कभी हैजा को प्रवेश नहीं करने दिया धारकोट की बालकुंवारी ने!

कभी हैजा को प्रवेश नहीं करने दिया धारकोट की बालकुंवारी ने!

(मनोज इष्टवाल)
किंवदंतियों में हम माँ ताई या गाँव की दादी इत्यादि से जब दंतकथाओं में माँ बालकुंवारी की पृष्ठभूमि की बातें सुनते थे तब एक बात हर समय दिलो-दिमाग पर जब भी उभरती थी डर के मारे बदन में सिहरन दौड़ पड़ती थी! शिल्पकार तोक के सुबागी ब्वाड़ा के साथ जब भी हम गाय  चुगाने जंगल जाया करते थे तब वे अक्सर कहा करते थे कि “ब्यटा तुम्हरी कुलदेवी बालकुंवारी कि ये गौं पर भारी कृपा छ, वींन हैजा कभी गौंs का भित्तर नि घुसण दे!” भुम्याल भैरों राती धाद लगांदु छयो- हे गौं का गाई अर माइयों, टक लगैकी सूणा! हैजा अपणी कुटरी ल्येकी पिनापिनी भट्टी रस्ता लगीं चा” बस इतगा सूणीकि माँ बालकुंवारी बिल्ल कैरिकी उठी जांदी छई अर पूरा गौंकि सरहद म वींकी किलक्वरी सुनैदी छई! व भारे शत कि इनी देवी चा जैन अपणा गौं म कना-कना अकाळ आण पर भी न क्वी मुनि दे न हैजा हि यख घुसी साकी जबकि कैs गौं म हैजा का प्रकोप से लमडिसाण लग्युं रैss…!( “बेटा आपकी कुलदेवी बालकुंवारी की इस गाँव पर बड़ी कृपा रही है, उसने हैजा को कभी गाँव के भीतर नहीं घुसने दिया!” भुम्याल भैरों रात आवाज देता था कि हे गाँव की गाय और माँओं ध्यान से सुनो ! हैजा अपनी पोटली लेकर पिनापिनी (गाँव की सरहद का नाम) के रास्ते आ रही है” बीएस इतना सुन ने के बाद माँ बालकुंवारी क्रोध से भरकर उठ जाती थी और पूरे गाँव की सरहद में उसकी किलकारियां गूंजने लगती थी! वह शत की ऐसी देवी है जिसने अपने गाँव में बड़े बड़े अकाल आने पर भी किसी को मरने नहीं दिया और न ही हैजा ही कभी यहाँ घुस सकी जबकि कई गाँव में हैजा के प्रकोप से कई लोगों की मौते हुई…!)

ऐसी ही कई दंतकथाएं बचपन में हमारे इर्द गिर्द घूमती हुई कभी माँ, कभी ताई कभी गाँव की कोई दादी माँ अक्सर सुनाया करती थी! वे वास्तव में हम से कई गुना बेहतर स्टोरी टेलर होती थी क्योंकि उनके खजाने की कहानियों में जीवन की सच्चाइयों के साथ कुछ ऐसे आदर्शों की सीमाबंदी होती थी जो जीवन के चक्र से लड़ने के लिए हर हमेशा तैयार रहती थी चाहे कोई भी मुसीबत आ जाय! उन कहानियों में एक ऐसा डर वाला भूत भी मनोमस्तिष्क में समाया होता था जो चोरी करने से भी डराता रहता था! हमारी पीढ़ी भाग्यवान है कि हमने वो आदर्श देखे जिनमें ग्रामीण आवोहवा की कहानियां हुआ करती थी लेकिन हम इतने सुस्त निकले कि जिंदगी की भागती दौड़ती पटरी पर हम ये दंतकथाएं अपने आने वाली पीढ़ी के बेटे/बेटियों नाती-पोतों के कानों में नहीं डाल पाए ! ये कसूर हमारा भी है और हमारे टीवी चैनल्स के उन संस्कारों का भी जिनमें सिर्फ कार्टून्स होते हैं ऐसी कथाएं नहीं जो जीवन का सार समझाने में सक्षम हों! आज का युवा जिन्दगी से लड़ना नहीं जान पा रहा है और जल्दी हताश होकर जाने क्यों आत्मह्त्या कर देता है जबकि पूर्व में ऐसे प्रकरण पहाड़ों में कभी सुनाई नहीं देते थे और अगर सुनाई भी दिए तो वे उन बेटियों के हुआ करते थे जिन्हें ससुराल में प्रताड़ना के सिवाय कुछ नहीं मिलता था!

