कुईली गढ़, सिलगढ़ व भरपूर गढ़ के गढ़पति सजवाण थोकदारों ने किया टिहरी गढ़वाल के एक क्षेत्र पर एकछत्र राज!

कुईली गढ़, सिलगढ़ व भरपूर गढ़ के गढ़पति सजवाण थोकदारों ने किया टिहरी गढ़वाल के एक क्षेत्र पर एकछत्र राज!

(मनोज इष्टवाल)

(भरपूर गढ़..फोटो आभार- शीशपाल गुसाईं)
तलवार के धनि, बेहद उद्मति और बाहुबली कही जाने वाली यह जाति कभी गढ़राज्य में गंगा पार टिहरी राज्य में एकछत्र राज करने वाली उन्नत थोकदारों की जाति में शुमार थी जिसे सेनापति माधौसिंह भंडारी के वंशज गजे सिंह भंडारी की साजिशन टिहरी के पांच भाई कठैत ( सदर सिंह कथित, भगत सिंह कठैत, राम सिंह कठैत, उधोत सिंह कठैत, सबल सिंह कठैत)  व कुछ राजदरवारियों ने परगालू नया घाट (लोहबा, बधाण)  में मिलकर मौत के घाट उतार दिया व बजीर शंकर डोभाल को भी साजिशन घोड़े से कुचलकर मरवा दिया था! यह घटना लगभग 1715 की बताई जाती है!  गजे सिंह भंडारी की मृत्यु के बाद जहाँ भंडारी वंशज इस क्षेत्र में कमजोर होने लगे वहीँ सजवानों को टिहरी  में पाँव फैलाने का मौका मिला और वे फैलते चले गए! उनके अधीन तीन तीन गढ़ आ गए थे! ठीक गंगा आर यानि श्रीनगर गढ़वाल के पौड़ी क्षेत्र के असवाल थोकदारों की भांति! असवाल थोकदारों के अधीन लंगूर गढ़ी (भैरों गढ़ी), महाब गढ़ और स्यालबुंगा गढ़ का सबसे बड़ा और ब्यापक क्षेत्र था! 

(भरपूर गाँव )
भरपूर गढ़ मुख्यतः भरपूर गाँव यानि ऋषिकेश श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग के तीन धारा से लगभग डेढ़ से दो किमी. आगे सडक के उपर अवस्थित है! मुख्यतः यह गढ़ जिसे स्थानीय भाषा में सजवाण जाति का क्वाठा (किला) कहा जाता है आज भी गाँव के बीच घिरा हुआ है! व सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि यह अभी तक भी आबाद है लेकिन अफ़सोस न सजवाण जाति के वंशज ही इसे प्रमोट कर पा रहे हैं और न राज्य सरकार! सबसे बड़ी दुविधा यह है कि खुद भरपूर गाँव के लोग इसे सिर्फ अपने पूर्वजों का सबसे पुराना निवास स्थान बताते हैं उन्हें यह लगता है कि यह किला तो गाँव के उपर धार में अवस्थित रहा होगा! यहाँ से गंगा जी लगभग ढाई किमी समांतर बहती है और अक्सर बद्री-नाथ केदारनाथ जाने वाले बहुत से यात्री इस गाँव के नीचे से गंगा नदी का फोटो खींचना ज्यादा पसंद करते हैं! 

