कई गाँवों की प्यास बुझाता है मोइला टॉप का यह भेडाल ताल!

कई गाँवों की प्यास बुझाता है मोइला टॉप का यह भेडाल ताल!

(मनोज इष्टवाल)
(24-07-2017)

दिखने में मुश्किल से 20 से 30 मीटर का यह ताल जोकि लगभग 2 किमी. फैले बुधेर गुफा व मोइला टॉप के लगभग बीचों बीच केन्द्रित है.जौनसार बावर के लोहखंडी से 3.50 किमी. दूरी पर बुधेर वन बिश्राम गृह तक आप अपने निजी वाहन से पहुंचकर देवदार के घने जंगल को पार कर जब 2.50 किमी. दूरी पैदल पार कर जब आप इस बुग्याल में पहुँचते हैं तो दूर दूर तक फैली मखमली बुग्याल ऐसे लगती है जैसे बाँहें फैलाकर कह रही हो. आ मेरे आगोश में समा जा जाने कितने दिनों से तेरा ही आने का इन्तजार कर रही थी मैं!
यूँ तो बुधेर गुफा और मोइला टॉप तक का मैं दो बार पूर्व में भी भ्रमण कर चुका हूँ. पहली बार मेरे साथ देहरादून डिस्कवर के सम्पादक दिनेश कंडवाल, शंखनाद के सम्पादक शिब प्रसाद सती व समाजसेवी सुमन डोभाल थी. दुबारा जब आये तब दिल्ली दूरदर्शन के डिप्टी डायरेक्टर प्रोग्राम मणिकांत ठाकुर, लोकसभा के सुभाष त्रेहान व पलायन एक चिंतन के प्रेणता रतन सिंह असवाल थे. जबकि इस बार जी न्यूज़ के खोजी पत्रकार संदीप गुसाईं व कैमरामैन गोबिंद सिंह हैं.

विगत बार मैंने सिर्फ बुधेर गुफा, मोइला टॉप व परियों के तिलिस्म से घिरे इस क्षेत्र पर अपनी खोजबीन की थी लेकिन इस बार उस उपेक्षित ताल पर नजर पड़ी जिसे ग्रामीणों ने या फिर बन विभाग ने कभी कोई तबज्जो नहीं दी. यह ताल दिखने का जितना छोटा है उतनी ही इसकी खूबियाँ हैं. इसे मैंने ही भेडाल ताल का नाम दिया है उसका कारण यह है कि यहाँ गर्मियों में हजारों की संख्यां में भेड़ बकरियां चुगने के लिए आती है व यहाँ इन्हें चुगाने वाले भेडालों के डेरे होते हैं. एक मात्र इसी तालाब से जहाँ भेड़ बकरियां अपनी प्यास बुझाते हैं वहीँ स्रोतों से निकलकर यही पानी भेडालों की दिनचर्या का आम हिस्सा है.

बर्षा ऋतु में इस बुग्याल में दर्जनों गाँव के गाय/ बैल घोड़े खच्चर आते हैं और इन्हीं बुग्यालों में निश्चिन्त होकर अपनी दिनचर्या में बुग्यालों की कीमती पौष्टिक दूब चुगकर तथा रात को खुले आसमान में रात्री जुगारी में गुजारते हैं. लेकिन उपेक्षित इस ताल पर कभी भी किसी पर्यटक या अधिकारी की नजर नहीं गयी. जबकि इसी ताल ने खत कांड़ोई व खत मसक के एक ऐसे अघोषित स्वाभिमान का इतिहास लिख डाला जिसकी हारुल में आज भी कांड़ोई का सितलू जीवित है.
ज्ञात हो कि भेड़ बकरी पालन हमेशा ही जौनसार बावर की आअर्थिकि का मजबूत स्तम्भ रहा है ऐसे में सितलू की हारुल भी उसी से जुडी एक गाथा है. चूंकि मोइला बुग्याल रजाणु गाँव की सरहद का हिस्सा है अत: पूर्व में इस वुग्याल पर रजाणु के लोग कोदो (मंडूवे) की खेती किया करते थे. कहते हैं कि कांड़ोई के सितलू की भेड़ें यहाँ सारा मंडुवा चुग गयी जिस पर रजाणु के व्यक्ति ने आपति दर्ज की लेकिन सितलू नहीं माना अंत में यह घटना युद्ध में बदल गयी और सितलू नामक भेडाल ने रजाणु के व्यक्ति की अपने डांगरे गर्दन काट दी और यह उन्माद इतना बढ़ा कि बाद में मसक खत्त के लोगों ने कांडोई जाकर सितलू के साथ कई और लोगों की गर्दन काट डाली बदले में फिर यही कांडोई के लोगों ने की.

अतीत का काला अध्याय भले ही पूर्व में वीरता से जोड़कर देखा जाता रहा हो लेकिन सभ्य समाज के लोग अब काफी कुछ सीख गए हैं. रजाणु केमहावीर शर्मा बताते हैं कि अब इस थात (बुग्याल) में रजाणु, मसक, संताड, हरताड, बिन्सोन, गोर्छा, कुनवा, पिंगवा, ठारठा, कांड़ोई इत्यादि के सभी जानवर आते हैं. बरसात में ज्यादातर गाँव के लोग अपने पालतू जानवरों को यहीं छोड़ जाते हैं ताकि वे यहाँ की पौष्टिक घास के साथ हृष्ट पुष्ट हो सकें.
महावीर बताते हैं कि इसी ताल से जिसका कोई नाम नहीं है अधिकतर गाँवों में पानी पहुँचता है व साल भर इसी ताल का जल सबकी प्यास बुझाता है. भेडाल सितलू की हारुल से प्रसिद्ध यह ताल रजानु गाँव की सरहद में पड़ता है लेकिन आजतक इसका कोई नामकरण नहीं था. मैं अपने शोधी स्वभाव के साथ इसे भेदालों की दुनिया से जोड़कर इसका नाम भेडाल ताल दे रहा हूँ. उम्मीद है आप सबको पसंद आएगा. इस बार जी हिन्दुस्तान की यह टीम परियों के तिलिस्म व बुधेर गुफा के आदि न अंत पर संदीप गुसाईं की स्पेशल रिपोर्ट लेकर इस क्षेत्र को हाई लाइट कर रहा है उम्मीद है आप इस जगाहाने को जरुर उत्सुक होंगे.
 

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