यह वह सत्यता है जिसकी प्रमाणिकता सिर्फ और सिर्फ उस काल की परस्थितियाँ बयाँ करती थी जब संसाधनों की घोर कमी के कारण महामारी (हैजा), या अकाल पडा करते थे. ऐसे समय में पहाड़ की दशा और दिशा बेहद दयनीय हो जाया करती थी. गाँव के गाँव अकाल मृत्यु में समा जाया करते थे! ब्रिटिश काल में एक अकाल पर जब हमारी पट्टी से लगी दूसरी पट्टी असवालस्यूं के मिर्चौड़ा गाँव के थोकदार घिंडवा पदान को अंग्रेजों ने पौड़ी तलब किया और उनसे पूछा गया कि आप इस अकाल मेंकिस तरह हमारी सहायता कर सकते हैं ! तब उनका जवाब था कि मैं अपनी पट्टी के 84 गाँव एक साल तक पाल सकता हूँ! आज न ब्रिटिश काल है न घिंडवा पदान ही! लेकिन ऐसे लोग मरने के बाद भी कुछ अमर कर गए तो वह है अपना व अपने गाँव कुल का नाम !
गढ़वाल में कितनी बार महामारी फैली और उस से हैजा ने कितने गाँव लील लिए इस पर आंकड़े जुटाना संभव नहीं है क्योंकि यह हर सदी में त्रासदी बनकर सामने आई है! बहरहाल हम सन 1897, 1802 की दो ऐसी महामारी का जिक्र करते हैं जिसने गढ़वाल की दो तिहाई जनता लील ली थी! राजकाज जर्जर हो गया और इसी दौर में 1803 में गोरखाओं ने गढ़वाल फतह कर 1815 तक यहाँ राज किया जिसके बाद वर्ष 1816 के संगौली संधि के अनुसार गढ़वाल को दो भागों में बांटा गया जिसमें श्रीनगर क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन हो गया।
ग्रामीण बताते हैं कि उस काल में पौड़ी गढ़वाल के पट्टी कफोलस्यूं  स्थित हमारे गाँव का नाम गोदीगाँव था जिसे वर्तमान में हम गोदयूँ कहते हैं! गोदी गाँव में बसने वाले कफोला बिष्ट इस महामारी से त्रस्त ही नहीं हुए बल्कि उनका यहाँ समूल नाश हुआ अर्थात हैजा ने उनकी बसागत ही समाप्त कर दी! जो लोग बचे थे उन्होंने भागकर जंगलों में शरण ली लेकिन इसी दौर में इष्टवाल वंशज नीलमणि इष्टवाल व घिमडवा नेगी ने गाँव की पुनर्स्थापना के लिए गाँव के पंचायती आंगन में चौडयूँ तोक की माँ बालकुंवारी को थरपा ! (कहा जाता है कि ये सब हैजा के डर से गाँव छोड़कर चौड्यूँ डांडा तोक आकर छुपे थे यहीं नीलमणि इष्टवाल/घिमडवा नेगी को माँ बालकुंवारी ने दर्शन दिए व उनकी आकाशवाणी सुनाई दी कि जहाँ वे छुपे हैं यहाँ वह आई हैं व उन्हें ये स्थान पसंद है! मुझे गाँव के पंचायती आंगन में स्थान दो तो मैं गाँव की कुलदेवी कहलाउंगी!/आज भी चौडयूँ में वह देवी स्थान इष्टवाल/नेगी वंशजो द्वारा दिया गया बताया जाता है) साथ ही भूमि के भुम्याल को गढ़ कंडारा (बाळी-कंडारस्यूं  से कनफड़ा शौक्या गुसाईं राजाज्ञा से गाँव बसाने के लिए यहाँ भेजे गए! कंडारी जाति अपने साथ कालनाथ भैरव लेकर आये ! ऐसी किंवदंतियाँ हैं! माँ ज्वाल्पा उस काल में क्यों कफोला वंशजों से रुष्ट हुई न इसकी कोई दंतकथा है न कोई ऐतिहासिक प्रमाण !
