कफोलस्यूं का स्वर्णिम गाथा-काल और मेरा गॉव धारकोट !
कफोलस्यूं का स्वर्णिम गाथा-काल और मेरा गॉव धारकोट !
(मनोज इष्टवाल)
उत्तर में पैडूलस्युं, दक्षिण में जैन्तोलस्यूं, पूर्व में खातस्यूं व मवालस्यूं पश्चिम में असवालस्यूं, उत्तर पश्चिम में पटवालस्यूं से अपनी सीमाएं बाँटता कफोलस्यूं के पश्चिमी क्षेत्र में खरगढ़ जिसे हिमालयन गजेटियर में अटकिन्सन ने खर नदी पुकारा है, व उत्तर में पैडूलस्यूं से निकलने वाली इडगढ़ तथा पूर्व में पश्चिमी नयार से कटता हुआ यह क्षेत्र लगभग अंडाकार है. जो उत्तर में सर्क्याना गॉव दक्षिण में कोला –सिल्डी गॉव पूर्व में कोलडी सिमतोली और पश्चिम में सिलेथ धारकोट इत्यादि गॉवों से अपनी हदबंदी करता है.
कफोला बिष्ट जाति के अधिपत्य के कारण इसे कफोलस्यूं कहा गया है. इसके कफोला बिष्ट जाति के मूल गॉव कोलडी, भवन्यूं, मरोड़ा, ध्वीली, बूंगा, चिन्ड़ालू, धारकोट, सिलेथ इत्यादि माने जाते रहे हैं। कालांतर में धारकोट जिसे पूर्व में बेंगनपुर कहा जाता रहा है, से बिष्ट जाति लुप्त हो गयी और बिष्टों के गॉव बढ़ते चले गए जिनमे डांग, अगरोड़ा, नौली, तोली इत्यादि प्रमुख हैं।
(पयासु गौ से कफोलस्यूं का उत्तर पूर्व क्षेत्र फोटो- विवेक मलासी)
धारकोट गॉव सीमाबंदी के लिहाज से अपनी वृहद सीमाएं सिलेथ, पाली, नौडियालगॉव व पयासु- बूंगा से बांटता है। कफोलस्यूं में सबसे बड़ी सीमा इसी गॉव की है। इसका नाम धारकोट इसलिए रखा गया क्योंकि इसके चोड्यूँ शीर्ष पर कोट यानि किलानुमा गढ़ था जिसे बिष्टों की पहरेदारी का कोट माना जाता रहा है। यह ऊँची धार में है इसलिए इसे धारकोट नाम दिया गया। 1897 के भूकम्प में यह पूरी तरह तबाह हो गया था जबकि बूंगा का मतलब भी गढ़ या किले से होता है और यहाँ भी बिष्ट बूंगा का एक किला गुंडरु की छानी नामक स्थान पर था जो बाद में भुतवा हो गया और गॉव खिसककर नीचे बस गया। सिलेथ की सरहद और ध्वीली पयासु की सरहद के शीर्ष पर दैड-का-डांडा है जो एड़ी आन्छरी का स्थल माना जाता रहा है। वहीँ जाख और थापली की सरहद के शीर्ष में जाखडाली मशहूर है जिस पर पत्थर मारने से खून जैसा द्रव्य निकलता है। यह पेड़ मसूरी की उतुंग शिखरों से दूरबीन से देखा जा सकता है। नानसू गॉव के शीर्ष में माँ बालकुंवारी का मंदिर है जिसमें कभी बहुत बड़ा मेला लगता था और यहाँ से पूरा असवालस्यूं आधा चौन्दकोट व सतपुली तक का बिहंगम दृश्य देखा जा सकता है। कोला-अनेथ की सरहद पर पश्चिमी नयार किनारे बिष्ट जाति की कुलदेवी ज्वाल्पा है, जहाँ पूर्व में ब्रिटिश गढ़वाल का सबसे बड़ा मेला लगता था यह देवी थपलियाल जाति की ध्याण व बिष्ट जाति की बहु मानी जाती है, जिसके पुजारी अणथ्वाल जाति के पंडित हैं।
