और ढोल सहित आकाश में उड़ने लगा सुदूर गाँव हिमनी का कम्मू दास ढोली..!
और ढोल सहित आकाश में उड़ने लगा सुदूर गाँव हिमनी का कम्मू दास ढोली..!
(मनोज इष्टवाल)
प्रसंगवश जब बातें हिमालयी बुग्यालों, चालों, खालों और तालों की होने लगती है तब उनके आस-पास का वह समस्त संसार जीवित हो उठता है जिसके पीछे अदृश्य शक्तिपुंज अपने करतबों से वक्त बेवक्त हर सदी हर काल में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते महसूस होते हैं! आज इत्तेफाक से ऐसे दो प्रसंग आये जिन पर लिखने के लिए आखिरकार कलम विवश हो ही गयी!
पहला प्रसंग कृष्णा कुडियाल जी का था जिन्होंने सन 2005 में अपने दोस्तों के साथ गंगोत्री पहुंचकर जमी हुई बर्फ की नदी व जमें हुए सूर्य कुंड में गिरते पानी की धार का वह बर्फीला पानी देखा ! वह बताते हैं कि तब नैताला से वे व रूडकी आई आईटी के उनके मित्र फौजियों के मना करने के बाद भी आगे बढे और जब गंगोत्री पहुंचे तब वहां की आवोहवा में घुली हवाओं के मध्य कुछ ऐसा अदृश्य संसार था जिसकी हर आहट हम तक पहुँच रही थी! मैंने अपनी बांसुरी निकाली और हमेशा की तरह यहाँ भी देवदारों के नजदीक बांसुरी बजाना शुरू कर दिया ! शायद प्रकृति या उसकी रक्षक एड़ी, आंछरी, परियों को मेरा यूँ उनके लोक की निस्तब्धता को भंग करना अच्छा नहीं लगा और मैं उसके बाद लाइलाज बीमार रहा!
(फाइल फोटो- ज्ञान चंद ढोल वादक जौनसार)
कृष्णा कुडियाल जी का किस्सा बहरहाल हम यहीं छोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें एक अलग तरह की स्टोरी में फोकस करना मेरा मुख्य मकसद है! अब यहाँ से हम पहुँचते हैं घेस के उपर के अगले देश यानि हिमनी गाँव में! विधान सभा सत्र की तैयारियों की शुरुआत हो चुकी थी इसलिए पत्रकारों का पूरा जत्था विधान सभा परिसर में होना लाजिम था! ऐसे में पत्रकार मित्र अर्जुन सिंह बिष्ट से मुलाक़ात हो गयी जिनके गाँव घेस में अभी अभी विद्युत विभाग की कृपा दृष्टि पड़ी और हाल के दिनों में वहां का पहला बल्ब जलाने अपने मुख्यमंत्री व केन्द्रीय मंत्री जा पहुंचे थे! प्रसंगवश चुस्कियों ही चुस्कियों में फिर ऐसा ही प्रसंग आया कि उन्हें हिमनी गाँव के कम्मू दास ढोली याद हो लिए!
ढोली कम्मू दास के पौत्र गोपाल दास की पत्नी इस समय हिमनी गाँव की प्रधान हैं! यानि अभी बमुश्किल 50 बर्ष पूर्व की बात होगी जब कम्मू दास को ढोल सहित आकाश में उड़ते हुए ग्रामीणों ने देखा! वह किसी भंवर में उलझे ढोल बजाते बजाते सबके सामने आकाश में उड़ते उड़ते अंतर्ध्यान हो गए! अर्जुन सिंह बिष्ट बताते हैं कि यह बात गाँव का हर बुजुर्ग आपको बता देगा कि हाँ यह घटना एकदम सत्य है जब उन्हें परियां यूँ अपने साथ उड़ा ले गयी थी!
आपको बता दें कि यह क्षेत्र माँ नंदा की हिमालयी यात्रा मार्ग बेदनी बुग्याल व आली बुग्याल के पार का वह क्षेत्र हैं जहाँ हिमनी, घेस, बलाण व पिनाऊ देश के सबसे सीमान्त गाँव हैं ! और तो और पहले कहावत हुआ करती थी कि घेस के बाद देश नहीं! इसी क्षेत्र का हिमनी गाँव का ढोली कम्मू दास ढोल सागर का प्रकांड विद्वान् माना जाता था! अर्जुन बताते हैं कि इतना होने के बावजूद भी आज से लगभग 50-60 बर्ष पूर्व आर्थिक तंगी झेलता यहाँ का जनमानुष अपनी नांग ढकने के लिए अक्सर भोज-पत्र की छाल व मालू भोज-पत्र के पत्ते पहनकर रहता था! बमुश्किल जब बरसात शुरू होने से पूर्व भेड़-बकरियां गाँव को लौटती थी तब उनके आने के उपलक्ष में त्यौहार जुटते थे! 6 माह बुग्यालों में ही जीवन यापन करने वाले भेड़-बकरी पालकों के लिए तरह तरह के पकवान बनते थे व एड़ी आंछरी परियों के लिए पुवा प्रसाद या रोट बनाया जाता था जिसे कई जगह सेरुआ कहते हैं! ऐसे में भेड़ों का ऊन निकाला जाता था और यह परम्परा थी कि ढोली देवरास बजाएगा तो उसे भी सभी थोड़ी थोड़ी ऊन देंगे ताकि वह उनसे अपने परिवार वालों के लिए कपडे बना सके व सर्दियों में जीवन काट सके! इस बार भी ऐसा ही हुआ और कम्मू दास ढोली बागजी या नवाली बुग्याल में रुकी भेड़ों का ऊन लेने मेले में जा पहुंचा! हिमालयी देवी देवताओं का नाम लेकर जब उसने देवरास लगाया और उसमें खोकर ढोल बजाया तब प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा कि चारों ओर एक साथ कई भंवर नृत्य कर रही हैं ! ढोली भोजपत्र के पत्तों से ढके तन में अपने ढोल में इतना खो गया कि परीलोक के इस भंवर के साथ ही ढोल बजाते बजाते आकाश में अंतर्ध्यान हो गया ! आज भी इन बुग्यालों में किसी बिशेष अवसर पर कम्मू दास ढोली के ढोल की आवाज ग्रामीणों को सुनाई देती है!
अर्जुन सिंह बिष्ट परियों के अस्तित्व को सच्चा मानते हुए कहते हैं कि हमारे क्षेत्र में जब भी कोई दुल्हन की बारात निकलती है तो वह बुग्याली सफर होने के कारण सुर्ख जोड़े में अपने मायके से अपनी ससुराल का सफर कभी तय नहीं करती क्योंकि पुराने लोगों का आज भी मानना है कि ऐसे में हिमालयी क्षेत्र की ये परियां उन्हें किसी न किसी बुग्याल में घेर लेती हैं और दुल्हन को अपने साथ ले जाती हैं! इसलिए हिमनी, घेस, बलाण, मल्ला दानपुर, कपकोट, किलपरा, कुंवारी, झलिया, हंडिया, मिन्सिंग की पहाड़ियों इत्यादि से जब भी कोई बरात निकलती है तब दुल्हन को कभी भी चमकीले कपड़ों में विदा नहीं किया जा वरना हिमालयी भू-भाग के इन बुग्यालों तालों जिनमें बग्जी, नवाली, गौरखाल सहित विभिन्न क्षेत्रों की आंछरी व बाण कुछ भी आप को नुक्सान पहुंचा सकती हैं! गौर खाल के बाणों की आज भी हर तरह के फंक्शन में दुहाई दी जाती है!