केदार गंगा का मछली पकड़ने की अद्भुत रेणुका मौण मेला! यहाँ वानस्पतिक दूध से मारी जाती है मछलियां!
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 18 जून 2019)

अभी हम पट्टी गडूगाड़ की प्राकृतिक सुन्दरता से पूरी तरह अभिभूत भी नहीं हुए थे कि सुबह ही टीम लीडर की भूमिका निभा रहे हिमालय दिग्दर्शन व पलायन एक चिंतन के संयोजक ठाकुर रतन सिंह असवाल का निर्देश हुआ कि हमें यहाँ से जल्दी निकलना है क्योंकि आज हम देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल जी को सांकरी क्षेत्र घुमाना चाहते हैं! यह योजना ये कब बनाते हैं कुछ कन्फर्म नहीं होता! मैं अनमने तरीके से तैयारी करने लगा क्योंकि मुझे तो अभी देवजानी, खेडमी और जीवाणु गाँव की लोकसंस्कृति के बारे में और जानकारी लेने का मन था वहीँ मुझे दिनेश कंडवाल जी बिल्कुल तैयार नजर आये! उनके भावों से लग रहा था कि वे स्वयं भी जल्दी खिसकने के मूड में हैं! इसके पीछे कारण यह भी था कि इन गाँवों में न नहाने के लिए यथोचित्त बंदोबस्त था और न शौचालय ही! ऐसे में मुझ जैसा रफ-टफ आदमी तो यहाँ बर्षों गुजर कर सकता था लेकिन शहरों में सभी भौतिक संसाधनों का इस्तेमाल कर चलने वाले हमारे वैज्ञानिक मित्र दिनेश कंडवाल जी के लिए यह कठिन था!
अभी हम विदा लेकर बमुश्किल 400 मीटर ही आगे गए होंगे तो देखा कच्ची ढलवा सडक में चट्टान के बड़े बड़े डोजर आ रखे हैं जिन्हें मजदूर सबल व घनों से तोड़ने में ब्यस्त थे! यहाँ समय ज्यादा लगने वाला था इसलिए ठाकुर रतन सिंह असवाल, चतर सिंह रावत, अमर सिंह चौहान, अनिल पंवार सहित ज्यादात्तर लोग उतरे और मजदूरों के साथ बड़े-बड़े डोजर टाइप पत्थरों को हटाने में हाथ बंटाने लगे! ऐसे ताकत व मेहनत के कामों से मैं जरा बचकर ही रहता हूँ इसलिए मैं व कंडवाल जी गाडी में ही बैठे रहे! 25-30 मिनट की मशक्कत के बाद रास्ता खुला, सडक के नीचे खेतों में नारी स्वर के सामूहिक गीत सुनाई दिए जो खेतों में मंडुवे की गुड़ाई कर वहीँ चाय नाश्ता कर अपनी थकान मिटा रही थी! वह झुण्ड क्या गा रहा था कह नहीं सकता लेकिन इतना जरुर था कि यह बाजूबंद शैली का कोई ऐसा गीत था जो हमें प्रश्नोत्तर के लिए ललकार रहा था!
अभी हम एक मोड़ ही काटे थे कि दूसरी मुसीबत सामने थे यहाँ सडक का चौडीकर का कार्य चल रहा था व डोजर मशीन पत्थरों को किनारे करने पर लगी थी! परसुराम सिंह रावत के पुत्र या भाई ने उन्हें जल्दी-जल्दी रास्ता साफ़ करने को कहा और यहाँ से भी हम लगभग 15 मिनट में आगे बढ़े! सर्पाकार कच्ची सडक पर रेंगती गाड़ी गड्डों में झूलती पत्थरों से टकराती केदार गंगा जिसे स्थानीय भाषा में गडू गाड़ या केदार गाड़ कहते हैं के साथ उसी तेजी से आगे बढ़ रही थी जिस तेजी से केदारगंगा अपना तमसा में मिलने का सफर तय कर रही थी! खैर हम जब भदरासू पुल पार कर मोरी जाने वाली पक्की सडक पर पहुंचे तो हम अब केदार गंगा के बामांग से मोरी के लिए बढ़ने लगे! हमारे दांये हाथ पर चीड के जंगल के साथ केदार गंगा व बांये हाथ उतुंग पत्थरीले पहाड़ों के साथ खड़े उतुंग चीड बृक्ष! नानई में हम पहुंचे ही थे कि अमर सिंह चौहान जोकि इस क्षेत्र के जाने माने कांट्रेक्टर भी हैं का अनुरोध था कि आज रात्री हम उनके मेहमान है! हम मोरी –नैटवाड, कोटि-सिदरी होते हुए सांकरी पहुंचे जहाँ एक होटल में लेमन टी का बिश्राम लिया और फिर शाम के लिए नानई लौट आये!