यूँ तो मेले कफोलस्यूं के नौडियालगॉव-जाखाली, धारकोट-चोड्यूँ, सिलेथ, केबर्स-पाली, इत्यादि में भी लगते थे जो अब सब सिमट चुके हैं। बाल्यकाल में मैंने जाखाली, नानसू, केबर्स व अपने गॉव धारकोट चौड्यूँ के कई मेले देखे हैं। वर्तमान में पयासु गॉव के मलासी जाति के लोग अपनी नंदा देवी की पूजा करते आ रहे हैं जोकि दो तीन बर्षों से नियमित है और यह भी मेले के रूप में ही है। बर्षों पूर्व तोली गॉव ने भी नंदा की पूजा मेले के रूप में की थी लेकिन उसे वे लगातार रख नहीं पाए। वहीँ नौली के ऊपर बून्खाल की कालिंका का मंदिर बना है उसमें भी दो तीन बार कालिंका का मेला लगा है। अगरोड़ा बाजार का किसान मेला व रामलीला बेहद लोक प्रचलित थी लेकिन वर्तमान में ये सब गम हो गए हैं। भौतिकवाद ने जहाँ ये थाल मेले कौथीग समाप्त किये हैं वहीँ अपनत्व का चरम भी समाप्त हुआ है। भले ही तब शिक्षित समाज कम था और उस समाज में मेलों में आपसी अहम टकराया करते थे जिससे कई बार लड़ाई की नौबत आ जाया करती थी या हो जाती थी।
आज शिक्षा ने यह दूरी समाप्त कर दी है। राजपूताना अहम और बल तब एक जूनून और जोश होता था। हमारे गॉव के रणजीत नेगी ताऊ जी जोकि आँखों से अंधे हो गए थे पर जब हमारी कुलदेवी बालकुंवारी उतरती थी तो वे नाचते हुए मीलों दौड़ जाया करते थे। उसी समय चौड़यूँ तो उसी समय नानसूधार. जब उनका रथ समाप्त हो जाता था तब उन्हें गॉव के लोग मशालें जलाकर ढूंढकर लाते थे। ऐसे ही जमकंडी गॉव के पधान पीताम्बर दत्त नौडियाल ताऊ जी पर जब नागराजा आता था तब साक्षात नाग उनके सम्मुख आ जाता था। रीठु (बचन सिंह नेगी) चाचा जी पर जब कालभैरव नाचता था तब वे धधकती आग के बीच बैठ जाया करते थे एवं सुर्ख लाल ताज चाटा करते थे जो अंगारों में गर्म होती थी। चित्रमणि शैली दादा जी पर जब भीम अवतरित होता था तो वे पूरा कांटेदार सुराई का पेड़ खा जाया करते थे। आनंद सिंह कंडारी चाचा पर जब हनुमान उतरता था तब वे साबुत पेड़ जड़ से उखाड़ दिया करते थे।
रीठु काका भी जब पंडौ की रिन्गौण लेते थे तो कई ढेले मिटटी सिर्फ पर फोड़कर उन्हें खाते थे। जलेबी की भरी परात व बड़े सा बड़ा तरबूज उनका आहार होता था जबकि उनका शरीर बेहद दरमियाना था। ऐसे कई किस्से आज जो कपोल-कल्पनाएँ सी लगती हैं ये मेरे जीवन काल में घटित हैं और शायद इन्हें मेरी उम्र का कोई नकार भी नहीं सकता।आज न वह भीम नाचता दिखाई देता है न वह नाग देवता ही और न वह देवी व हनुमान, पांडव इत्यादि। जिस से यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि हमारी देवतुल्य आत्माएं वर्तमान परिवेश में इतनी क्षीण व अपवित्र हो गयी हैं कि उनमें देवता का वास होना अब मुश्किल है।
