर्तमान साहित्य या कवि, गीतकार व लेखक हमें प्रदत्त कर रहे हैं उनसे इनकी तुलना करना ही बेईमानी है! ये मौलिक रचनाएँ जो अब लोक गीतों की श्रेणी में आ गए हैं तब भी सर्वोपरी थे और आज भी हैं! शायद आप भी इस बात को नहीं नकार सकते क्योंकि “ किंगर का डाळआ घुघुती, बंगर का छाला घुघूती” हो या चैत की चैत्वाली” ..! सब उसी काल की रचनाएँ हैं जब इनके वर्तमान गायक पैदा भी नहीं हुए थे! आज इन्हें इतना बड़ा प्लेटफोर्म मिल गया है कि ये सात-समुदर पार भी खूब गाये व बजाये जा रहे हैं!
यह गीत “कैकी बौराण छ” नारी उपमाओं का ऐसा भण्डार है जिसने लोकगायक जीत सिंह नेगी, नरेंद्र सिंह नेगी, गोपाल बाबू गोस्वामी, चन्द्र सिंह राही, हीरा सिंह राणा, प्रीतम भरतवाण सहित वर्तमान के उदीयमान सभी गीतकारों के लिए हर हमेशा व्यापक संभावनाएं छोड़ी हैं! और उन लेखकों के लिए प्लेटफॉर्म भी जिन्हें अपने गीतों में प्रकृति प्रदत्त संभावनाएं दिखाई ही नहीं देती!