कहाँ गायब हो रहे हैं मीडिया से लोक महत्व के मुद्दे?
कहाँ गायब हो रहे हैं मीडिया से लोक महत्व के मुद्दे?
सम्पादकीय
उत्तराखंड सरकार बमुश्किल अभी एक महीने जवान हुई है फिर भी प्रदेश में दो तीन प्रकरण ऐसे हुए जिन्हें मीडिया यूँ नजर अंदाज कर दे तो बात पचती नहीं है. हाल ही में इनकम टैक्स के पड़े छापों में 600 करोड़ की बरामदगी की खबर जितनी तेजी से उछली थी उतनी ही तेजी से अचानक गायब भी हो गयी. चर्चित अधिकारी मृत्युंजय मिश्रा की सचिवालय के पांचवें तल में ताजपोशी को लेकर मीडिया घरानों ने दो तीन दिन खूब हंगामा काटा! प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया की सुर्खियाँ फिर एकाएक गायब हो गयी!
विगत दिवस प्रेस क्लब में डॉ. वी. पी. त्यागी नामक एक शख्स द्वारा मृत्युंजय मिश्रा पर प्रेस कांफ्रेस कर गंभीर आरोप लगाए गए लेकिन मजाल क्या कि किसी अखबार या टीवी चैनल में ये खबर छपी हो. सबसे बड़ी बात ये है कि तीनों ही मामले लोक महत्व व प्रदेश के आम जन से जुड़े हुए हैं. अब ऐसे में मीडिया का यूँ खामोशी अख्तियार करना भला किस बात का सूचक है. क्या आम जन जो खुले चौराहों पर चिल्ला-चिल्लाकर कहता है- बिकाऊ मीडिया ..बिकाऊ मीडिया ! और हम फितरत भरी नजर से उन्हें देखकर प्रश्न करते हैं कि कौन सा बिकाऊ मीडिया?
अब लगता है कि वास्तव में मीडिया एक मंदी के रूप में पनप रही है जहाँ जिसकी जितनी बोली उतने ही दाम! यहाँ जिस खबर को जितनी हाईप मिलती है वह उतनी ही तेजी से हाईड भी हो जाती है जिसका सीधा सा अर्थ है हम आये दिन वजन के हिसाब से तोल में तोले जाते हैं. जिसको जितना मिला वह उतनी ही जल्दी जमीन छोड़ देता है. अब चर्चा यहाँ तक होने लगी है कि इनकम टैक्स की छापेमारी को छुपाये रखने के लिए एक अधिकारी की बीबी ने कई मीडिया घरानों को मोती रकम दी!
वहीँ मृत्युंजय मिश्रा के बारे में भी यही कहा जाता रहा है. सूत्र बताते हैं कि मृत्युंजय मिश्रा के भ्रष्टाचारों से जुडी खबर न दिखाने या छापने की एवज में भी एक मीडिया घरानों को खुश किया गया है.
अगर यही सब मीडिया का रोल है फिर चौथे तंत्र के रूप में लोक महत्व के प्रश्नों पर सजग रहने वाली मीडिया वर्तमान में क्या परोस रही है. क्या भ्रष्टाचार में लिप्त लोग यूँही निवाला फैंक कर मीडिया का क्षरण हरण करते रहेंगे. यही सबसे बड़ा प्रश्न है?