माँ बालकुंवारी की प्राण प्रतिष्ठा के बाद तत्कालीन पदान नीलमणि के नेतृत्व में कंडारी गुसाई, केंद्रवाल नेगी (कफोला जाति के सन्तति हुए) व गोदी गाँव के थपलियाल ही शेष रह गए थे जिन्होंने भैरों की प्राण प्रतिष्ठा की! जबकि पुसोला पदान का पूरा खानदान इसी महामारी में समाप्त हो गया था जो एक आध परिवार बचा भी था वह पुन: अपने गाँव पुसोली लौट गया! गाँव की बसागत तो हुई लेकिन भुतवा गाँव में जैसे ही रात ढलने लगती भूत नाचने शुरू हो जाते! ऐसे में कालनाथ भैरों को यह परेशानी होती कि जो भी अकाल मृत्यु मरे हैं वे इस भूमि के रक्षक ही रहे फिर उन्हें कैसे खदेड़ा जाय! आखिर थक-हार कर सिद्दू गोसाईं की सलाह पर पड़यार बिष्ट को गाँव लाने की बात हुई! कुत्ता पड़यार (बिष्ट) को आखिर एक हिस्सा देकर नीलमणि इष्टवाल ने पनघट (जहाँ स्व. प्यारे लाल जुगराण जी का घर है) के पास व देवी बालकुंवारी के नजदीक बसाया! वहीँ बगल का तोक कंडारी गोसाई का व उसकी बगल से घिमडवा नेगी का जबकि सबसे नीचे इष्टवाल परिवार ! व थपलियाल परिवार का! जिस तरह गाँव की बसागत है ठीक वैसे ही भूमि का बंटवारा भी है! आज भी नेगियों व इष्टवालों के खेत आपस में मिलते हैं!  कुत्ता पड्यार के नाम से भूत थर्र-थर्र कांपने लगे और इस तरह गोदी गाँव (ब्रिटिश काल में बैंगन पुर हुआ ) को सिगौली संधि के बाद गढ़वाल के पहले डिप्टी कमिश्नर जोर्ज विलियम ट्रेल (जीडब्लू ट्रेल)की भूमि प्रबन्धन (लैंड सेटलमेंट 1816 में)  में धारकोट नाम दिया गया! इससे पहले सन 1812 में गोरखाओं द्वारा भी लैंड सेटलमेंट किया गया और उस से पूर्व भी कई बार ऐसा हुआ जिसे मनुस्मृति लैंड सेटलमेंट नाम दिया गया! आपकी जानकारी को बता दें कि ब्रिटिश काल के पहले भूमि प्रबन्धन 1815-16 से लेकर वर्तमान तक 12 बार भूमि प्रबन्धन हुए हैं! राज्य का सबसे महत्वपूर्ण भूमि प्रबंधन 1863-73 माना जाता है जो नवां लैंड सेटलमेंट कहलाया! अंग्रेज अधिकारी जी.के. विकेट ने लैंड सेटलमेंट में तब पहली बार वैज्ञानिक पद्धति इस्तेमाल की थी. साथ ही उन्होंने हर भूमि के पांच वर्गीकरण इसी दौरान लाये जिनमें तलाऊ, उपराऊ अबल, उपराऊ दोयम, इजरान, व कंटील नामक भूमि का वर्गीकरण किया गया! ब्रिटिशकाल का अंतिम लैंड सेटलमेंट जिसे 11वां भूमि बंदोबस्त कहा गया वह अंग्रेज अधिकारी इबटन व गढ़वाली अधिकारी घिल्डियाल   द्वारा 1928 में किया गया! अंतिम 12वां लैंड सेटलमेंट 1960-64 में किया गया! जिसमें डिप्टी कमिश्नर गढ़वाल व कुमाऊं घिल्डियाल ने एक व्यवस्था के तहत 3-1/8 एकड़ तक की जोतों को भू-राजस्व की देनदारी से मुक्त कर दिया! इस दौरान कृषि भूमि नापने के लिए नाली व मुट्ठी पैमाने मापक माने जाते थे! ऐसे में सबसे ज्यादा नुकसान उन भूमिधरों को हुआ जो नौकरियों पर थे व उनकी खेती की व्यवस्था उनके खैकर (खा/कमा और हमें भी दे) देखा करते थे! 12वीं भूमि व्यवस्था में गाँव से उम्मेद सिंह कंडारी चाचा जी में जरीन लेकर भू-प्रबन्धन के लिए जगह जगह गए! इस दौरान इष्टवाल जाति की जमीन का एक बड़ा हिस्सा शैली वंशजों के पास चला गया! क्योंकि तब शैली वंशज ही इष्टवाल जाति का कृषि सम्बन्धी कार्य देखा करते थे!