(भरपूर गाँव से गंगा जी का नयनाभिराम दृश्य)
बर्ष 2002-03 में मैंने हिमालयन हॉस्पिटल जौलीग्रांट की एक टीम जिसकी अगुवाई कविता जोशी द्वारा की गयी के साथ सजवाण जाति के दूसरे गढ़ कुईली गढ़ का भ्रमण कर वहां से ब्यापक जानकारी जुटाई थी! और कई फोटोग्राफ्स भी उस गढ़ के खंडहरों के खींचे थे जो दुर्भाग्यवश मेरे फोटो नेगेटिव के साथ कहीं खो गये हैं! इसके अलावा कुजणी गढ़ की चर्चा होती है लेकिन यह साफ़ नहीं है कि क्या कुईली गढ़ ही कुजणी गढ़ है या फिर ये अलग अलग हैं. क्योंकि यहाँ का अंतिम थोकदार सुलतान सिंह सजवाण ही बताये जाते हैं! सिलगढ़ व जौरासी गढ़ भी सजवाण जाति के ही बताये जाते हैं लेकिन उनका अंतिम गढ़पति कौन हुआ यह कहना मुश्किल है! 
फिलहाल भरपूर गढ़ के अंतिम गढ़पती गोपू सजवाण जिन्हें गोबिंद सिंग कहा गया है से पहले कौन हुए यह कहना कठिन है लेकिन इस गढ़ के गढ़पति अमरदेव सजवाण व तैडी गाँव पौड़ी गढ़वाल की तिलोखा तडियाल की अमर प्रेम गाथा की गूँज आज भी सुनाई देती है जिस पर मेरा पूर्व में मार्च 2016 में एक लेख “क्यों नहीं होती टिहरियाल व गंगाडी सलाणी (पौड़ी) में आपसी रिश्तेदारी…?” छप चुका है! 
आपको बता दें कि गजे सिंह की मौत पर यह अफवाह फैला दी गयी थी कि वह भोटन्त के राणीहाट गया था जहाँ बैरियों ने उसे धोखे से मार दिया! वह बेहद उत्साही युवा व योद्धा था उसकी मौत पर तब उसकी माँ के प्रलाप के गीत कई सदियों तक गूंजते रहे ! जिनमें :-
“राणीहाटा नी जाणु गजेसिंगा, त्वे बैरी माराला गाजे सिंगा! 
तेरु बाबा गैs छायो गाजे सिंगा, घरबौडू नि व्हायो गजेसिंगा” जैसा कर्णप्रिय गीत झुमैलो के रूप में गढ़वाल के गाँव-गाँव आँगन-आँगन गूंजता रहा!  
वहीँ दूसरी और भरपूर गढ़ के गढ़पति अमरदेव सजवाण को भी प्रेम प्रसंग में घेराबंदी कर मारने के बाद उनके अमर प्रेम के गीत घर घर आँगन-आँगन गूंजे और यह प्रेम सीरी-फरराद या लैला-मजनू से क्मत्त्र नहीं आँका गया इसीलिए यह आज भी उन फिजाओं में हवाओं के साथ घुलकर मानों गुनगुना रहे हों:-
बांकी लो तैडी की तिलोखा, बांकी लो सेरा की मिंडवाळी
बांकी लो कूली का ढीस्वालि……………………………….! 
पूर्व में प्रकाशित इस अमर प्रेम पर मेरा यह लेख :- 
आज भी कभी पुरानी महिलाएं जब इन अतीत के पन्नों को अपने मुखारबिंदु में उड़ेलकर प्रस्तुत करती हैं तो लगता है जैसे किसी ने दिल चीरकर रख दिया हो. मैं भी जब अपने बारह पंद्रह साल पुराने अतीत में गया तब मुझे नगर गॉव (असवालस्यूं) का वह इत्तेफाक याद आ गया जिस दौरान में अपनी खोजबीन में “गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका” असवाल एक राजा..! नामक किताब के लेखन हेतु शोध पर व्यस्त था. 
वह गर्मियों की शाम और असवाल जाति थोकदार रणपाल असवाल द्वारा सन 1500 ई. में बसाई अपनी राजधानी नगर गॉव का चबूतरे का वह पीपल पेड़ याद आ गया जहाँ एक बुजुर्ग महिला हवा के हलके-हलके झोंकों में आँखें बंद करके यह गीत गा रही रही थी. मेरे कदम वहीँ ठिठक गए और इस प्रेम गाथा की प्यास में मेरा दिल तब इतना आतुर हुआ कि मैं तीसरे ही दिन मनियारस्यूं (शायद बणेलस्यूं) पट्टी स्थित तैडी गॉव जा पहुंचा जिसके प्रधान तब शायद मनमोहन तडियाल हुआ करते थे. मैं तैडी के उस नवल (कुंवे) को भी देखने गया जिसका जल आज भी परित्याज्य है. मैं तैडी गॉव के खंडहर किले की उन बुलंद दीवारों को भी देखने गया जो अपने अतीत की परछाई में मुझे रानीनिवास (जहाँ महिलाएं रहती थी) नजर आई. और जहाँ से दिये की टिमटिमाती रौशनी की लौ की तपिस भरपूर के क्वाठा (किला) तक पहुँचती थी जिसका अनुशरण कर यहाँ का वीर भड अमरदेव सजवाण मसक (चमड़े से निर्मित पानी में तैरने का आवरण) पहनकर गंगा पार कर तिलोखा से मिलने तैडी के इसी रानीगढ़ में आया करता था. मैं अमसारी भी गया जहाँ पैडूल भंडालू के बुटोला थोकदारों व तैडी के तडियाल थोकदारों ने घेरकर अमरदेव सजवाण नामक वीर भड की तलवारों कुल्हाड़ियों से निर्मम ह्त्या की थी और तिलोखा अपने प्रेमी के जीवन दान की भीख मांगती रही. अंत में अपने प्रेमी को अपनी आँखों में इस तरह क़त्ल होते देख इस तिलोखा ने अपने स्तन काटकर इसी नवल में डाल दिए थे और श्राप दिया था कि तैडी में कोई बांद (खूबसूरत लड़की) पैदा न हो कहते हैं कई बर्षों तक यह श्राप तडियाल लोगों ने भुगता भी. 
प्रेम गाथा बेहद लम्बी है किसी मित्र को अगर इससे सम्बंधित पूरी जानकारी की आवश्यकता हो तो मैं जितना ढूंढ पाया उन्हें जरुर बताऊंगा.

