कश्मीरी विस्थापित बोले, हमें आज भी कश्मीर के सपने आते हैं।

(शैलेन्द्र सेमवाल की कलम से)
* आर्टिकल 370 व 35ए समाप्त होने पर बोले कश्मीरी। आज भी आंखों में कश्मीर की घाटियां वादियां तैरती हैं।

करीब तीस साल हो गए कश्मीर से बेघर हुए। वो जगह जहां जड़ें थी, गांव था, बाप-दादाओं की पुश्तैनी जमीनें थी। इसलिए भुलाए नहीं भूलती। इन तीन दशकों में एक गमगीन फिल्म की माफिक कई सारी संघर्ष की कहानियां उपजीं। लिहाजा जब संसद में अमित शाह कश्मीर में अनुच्छेद 370 के संकल्प पर अपनी बात रख रहे थे तो दून में रहने वाले कश्मीरी शरणार्थियों की निगाहें टीवी पर ही टिकी हुई थी। पुरानी पीढ़ी के वो लोग जो अपनी जमीनें खोकर दून आ बसे उनकी आंखें भीगी हुई थी, तो वो पीढ़ी, जिनकी पैदाइश दून में ही हुई उनकी आंखों में खास चमक दिख रही थी।
वाडिया इंस्टीट्यूट में वैज्ञानिक डा.सुनील पारछा खुद भी कश्मीरी विस्थापित हैं। वह बताते हैं कि, दून में कश्मीरी पंडितों के करीब ढाई सौ परिवार हैं, जो 1990 के दौर में अपना सब कुछ छोड़ छाड़कर कश्मीर से बेदखल होने को मजबूर हुए। इन विस्थापितों को लगता है कि, पूर्ववर्ती सरकार मजबूत इच्छाशक्ति दिखाती तो अनुच्छेद 370 को हटाने का फैसला पहले ही हो जाता। लाखों कश्मीरियों को भी कश्मीर नहीं छोड़ना पड़ता। पिछले तीस सालों में सरकारों ने उनकी सुध नहीं ली। मानवाधिकारों की बात करने वाले भी खामोश रहे। अब जब केन्द्र सरकार ने संसद में कश्मीर को लेकर चार संकल्प रखे तो घर वापसी की उनकी उम्मीदें फिर से जिंदा हुई हैं। कहते हैं कि वो वापस जाना चाहते हैं चूंकि, उनकी जड़ तो वहीं है, आज भी उन्हें पहलगाम, कुपवाड़ा, गुलमर्ग, बडगाम, राजौरी, पुंछ के सपने आते हैं।
अनुच्छेद 370 से विस्थापितों के बच्चे कश्मीर के लिए हो गए थे बाहरी।
*देर से ही सही इंसाफ तो मिला।

दून आए कश्मीरी विस्थापितों ने अपनी बात को पुख्ता तरीके से हरेक मंच पर उठाया है। इसके लिए दून में जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र खोला गया। जिसमें आर्टिकल 35 ए और अनुच्छेद 370 की वजह से सामने आ रही परेशानियों पर व्याख्यान दिए गए। तमाम चर्चाएं हुई। विस्थापित होकर दून आने के बाद नई पीढ़ी को जन्म प्रमाण पत्र तो मिले, लेकिन साथ ही वो जेएंडके में तमाम तरह के अधिकारों से वंचित हो गई। यानि कश्मीरी विस्थापितों के बच्चे ही कश्मीर के लिए बाहरी हो गए। किसी विस्थापित के परिवार में जो भी शादी हुई वो कश्मीर में मौजूद सम्पत्ति के अधिकार के दायरे से बाहर हो गया। जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र, उत्तराखंड के प्रांत संयोजक बलदेव पाराशर के मुताबिक, केन्द्र सरकार ने एक बेहद बोल्ड निर्णय लिया है। जिसे लेने से पूर्ववर्ती सरकारें डरती रही।
आज हमारी होली भी, दिवाली भी
आज नेता पूछते हैं कि कश्मीर में क्या हो रहा है। उस समय किसी ने क्यों पूछा कि कश्मीरी पंडितों को रातों रात क्यों कश्मीर छोड़ना पड़ा। आज चिदम्बरम, गुलाम नबी आजाद पूछ रहे कि कश्मीर के नेताओं को नजरबंद क्यों किया जा रहा है। डा.सुनील पारछा का सवाल है, वो लोग तब क्यों खामोश थे।
केके रैना को 1970 का वो मंजर भी याद है जब वहां के अलगाववादी नेता गिलानी कहने लगे थे कि अपना सबकुछ बेचो और हथियार रख लो, ये वहां का माहौल बताने के लिए काफी है। आखिर वो किसके लिए हथियार जमा करने की बात कर रहे थे।आज का दिन हमारे लिए होली भी है तो दीवाली भी। हमारा 30 साल का वनवास खत्म होने को है। कश्मीरी विस्थापित रवि सुम्बाली अनुच्छेद 370 पर सरकार के संकल्प से इतना खुश हुए कि, किसी काम से विकासनगर गए होने के बावजूद वहीं मिठाई बांटने लगे। बोले, तीन चार दिन से पूरे घटनाक्रम पर नजर थी। अब जाकर सुकुन मिल रहा है। कुलदीप कौल को भी सुनिए, इतने सालों से विस्थापितों की आवाज दबाई जाती रही। ये कश्मीर मुद्दे को कभी हल न होने देने का बड़ा खेल चल रहा था। जिनकी राजनीति बंद हुई है अब वही ज्यादा छाती पीट रहे हैं। हां, इस देश में कई ऐसे भी लोग हैं जो ये तय नहीं कर पा रहे कि ये सही हुआ या गलत।