धारकोट गॉव के लठमार कई पट्टियों में प्रसिद्ध थे जब भी वे किसी थात कौथीग या मेले में जाते तो उनकी सामूहिक शक्ति देखकर अन्य गॉव के लोग उनका रास्ता रोकने की हिम्मत नहीं करते थे एक बार नानसू गॉव के दलबीर सिंह नेगी (पधान जी) ने खैरालिंग (मुंडनेश्वर) में ध्वजा बागी (भैंसा) चढाने का प्रण कर लिया। गॉव से सहयोग न पाकर वे हमारे घर आये और हमारे ताऊ जी (आदित्यराम)से अपनी बात रखी।
इस बेहद जटिल कार्य को कैसे पूरा किया जाय यह सोचनीय बिषय था क्योंकि कफोलस्यूं से असवालस्यूं की सरहद लांघनी वो भी विजय पताका के साथ बहुत जटिल कार्य था। आखिर ताऊ जी ने हामी भरी और नानसू के दलजीत पधान की ऊँची ध्वजा लेकर चल पड़े, उनके साथ पूरा गॉव हो गया। असवालस्यूं के थोकदार इस बात से आश्चर्यचकित रह गए कि कोई भला कैसे यह दुस्साहस कर सकता है। उनमे कईयों को गुस्सा भी आया। आखिर असवाल थोकदारों व सूला गॉव के नेगियों ने सामंजस्य बिठाया और उन्होंने ध्वज चढाने व बागी परिक्रमा की इजाजत दे दी क्योंकि तब यह सन्देश गया था कि अब ध्वज-पताका आ गयी है तो किसी भी सूरत में यह खैरालिंग में चढ़ेगी। यह सामंजस्य व समझदारी कफोलस्यूं व असवालस्यूं के आपसी रिश्तों के लिए बाद में बेहद शुकून दायक हुई और बर्षों बाद फिर ऐसा मौक़ा आया कि मेरे भाई साहब योगम्बर प्रसाद इष्टवाल थैर गॉव में पके एक भेली के प्रसाद को इस शर्त पर अकेले खा गए कि वे अकेले ही उनकी ध्वजा लेकर खैरालिंग तक जायेंगे। ध्वजा लगभग 100 से 150 मीटर लम्भी हुआ करती थी।कच्चे बांस की ध्वजा संभालना भी अपने आप में विकट कार्य है। जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया।
कफोलस्यूं का धारकोट ग्राम जहाँ ऐतिहासिक समृद्धियों का गढ़ रहा है वहीँ यहाँ नागराजा देवता का प्रभाव भी रहा है जो हमारा कुलदेवता भी है। यहाँ नागराजा के बारे में किन्वद्तियाँ हैं कि सेम मुखेम से जब नागराजा इस क्षेत्र में भ्रमण पर आये तब उन्हें सिल्सू गॉव के शीर्ष में अपना स्थान ढूँढा वहां से नागराजा पौड़ी नागदेव बसे तब भ्रमण करते हुए जब वे कफोलस्यूं के धारकोट गॉव साधूभेष में पहुंचे व उन्होंने बिष्ट थोकदार से अपने लिए जगह मांगी तब बिष्ट थोकदार ने जगह देने से मना कर दिया तब वे पुसोला पधान के पास गये उन्होंने भी आश्रय नहीं दिया। तब नागराजा ने उन्हें श्राप दिया कि आप इस गॉव की भूमि से खुद ही बेदखल हो जाओगे आपका यहाँ नाम लेने वाला कोई नहीं होगा। हुआ भी वही आज दोनों ही जातियां गॉव में नहीं हैं। बिष्ट जाति के संजय बिष्ट अपनी माँ की थाती-माटी में भले ही रह रहे हैं लेकिन वह जगह उनके नाना दर्शन सिंह नेगी की है।
