केदारनाथ शिलापट ….क्या भाजपा के लिए अब खंडूरी नहीं जरुरी!

(मनोज इष्टवाल)
संवैधानिक परम्पराओं को किस तरह तार तार किया जाता है यह हाल ही में केदारनाथ में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के दौरे और शिलापटों के शिलान्यासों ने पूरे उत्तराखंडी जनमानस को समझा दिया है. अपने दम पर उत्तराखंड में भाजपा की डूबती नैय्या के तारणहार रहे गढ़वाल सांसद मेजर जनरल भुवन चंद खंडूरी की इतनी उपेक्षाएं देखने के लिए यहाँ के जनमानस की आँखें यकीनन डबडबा गयी होंगी क्योंकि उन्हें लच्छेदार भाषणों की जगह अगर कोई ग्राउंड लेबल पर आजतक काम करता हुआ मुख्यमंत्री दिखा तो वह वर्तमान गढ़वाल सांसद मेजर जनरल खंडूरी ही हैं. जो अब वर्तमान बीजेपी में जरुरी नहीं हैं! ठीक उसी तरह दूध की मक्खी जैसे केंद्र में लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी हुए!

भारी बहुमत से विजयी होने के साथ ही भाजपा ने 70 बर्ष की उम्र का हवाला देकर उन सभी वरिष्ठों से किनारा कर लिया जिनके कन्धों पर भाजपा टिकी हुई थी और तो और आज वहीँ हाल आरएसएस के बुजुर्गों के भी पार्टी के अंदर हैं. जैसे ही राष्ट्रपति चुनाव सम्पन्न हुए उम्र की लिमिट हटा दी गई.
आखिर 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा की ऐसी क्या रणनीति है जिसमें वह यह प्लानिंग करके पुन: देश विजय की सोच रही है. वर्तमान तक देश के कोने-कोने से आये रिजल्ट देखने के बाद भी भाजपा का थिंक टैंक आखिर क्या चाहता है. क्या धनबल के नाम पर ये लोग देश फतह करने की फिराक में हैं? मुझे नहीं लगता कि जनता अब उन सब्ज बागों के सुनीले स्वप्नलोक में जीकर वोट करेगी क्योंकि धरातलीय योजनायें कहाँ हैं यह अभी बहरहाल उत्तराखंड में तो दिखाई नहीं दे रहा है!

कांग्रेस भी कहीं दूध की धुली नहीं है बर्षों से उसके शोषण की परकाष्ठा चरम पर थी लेकिन उसके तौर तरीके की इतनी सुगढ़ राजनीति रही कि जनता ने कभी वे लूपहोल देखे नहीं !भाजपा ने जिस तरह केदारनाथ के शिलापट विवाद को हवा दी उसने जो सन्देश पूरे राज्य और देश में दिया है वह दूर-दूर तक एक अदूरदर्शिता का परिचायक नजर आ रहा है. प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के केदारनाथ से दिए गए भाषणों में वह अहम था जिसे नाश करने वाला स्वयं केदार बाबा रहा है.