नानई गाँव…अब ये कहें कि जहाँ अमर सिंह चौहान का घर है उसके आस पास दो एक मकानों की ही और बसासत है तो ठीक रहेगा! मोरी से बमुश्किल डेढ़ से दो किमी (पुरोला की ओर) दूरी पर स्थित नानई के लिए हमने गाड़ियां मुख्य सडक पर पार्क की और एक छोटे से ढाल की बटिया पार कर केदार गंगा पर बने बमुश्किल 30 से 50 मीटर लम्बे पुल पार हम अमर सिंह चौहान जी के घर में आ पहुचें! यहाँ मुझे एक बात बहुत अच्छी लगी! पौड़ी गढ़वाल में हम अपने मकानों के अंदरूनी भागों को सजाने के साजो-सामान में जाने क्यों कंजूसी करते हैं लेकिन इस क्षेत्र में जो भी सम्भ्रान्त व्यक्ति है वह इस बात की गुणवता पर ज्यादा ध्यान देता है कि घर के साजो-सामान में कोई कमी न आये! यहाँ भी ऐसा ही था! ड्राईन्ग रूम में कालीन व सोफे के साथ जब आप अवलोकन करेंगे तो भूल जायेंगे कि आप ग्रामीण क्षेत्र में आये हैं! साफ़ सुथरे शानदार होटल जैसे कमरों में सजे बेड, बाथरूम सभी सुविधाओं युक्त ! ठंड और गर्म की मार के साथ थकान झेलते शरीर से जब रहा नही गया तब नहाना ज्यादा उचित समझा! गीजर के सुंदर गर्म पानी ने थकान से राहत दी और चाय की चुस्कियों में बादाम-काजू बिस्किट नमकीन के बीच बातों का सिलसिला! मैंने थोड़ी देर सुस्ताना अच्छा समझा और जाकर कमरे में लेट गया! स्वाभाविक था नींद आ गयी!
आँखें खुली तो पाया कि अमर सिंह चौहान के छोटे भाई व अमर सिंह जी दोनों ही शाम की तैयारियों पर जुटे हुए हैं! इस क्षेत्र की मेहमाननवाजी का अलग ही आनन्द है! यहाँ खाने के साथ मांस में अंडा, मछली, मुर्गा व बकरे का मांस ज्यादात्तर बड़े घरों में अलग अलग डिश के तौर पर बनता है! मैं भी आकर अब बैठक में बैठ चुका था जहाँ सब गप्पियाने में लगे हुए थे! अमर सिंह किसी से बात कर रहे थे तो निराश होते हुए बोले- मछली फिर भी नहीं मिली? ठाकुर रतन सिंह असवाल ने प्रत्युत्तर दिया- छोड़ो भी! दरअसल सब यही चाहते थे कि दिनेश कंडवाल जी को उनका सबसे फेवरेट भोज्य पदार्थ फिश मिल जाए! अमर सिंह चौहान के पिता जी (औत्तार सिंह चौहान) बोले- टोंस की मछलियां मिलनी मुश्किल है और यहाँ गडू गाड में अभी कुछ दिन पहले ही मौण मेला हुआ है इसलिए यहाँ तो बिलकुल भी सम्भावना नहीं है!

मौण मेले का नाम सुनते ही मैं चौंक गया क्योंकि मेरे संज्ञान में यहाँ के मौण मेले की जानकारी नहीं थी और न ही इस मेले के बारे में कहीं छपा पढ़ा था आजतक! अब तक खेतों से अमर सिंह चौहान की मांजी व छोटे भाई की बहु भी लौट आई थी! मैंने पूछा-कब से होता है इस नदी में मौण? जवाब मांजी ने दिया- जब से हमारी यहाँ बसासत है तब से तो मैं भी देख रही हूँ ! फर्क इतना है कि पूर्व में यहाँ सिर्फ सुराई के दूध से मछलियाँ मारी जाती थी अब कुछ लोग ब्लीचिंग डालकर मछलियों की पौध बर्बाद कर रहे हैं! सचमुच उनके शब्दों की जो पीड़ा थी वह उनकी जुबान से ऐसे बह रही थी कि मानों सिंचित खेतों की मुंडेरों पर उन्होंने मछलियों का बालपन देखा हो व उनसे दोस्ती रखी हो!