इसके बाद 1823 में गढ़वाल व कुमाऊं कमिश्नरी एक हुई व ट्रेल कुमाऊँ कमिशन बन नैनीताल चले गए! तत्पचात पदानचरी थपलियालों से गुजरकर कंडारी लोगों के पास चली गयी! नेगी क्यों नहीं पदानचारी के हकदार हुए इसके पीछे तर्क यह है कि वे उस काल में भू-प्रबन्धन का हिस्सा रहे हैं! तत्पश्चात गाँव में पंवार रावत, खाती रावत,  झंगवरिया रावत, दुराल रावत,  कफोला बिष्ट, शैली, ढौंडियाल, जुगराण, असवाल, कोली, आवजी, शाह इत्यादि आकर प्रत्येक काल में बसे जिनका कुछ का ब्यौरा मालुम है व कुछ पर जानकारी जुटानी अवशेष है ! सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि इस गांव में ज्यादातर परिवार घर जवाई के रूप में पनप पाए हैं।जिनमें केन्द्रवाल नेगी चौंदकोट मौन्दाड़ी (जैन्तोलस्यूं) से थोकदार कफोला बिष्ट की पुत्री के कारण, इष्टवाल वंशज पुत्री () होने के कारण जुगराण थापली (कफोलस्यूं) से, कंडारी वंशज पुत्री (सौका फूफू) होने के कारण सिलेथ गांव (कफोलस्यूं) से, ढौंडियाल थपलियाल वंशज पुत्री (कुकरी फूफू) होने के कारण घीड़ी गांव (कफोलस्यूं) से, कफोला नेगी वंशज पुत्री (कल्पू दीदी/बिस्सु भुली) अगरोडा व सिलेथ गांव (कफोलस्यूं) से, कंडारी वँशज पुत्री (शिबदेई दीदी)  खाती गुसाईं जो यहां कर रावत कहलाये खातस्यूँ से, थपलियाल वँशज पुत्री  नगोली (गगवाड़स्यूं)जोशी परिवार से (वर्तमान में धारकोट से थापली व थापली से कहीं अन्यत्र बस गए) यहां आकर बसे। सभी घरजवाई रहे। इसके अलावा पंवार चौंदकोट से, झंगवरिया रावत नौडियालगांव  से, दुराल रावत बूँग गांव से आकर यहाँ बसे। इसके अलावा शैली गांव के कौडू शैली, व थापली गांव से शाह, व आवजी, बाजगी व कोहली जातियों की बसागत इष्टवाल जाति द्वारा यहाँ की गई । जिस कारण भू सम्बन्धी केश कई बर्ष इष्टवाल व कंडारी वंशजों में कालांतर में चलते रहे। वह कैसा समय रहा होगा कि दोनों पक्ष केश की सुनवाई के लिए अदालत में हाजिर तो होते थे लेकिन एक ही जगह सोना खाना दोनों पक्ष साथ साथ रखते थे।
गाँव व्यवस्थित होने पर भी गोरखा राज काज के जुल्मों के कारण ग्रामीण अपने देवी देवताओं की पूजा नहीं कर पाए लेकिन 1816 में पहली भैरव अष्टबलि व बालकुंवारी मेला आयोजित हुआ ! कहते हैं तब माँ बालकुंवारी ने प्रसन्न होकर कहा कि वे अब इस गाँव में कभी हैजा व महामारी नहीं फैलने देंगी! हुआ भी यही उसके बाद कभी किसी महामारी ने धारकोट में घुसने की हिमाकत नहीं की!
आपको बता दें कि श्रीनगर ब्रिटिश गढ़वाल के रूप में वर्ष 1840 तक मुख्यालय बना रहा तत्पश्चात इसे 30 किलोमीटर दूर पौड़ी ले जाया गया। प्रथम विश्व युद्ध  (क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध) 1854-56 में जो रूस और अन्य यूरोपीय देशों के मध्य लड़ा गया उस काल में भी भारत के उत्तरी हिमालयी क्षेत्र में महामारी फैली लेकिन बालकुंवारी देवी के प्रताप से गाँव को कोई नुक्सान नहीं हुआ तत्पश्चात वर्ष 1894 में श्रीनगर को अधिक विभीषिका के सामना करना पड़ा, जब गोहना झील में उफान के कारण भयंकर बाढ़ आई। इस दौर में महामारी ने इतना विकराल रूप धारण किया कि अंग्रेज भी कुछ नहीं कर पाए! हैजा अगर पहले दिन हरिद्वार है तो सातवें दिन बदरीनाथ पहुँच जाती थी! श्रीनगर में कुछ भी नहीं बचा। पौड़ी गढ़वाल पूरा चपेट में रहा लेकिन धारकोट गाँव में आँच तक नहीं आई!