सिंचाई विभाग व धर्मस्व पर्यटन से जुड़े केदारबाबा के क्षेत्र के कार्यों में न सतपाल महाराज का नाम न सांसद खंडूरी का नाम न क्षेत्रीय विधायक मनोज रावत का नाम और तो और वित्त मंत्री प्रकाश पन्त की जगह राज्यमंत्री धन सिंह का नाम शिलापट पर गुदवाकर संवैधानिक परम्पराओं के विरुद्ध जाकर हुए इन शिलान्यासों की भूमिका किसने बाँधी है यह समझ से परे है क्योंकि यह तो अनजान ब्यक्ति भी जानता है कि क्षेत्रीय विधायक के क्षेत्र में जो भी मंत्री संतरी जाए वह संवैधानिक परम्पराओं के आधार पर वहां की अध्यक्षीय सभाओं का हकदार होता है.
मुझे नहीं लगता कि यह मामला इतनी जल्दी शांत हो जाएगा क्योंकि भाजपा के अंदर इस शिलापट काण्ड के बाद विखराव के संकेत जहाँ स्पष्ट दिख रहे हैं वहीँ कांग्रेस के हाथ में लड्डू आ गए हैं. मनोज रावत नरेंद्र मोदी के दोनों ही बार केदारनाथ भ्रमण के बाद हीरो बन गए हैं. उन्हें उपेक्षित करने से उनका कद जनता के बीच घटने की जगह और बड़ा हुआ है और सिर्फ कांग्रेस समर्थक ही नहीं बल्कि संवैधानिक परम्पराओं को जानने वाले उत्तराखंडी समाज की सहानुभूति भी उन्हें मिली है चाहे वह किसी भी पार्टी बिशेष के हों. वहीँ प्रश्न यह उठता है कि क्या प्रदेश बीजेपी के सीनियर नेताओं की उपेक्षा के बाद बीजेपी 2019 के चुनाव में 5 लोकसभा सीटों पर कब्जा जमा पाएगी या फिर हर सीट के लिए तरसती रहेगी. क्योंकि अभी तक अगर उत्तराखंड के परिवेश में बीजेपी का कार्यकाल दिखा है वह आईने की तरह साफ़ है और यही हाल रहे तो वह नगर निकाय के शीघ्र होने वाले चुनाव भी जीत ले तो गनीमत होगी!

बहरहाल 20 अक्टूबर 2017 को शान्य्काल 8:26 मिनट पर इस सारे प्रकरण पर केदारनाथ विधायक मनोज रावत ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर कहा है कि- “नाम तो भगवान का होता है। आज केदारनाथ में भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र मोदी जी ने कुछ शिलान्यास किया। इन शिलापटों पर , जिस बिभाग की योजना थी उसके विभागीय मंत्री के अलावा मेरा नाम भी नही था। जबकि परंपरा के अनुसार जिस विधानसभा में कोई बिभागीय कार्यक्रम होता है , उसकी अध्यक्षता स्थानीय विधायक करता है।नाम तो वे गढ़वाल के सांसद ओर भीष्म पितामह हो चुके जनरल खण्डूड़ी का कब का भूल गए हैं।
केदारनाथ के प्रधानमंत्री के 2 दौरों के अनुभवों से लगता है कि भा ज पा लोकतांत्रिक शिष्ठाचार भूल चुकी है।
इस पर मेरा यही कहना है कि, “नाम तो भगवान का होता है “। वो किसीके लिखने से न तो अमर होता है न मिटाने से मिटता है।
फिर केदारनाथ की धरती का पाखंड अधिक दिन नही टिकता। हमारा तो छोड़िए वो ” सतपाल महाराज जी ” का तो लिख देते। । अधिकांश योजनाएं उनसे संबंधित विभागों की थी। पर यंहा भी “नए नाम बीर मंत्री”, धन सिंह जी ने बाजी मार ली, जिनके बिभाग की किसी योजना का शिलान्यास नही हुआ पर सभी शिलापटों पर केवल उनका ही नाम था। ये जलालत झेलने के बाद, अब महाराज जी कांग्रेस और भा ज पा में सही अंतर को समझ सकते हैं।
खैर पिछले 2 दिन धर्म , संस्कृति और परंपरा की ठेकेदार कहने वाली पार्टी के नेताओं ओर मंत्रियों के साथ हंसते -खेलते अच्छे कटे।
वे मंत्री ओर नेता भी शिलापट को पड़ते हुए अंदर से फुक रहे थे।”

वहीँ भाजपा के दिग्गज इस मामले में कोई भी टिप्पणी करने से बच रहे हैं लेकिन प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट ने इस प्रकरण से ध्यान हटाने के लिए एक चारा डाला है ! उन्होंने मंत्रिमंडल के विस्तार के साथ कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी देने की बात कहकर इस मामले को रफा -दफा करने की अहम भूमिका निभाई है ताकि बगावत के उभरते स्वर वहीँ दफन हो जाएँ लेकिन यह पूरी उम्मीद है कि आगामी विधान सभा सत्र के दौरान यह मामला कांग्रेस जरुर विधान सभा पटल पर जोर-शोर से उठाकर संवैधानिक परम्पराओं की दुहाई देकर भाजपा को आइना दिखायेगी!
 

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