मौण के बारे में औतार सिंह चौहान जी बताते हैं कि गडू गाड़ (केदारगंगा) में हर बर्ष माँ रेणुका के नाम का मौण हर साल जेष्ठ माह के 20 गते आयोजित किया जाता है इस बार यह 3 जून को आयोजित हुआ है! इसमें पट्टी गडूगाड़ व पट्टी सिगतूर के दर्जन भर गाँव शामिल होते हैं जिनमें नानई, खरसाड़ी, डिंगसारी, रास्ती, डोभाल गाँव, मातीगाँव इत्यादि प्रमुख हैं! मेला आयोजन से तीन दिन पूर्व से यहाँ के लोग सामूहिक तौर पर सुल्लू का दूध (एक प्रकार की कांटेदार बनस्पति पादप जिसे सुल्लू या सुराई भी कहते हैं!) कनस्तरों में इकट्ठा किया जाता है और उसे नियत दिन भदरासू के पास चमौणकोट से देवरागाँव के कर्ण महाराज के माली नदी में उड़ेलते हैं और फिर मेले का प्रारम्भ माना जाता है! उन्होंने बताया कि वे लगभग 45 बर्ष से लगातार हर बर्ष इस मेले को होता देख रहे हैं जिसमें सैकड़ों ग्रामीण ढोल बाजे के साथ मौण के लिए चमौणकोट इकठ्ठा होते हैं जिसमें महिला,पुरुष व बच्चों सभी की भागीदारी होती है लेकिन महिलायें मछली पकड़ने नदी में नहीं उतरती!
औतार सिंह चौहान जी बताते हैं कि भदरासू से टोंस तक लगभग पांच किमी. के दायरे में मछलियां मारी जाती हैं! लेकिन अब चूँकि सुल्लू का दूध इकट्ठा करना लोग झंझट समझने लगे हैं इसलिए ब्लीचिंग से मछलियां मार रहे हैं जिससे मछलियों की कई प्रजातियाँ समूह नष्ट हो गयी हैं वरना इस नदी में टोंस से बड़ी बड़ी महासीर व ट्राउट आ जाया करती थी! इस नदी का उद्गम केदारकांठा से माना जाता है जिसमें जिसमें शाऊल, चाल, गिरी, कल्बांस, गूंज (छोटी शार्क प्रजाति) इत्यादि की लगभग 12 प्रजाति की मछलियाँ मिलती थी लेकिन आज जाने वह मानव लापरवाही की वजह से कहाँ गायब हो गयी हैं! उनका मानना है कि हम सबके लिए ब्लीचिंग का प्रयोग वर्जित होना चाहिए ताकि जलचर प्राणियों का जीवन सुखद रहे व उनकी विभिन्न प्रजातियाँ हमें दिखने को मिलें! वरना देखा-देखी में एक अगर ब्लीचिंग का प्रयोग कर रहा है तो हर कोई उसमें मैं भी शामिल समझो, इसका प्रयोग करने लगा है जिससे मछली पकड़ने या मारने में सुगमता तो है लेकिन उनकी कईपीढियां नष्ट हो रही हैं!
केदारगंगा का यह मौण यकीनन ऐतिहासिक मौण है लेकिन हमें इस मौण को अपनी लोकसंस्कृति से जोडे रखने के लिए यह तो सोचना ही पडेगा कि हम भी अगलाड़ नदी में आयोजित होने वाले राजसी मौण से कुछ सीखें क्योंकि वहां ब्लीचिंग पाउडर से मछली मारना सख्त मना है व कोई ऐसा करता पाया गया तो उस पर कानूनी कार्यवाही होनी तय की गयी है! यहाँ आयोजित मौण मेले में टिम्बुर (टिमरू/बज्रदन्ती) पौधे, अखरोट की छालों को सुखाकर उसे ओखली में कूटा व पीसा जाता है व उसी का पाउडर मौण के दिन नदी में डाला जाता है जिस से मछलियां नशे में हो जाती है व अपने बिल्लों से बाहर निकलने लगती हैं जिन्हें जाला, फटयाला या हाथों के द्वारा पकड़ा जाता है!
मुझे लगता है कि यहाँ के रैबासियों को एक संगठन बनाना चाहिए ताकि यह मेला आने वाले समय में अगलाड़ के मौण की तरह सुप्रसिद्ध हो व इसे देखने के लिए अगलाड़ की भाँती यहाँ भी हजारों लोग इकठ्ठा होवें! इस मेले की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि यह मेला कभी भी विवाद में नहीं रहा और न ही इसमें आजतक कोई झगड़ा ही हुआ है!