केदारकांठा पर्वत शिखर की आंछरी थाच व डंडारा की बणकियां (परियां) का तिलिस्म!
(मनोज इष्टवाल)
कहावत है हाथ कंगन को आरसी क्या..? यहाँ वह चरितार्थ होती है जब आप केदारकांठा क्षेत्र के अंतर्गत पड़ने वाली पर्वत शिखरों में घनघोर देवदार जंगलों के बीच स्थित पहाड़ों की गुफाओं व बड़ी चट्टानों के दर्शन करते हैं! यों तो इस पर्वत शिखर रेंज में जरमोलाधार के पास स्थित सिरकोट गढ़ को परियों का डांडा नाम से ही जाना जाता है व यहाँ चाय की दूकान में आप रूककर किसी को भी अगर पूछेंगे कि परियां कहाँ रहती हैं तो सबकी अंगुली स्वाभाविक तौर पर उसी पर्वत शिखर की ओर उठ जायेंगी!

आप अगर केदारकांठा जरमोला धार से चढ़ना चाहें तो यहाँ से लगभग 3 से 5 किमी. की दूरी पर जंगल के बीच एक बड़ी सी चट्टान देखेंगे जिन्हें यहाँ के लोग डंडारा की मात्री या बणकियां कहकर पुकारते हैं और यदि आप खेड़मी, देवजानी व जीवाणु की ओर से बढेंगे तो उसी ओर स्थित देवजानी गाँव के पृष्ठ भाग के शीर्ष को देखेंगे जहाँ आँछरी थाच नामक गुफा में इन परियों का वास बताया जाता है! इसे अकडेत्रा की बूढी छानियां के नाम से भी जाना जाता है! वहीँ केदारकांठा के नजदीक छनियालथाच भी बणकियां, ऐड़ी, आँछरी, बणद्यो, मातृका या परियों का निवास स्थल माना जाता है!
इनके बारे में जीवाणु को शिवदास, देवजानी के परसुराम व खेड़मी के अनिल पंवार एक मत एक ही कहानी सुनाते बताते हैं! जीवाणु के शिवदास कहते हैं-माराज, इसमें बोलने वाली क्या बात है हमने तो उनके चमत्कार साक्षात देखे हैं! यह सच है कि आँछरीथाच, अकडेत्रा छानियां, व छनियालथाच की परियां तब तक आपका कुछ नहीं बिगाडती जब तक आप उनके प्रकृतिलोक को नुक्सान नहीं पहुंचाते या फिर इधर से सफर करते समय उन्हें भूल जाते है व उनके नाम का हिस्सा-किस्सा (खान-पान) निकालकर पहले नहीं रखते! लेकिन डंडारा की परियां तो बहुत खतरनाक हैं! उन्हें लाटी परियां कहते हैं किसी पर चिपक गयी तो जल्दी से मानती नहीं हैं कई बार तो वह बिना जान लिए छूटती ही नहीं हैं!
खेडमी के अनिल सिंह पंवार कहते हैं कि उनके दादा गुलाब सिंह इस क्षेत्र के जाने माने भेडाल हुआ करते थे और वे बताते थे कि केदारकांठा के आस-पास गगरासु थाच, आंदरी, अकडेत्राथाच, पोखुरोला, नौरी, मांझीवन, देवसड़ा, छोनी, रासी, इत्यादि क्षेत्रों में उन्हें हमेशा ही भेड़ों के साथ बणकियों (परियों) से दो-चार होना पड़ता था! वैसे तो उनकी रक्षा के लिए जंगल का देवता भृंग हमेशा ही साथ रहता है लेकिन हम इन वनपरियों के लिए जो भी पकाते थे जरुर रखते थे इसकी एवज में वे हमारी ही नहीं हमारी भेड़-बकरियों की भी रक्षा करती हैं!
देवजानी के परसुराम सिंह पंवार बताते हैं कि उन्होंने तो जाने कितनी बार अकड़ेतरा थाच या आंछरी बूढीछानी थाच की परियों वाली गुफा तक गया हुआ हूँ लेकिन 10 मीटर से आगे जाने में डर लगने लगता है !सच कहें तो उस से आगे हमारा जाने का साहस भी नहीं होता!उन्होंने बताया कि यहाँ इनका अद्भुत संसार है! स्वाभाविक तौर पर बर्तन, ओखलीयां ही नहीं दिखती बल्कि धान की भूसी या फिर गेंहूँ की भूसी भी यहाँ फसलों के साथ-साथ दिखती है! वे इन गुफाओं में वास करने वाली परियों को अच्छी परियों की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि मूलतः डंडारा की परियों से अच्छी मानी गयी हैं ये छोटे मोटे अपराध को माफ्कर देती हैं लेकिन अगर इनके क्षेत्र में बेवजह किसी ने दखल दी तो ये कभी उन्हें माफ़ नहीं करती!
ज्ञानदास बताते हैं कि डंडाराकी परियों के बारे में एक बड़ी अद्भुत बात सामने आती है और वह यह है कि जब भी हमारे गाँव में ढोल बजता है या देवता की पूजा लगती है ये परियां अपने स्थान को बादलों से ढक देती हैं! ये बादल बिन मौसम के भी जाने कहाँ से आ जाते हैं वे डंडाराका को अपने में छुपा लेते हैं!