मेरे पूर्वजों से मिली जानकारी के अनुसार तब हमारी रिश्तेदारी पुसोला जाति के ब्राह्मणों से थी जोकि हमारे मवालस्यूं से ही यहाँ आकर बसे थे। हम मवालस्यूं इसोटी के पधान परिवार से थे और उस काल में पधान –पधान में ही जातिगत शादी विवाह होते थे। हमारे पूर्वज सम्पन्न थे व उन्हें ब्रिटिश काल से पूर्व ही 9 चट्टी की जागीर मिली हुई थी जो बदरीनाथ मार्ग पर पड़ती थी, या फिर ढाकर वाले रास्ते पर जहाँ से पूरे गढ़वाल को खाद रसद पहुँचती थी। हमारे परदारा के दादा नीलमणि इष्टवाल ने तब यहाँ पुसोला ब्राह्मणों से बहुत बड़ी जागीर खरीद ली थी। उन्हें साधूभेष में नागराजा ने फिर अपने लिए जगह मांगी। उन्होंने छूटते ही कहा जहाँ आपको उचित लगे देख लीजिये। तब नागराजा नागर्जा धार में अवतरित हुए और वहीँ आज उनका मंदिर भी है। कालान्तर में काल गति के साथ-साथ वक्त परिस्तिथियाँ बदलती गई। नैत्रमणि इष्टवाल के बाद पधानचारी थपलियाल लोगों के पास गयी तदोपरांत कंडारी अंतिम पधान हुए जो में अल्मोड़ा राजस्व जमा करने पहुंचे। 1890 के दस्तावेजों में हमारे पूर्वज नैत्रमणि इष्टवाल ग्राम सभा धारकोट के पधान हुए।
कफोला बिष्ट के कफोलस्यूं की बसागत ब्रिटिश काल में सन 1964-65 की जोत बही के हिसाब से आंकी जा सकती है, क्योंकि तब सर्क्याना गॉव के सकलानी पटवारी द्वारा यहाँ की जोत बही तैयार की गयी थी और सिमतोली गॉव का आधा हिस्सा खातस्यूं में सम्मिलित हुआ। सन 1964-65 में खातस्यूं व कफोलस्यूं का एक ही पटवारी होता था जो सर्क्याना गॉव में निवास करता था सरकारी आंकड़ों के हिसाब से अटकिन्सन व थपलियाल ने हिमालयन गजेटियर में इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि तब दोनों पट्टियों की कुल आबादी 3,844 थी जिनसे भू-राजस्व सदावर्त के तौर पर 1578 रूपये व गूंथ राजस्व का 110 रूप्या वसूल किया गया। तब एक मात्र स्कूल इस क्षेत्र में थापली गॉव (1909) में थी जो चौथी कक्षा तक संचालित होती थी उस से आगे की पढ़ाई के लिए कांसखेत जाना पड़ता था।
मनोज भाई लगे रहो हमें भी आपसे बहुत कुछ सीख्ने के लिये मिल रहा है चलो चलो कलम की धार यों ही पैनी होती रहे आपकी और आपका social मीडिया भी
आभार मित्र!
Thank you sir for enlightening us with Uttarakhand’s rich history!! Pls share other mystical stories as to why rupin and supin waters are not used!!
जरुर डॉ. पूजा अगली स्टोरी उसी पर केन्द्रित होगी जो त्रिशंकु ऋषि की आँखों से बहती दो धाराएं बताई जाति हैं.
In the case of area I’m not agree with you as larger area(boundary) comes under village Sileth. So please review once if I’m not wrong. Regards
Not agreed. I knows your boundry line from Kadaikhal to kirksain mahadev and from daida danda to khargdh. its one side part of our vilaage boundry because we have 3 km. long and around 10 km. depth of our village. so that as i guess that you have one and half km. long area from bhekhalya to kadaikhal and around 4 to 5 km. depth.
बहुत बहुत धन्यवाद।। हमथें हमरा गौं का बारा मा इतका सुन्दर जानकारी दीणा वास्ता ।।।।????