(फाइल फोटो)
तब गढ़वाल नरेश की राजधानी श्रीनगर हुआ करती थी और तडियाल (तैडी गढ़), बुटोला (पैदुल/भंडालू), व सजवाण (भरपूरगढ़) थोकदारों का राजदरवार में बड़ा रसूक हुआ करता था. कहते हैं तब डांडा नागराजा की पूजा की शुरुआत ब्यास चट्टी में नयार व गंगा के संगम पर हुआ करती थी व बहुत बड़ा मेला लगता था जिसमें टिहरी व पौड़ी के थोकदारों भड व रसूक वाले लोग शिरकत किया करते थे. उस समय भी कुछ ऐसा ही हुआ था क्वीली गढ के गढ़पति भरपूर किले के अधिपत्ति अमरदेव सजवाण के पिता उनकी माँ सहित व तैडी गढ़ के गढ़पति तिलोखा के पिता भी सपत्नी मेले का शुभारम्भ करने पहुंचे थे. इत्तेफ़ाक से दोनों की पत्नियां गर्भवती थी. दोनों अच्छे मित्र भी थे और दोनों ने देवता के आगे कसम ली कि जिसके घर लड़का पैदा होगा या जिसके घर लड़की पैदा होगी हम दोनों इस सम्बन्ध को रिश्ते में बदल देंगे. कालगति को कुछ और ही मंजूर था दोनों के आपसी सम्बन्ध बिगड़े तो रिश्ते टूटना कालांतर में स्वाभाविक था. तिलोखा बेहद रूपसी थी उसकी खूबसूरती के चर्चे आम थे. तब पैडूल भंडालू के बुटोला भी रसूकदार थे. सात भाई बुटोलाओं की तलवारबाजी के चर्चे श्रीनगर दरवार तक प्रसिद्ध थे. तिलोखा के पिता ने तिलोखा की शघाई यहीं बुटोला परिवार में कर दी. लेकिन तिलोखा की माँ वह राज दिल में न रख सकी जो उसके गर्भ में पलने के समय उसके पिता ने अमरदेव सजवान के पिता को वचन में दिया था. उधर जब तिलोखा की मंगनी की बात भरपूर गढ़ पहुंची तो अमरदेव सजवाण की माँ भी यह बात बेटे से न छुपा सकी. 
अमरदेव सजवाण एक तो वीर भड दूसरा राजपूती हुंकार…उसने तय कर लिया कि कुछ भी हो वह तिलोखा को अपनी रानी बनाकर छोड़ेगा उधर तिलोखा भी अमरदेव के ख्वाबो-ख़याल में डूबने लगी. फिर मेला लगा और अमरदेव चूढी बेचने वाले के भेष में मेले में पहुंचा. तिलोखा को उसकीअंतरात्मा ने पहचान लिया और तिलोखा ने अमरदेव सजवाण को. कहते हैं यहीं से प्रेम प्रगाढ़ हुआ और परवान चढ़ा. लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था आखिर यह प्रेम बलि चढ़ा.
इसके बाद गंगा पार टिहरी व गंगा सलाण (गंगाडी) में गंगाजी ने इतनी गहरी खाई पाट दी कि न पौड़ी की रिश्तेदारी टिहरी होती न टिहरी की पौड़ी. फिर वक्त ने सदियों बाद करवट बदली. आकर फिर उत्तराखंड राज्य बना. शिक्षा का उजाला फैला और रिश्तेदारियां प्रगाढ़ होने लगी. आज कई बहुवें टिहरी की पौड़ी में और पौड़ी की टिहरी में हैं यह विषाक्त अब मिट चुका है. शायद तडियाल व सजवाण अब रिश्तेदारी शुरू कर चुके हों. होनी भी चाहिए नीति-नियंता यह समाज खुद बने और दुस्वप्न सुंदर भविष्य की तलाश में उज्जवल हों यही प्रयास होना भी चाहिए.

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