वर्ष 1895 में ए के पो द्वारा निर्मित मास्टर प्लान के अनुसार वर्तमान स्थल पर श्रीनगर का पुनर्स्थापन हुआ। और पुन: सब ब्यवस्थित होने लगा  इसके बाद भी एक काल ऐसा आया जब हमारा बाल्यकाल था और यह सुनाई दिया कि हैजा फलां गाँव तक पहुँच गयी है तब भी लोग डरे सिमटे रहते थे लेकिन हमारे गाँव को वह छू तक नहीं पाई!
आज ग्रामीणों ने मिलकर देवी स्थान को दूसरे स्थान पर प्रतिष्ठाती करने का बीड़ा उठाया है ! उसके पीछे कारण यह भी माना जा सकता है कि देवी जहाँ अवस्थित थी वहां रास्ते का धूल मिट्टी व बर्तन मांजते हुए ऊपरी घरों से आने वाले पानी से देवी माँ का मंदिर अशुद्ध हो रहा है! ग्रामीणों की यह पहल स्वागत योग्य है लेकिन मेरा मानना है कि हम इसे माँ बालकुंवारी के नाम से ही जाने न कि नर भेष में नाचती देवियों के कहने पर इसे अन्य देवी का स्वरूप दे देंवे! जैसे इसे पूर्व में दुर्गा देवी बना दिया गया था जिस से कई बुरे परिणाम भी हम लोगों को भुगतने पड़े! अत: देवियों के आगे हम नगण्य हैं, धन ऐश्वर्य दात्री ये माँ कब हमें कंगाल कर देती है इसका आभास तक नहीं होता!
हमने वह काल भी देखा है जब अंधे ताऊ रणजीत सिंह नेगी पर माँ देवी उतरती थी तब वह मीलों दूर नानसू गाँव नाचते हुए पहुँच जाते थे व वहां से पयासु गाँव की नंदा होकर कब ढाकरिया धार पहुंचकर नहा धोकर लौटते थे पता तक नहीं चलता था. कई बार जब उनका रथ रास्ते में उतर जाता था तब ग्रामीण उन्हें मशालें जलाकर या टोर्च से हाथ पकड़कर घर छोड़ने आते थे! जो व्यक्ति अपनी घर की सीढ़ी नहीं उतर पाता था वह मीलों देवी रथ में सवार होकर जाया करते थे और देवी माँ हर खतरे से ग्रामीणों को आगाह कर देती थी, वहीँ मेरे चाचा बिशम्बर दत्त इष्टवाल पर भी इस देवी माँ की कृपा थी उन पर भी देवी उतरती थी लेकिन कहाँ किसने उन्हें भ्रष्ट किया जिस से उन्हें चमला रोग हुआ और वे अपने अपनी समय में हाथों को ही खुजाते रहे!  ऐसी देवी माँ आज कहाँ अंतर्ध्यान है यह हम सभी नहीं जान पाते! वही हाल भूमि के भुम्याल कालीनाथ भैरव का है जब सामूहिक पूजा होती थी तब वह रीठु चाचा (बचन सिंह नेगी) पर उतरते थे. भयंकर आग के शोलों में प्रवेश करते और उसी के उपर बैठकर नाचते! गर्म लोहे की ताज चाटते लेकिन कभी उन पर आग का असर नहीं हुआ ! आज कहाँ हैं वे भैरव..!
यही भुम्याल कभी हर खतरे से आगाह करते थे लेकिन हम जैसे कुत्सित मानसिकता के नरों ने आकर इन्हें बिल्ली के मल की धूप सुंघाकर इनकी आवाज बंद कर दी! इसके पीछे भी दंतकथा है जिसका बिस्तार पूर्वक वर्णन नहीं कर पाउँगा क्योंकि लेख काफी लंबा हो गया है! माँ बालकुंवारी से संबधित यह सब जानकारियाँ सिर्फ सुनी सुनाई नहीं हैं बल्कि इसमें तर्क सम्मत बातें भी हैं जिन्हें मैंने इशारे से हम जैसे सभी ग्रामीणों को समझाने की कोशिश की है! मेरा अनुरोध है कि मनिदर स्थापना के बाद प्राण प्रतिष्ठा करने से पूर्व इसे पूरे विधि-विधान से हम अन्य स्थान पर थरपें ताकि उसका असर किसी परिवार की सुख शान्ति से जुड़े न कि उसके कुप्रभाव झेलने पड़ें!

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