एक शिक्षक मिशनरी मेसमौर…!

एक शिक्षक मिशनरी मेसमोर…!
(वरिष्ठ पत्रकार एल मोहन कोठियाल की कलम से)
उत्तराखण्ड में जिन मिशनरी स्कूलों का शिक्षा के प्रसार में अग्रणी योगदान रहा उनमें पौड़ी के मेसमोर स्कूल अब याद नहीं आता है? 1902 में यहां पर मिशन द्वारा हाईस्कूल बनाने से एक क्रान्ति ही पैदा हो गई थी जिससे इससे क्षेत्र के युवाओं के सम्मुख आगे बढ़ने के रास्ते खुलते चले गये और वे समाज के हर क्षेत्र में छा गये।
यहां से निकले छात्रों ने राजनीति, प्रशासनिक, न्यायिक, पुलिस अधिकारी, कुलपति, शिक्षाविद, वैज्ञानिक, डाक्टर, इन्जीनियर, लेखक, कवि, साहित्यकार, अधिवक्ता, पत्रकार, समाजसेवी, कलाकार, अच्छे खिलाड़ी आदि के रूप में क्षेत्र, राज्य व राष्ट्रीय फलक पर स्थान बनाया।
लेकिन उस शिक्षक मिशनरी जिसने इसे हाईस्कूल बनाने का सपना देखा उसको भला कितने याद करते है। अब मेसमोर साहब किसी को याद नहीं आते है और न उनके द्वारा स्थापित स्कूल का अब उतनी चर्चा हो पाती है जो 7 दशकों से अधिक समय गढ़वाल में शिक्षा के केन्द्र में रूप में छाया रहा। आज सरकारीकरण के बाद से दूसरे सरकारी विद्यालयों की भीड़ में कहीं गुम सा हो गया है।

कम्पनी सरकार के आने के बाद मिशनरी का भी प्रवेश हुआ। शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं के नितान्त अभाव को देखते हुये मिशनरी ने इस क्षेत्र अपनी गतिविधियों को बढ़ाया। उन्नीसवीं शती के मध्य तक कुमाऊं के अलमोड़ा में स्कूल खोलने के बाद उसने गढ़वाल का रुख किया। 1839 तक एक तहसील के रूप में गढ़वाल को 1839 में कुमाऊं कमिश्नरी का दूसरा जिला बना दिया गया और 1840 में प्राकृतिक रूप से रमणीय स्थान पौड़ी को इसका मुख्यालय स्थापित कर दिया। तब न यहां पर स्कूल तो दूर सड़कें थीं और न यातायात के कोई साधन न थे।

कुमायूं कमिश्नर हेनरी रैमजे ने अमेरिकी एपिस्कोपल मेथोडिस्ट मिशन को गढ़वाल में भी शैक्षिक गतिविधि चलाने को कहा और नैनीताल चर्च के पादरी थोवर्ण को पौड़ी में मिशनरी बनवाया। थोवर्ण जब पौड़ी आये तो यहां पर उनके सहायक हेनरी मेन्सल तीन बच्चों को लेकर एक स्कूल चला रहे थे। भाषा की समस्या और शिक्षा के बारे में प्रति लोगों में जागरूकता के लिये थोवर्ण ने शिक्षा के महत्व को लेकर अभियान चलाया। स्कूल में एक स्थानीय अध्यापक को नियुक्त किया ताकि भाषा की समस्या बाधक न बनेे। थोवर्ण के प्रयासों से स्कूल में शिक्षा लेने बच्चों की संख्या बढ़ने लगी।

थोवर्ण के बाद हेनरी मैनसल चार साल यहां रहे। शिक्षक मिशनरी जे.एच. मेसमोर 1901 में जब दूसरी बार यहां मिशनरी बन गढवाल आये तो यहीं के हो लिये। गढ़वाल में उनके जीवन की दूसरी पारी 11 सालों तक चली। उनकी पहली चुनौती मिशन के मिडिल स्कूल को हाईस्कूल करना थी। नियमित शिक्षक न होकर भी वे शिक्षक की तरह कक्षायें पढ़ाते व यहां के शैक्षिक व सामाजिक उन्नयन के बारे में सोचते।

त्याग, संकल्प व समर्पण की मूर्ति के कारण उनसे लोग जुड़ते गये और इसका प्रभाव छात्र संख्या पर पड़ा। छात्रो का मानक पूरा होते ही यह मिडिल स्कूल हाईस्कूल में उच्चीकृत हो गया। यह उस समय यह ब्रिटिश गढ़वाल के तकरीबन 14 हजार वर्ग किमी. क्षेत्रफल में अकेला हाईस्कूल था। 11 साल यहां रहने के बाद 18 अक्टूबर, 1911 को उनका पौड़ी में प्राणान्त हुआ। पौड़ी चर्च jo unhone बनाया गया में पहला काम उनके अन्तिम संस्कार की प्रार्थना थी।
1911 में .मेसमोर के निधन से गढ़वाल में मिशन के शिक्षा प्रसार के कार्य को झटका लगा। उपेक्षा के कारण पुराना हाईस्कूल भवन जीर्णशीर्ण हो गया। छत टूटने-फूटने लगी। विज्ञान के उपकरण बेकार होने लगे। दक्ष शिक्षकों का अभाव हो गया। हालत यहां तक आ गई कि 1917 में इसकी दो कक्षाओं को बन्द करना पड़ा जिससे इसकी हाईस्कूल की मान्यता समाप्त कर इसे फिर से मिडिल स्कूल बना दिया गया। परिणामस्वरूप छात्र संख्या घट गई। मेसमोर के निधन के 12 सालों तक इस मिशन स्कूल के दुर्दिन ही बने रहे।
मेसमोर वही मेसमोर थे जिन्होंने लखनऊ में 1862 में एक स्कूल की शुरुआत की थी। यह आज वहां के क्रिश्चियन डिग्री कालेज नाम से प्रसिद्ध है। संयोग यह कि एक ओर यह मेसमोर की मृत्यु शताब्दी साल है वहीं यह क्रिश्चियन डिग्री कालेज की स्थापना का 150वां साल था।
मेसमोर के सपनों को वीक ने जमीन पर उतारा। नार्वे निवासी एच.एच वीक को 1918 में जब पौड़ी में मिशन की जिम्मेवारी सौंपी गई तोे पुराना मिशन स्कूल विद्यालय उजाड़ हो चुका था, छात्र संख्या घट चुकी थी। नाम से वीक परन्तु संकल्प से बेहद मजबूत वीक ने पौड़ी में मेसमोर हाईस्कूल की उस भव्य हाई स्कूल की बुनियाद डाली जिसके लिये कुछ उनको सनकी तक कहा गया।
यद्यपि विद्यालय का नाम मेसमोर के नाम से होने से वीक को कम ही याद किया जाता है लेकिन मेसमोर हाईस्कूल उनके ही कंधे पर खड़ा हुआ। वीक इन्जीनियर न होकर भी इंन्जीनियरिंग कौशल में पारंगत थे। उन्होंने इसके लिये न केवल धन की व्यवस्था की बल्कि स्वयं श्रमदान भी किया। भवन पर प्रयुक्त लकडियों को वे लाने के लिये उन्होंने एक बैलगाड़ी बनाई थी जिस पर वे 15 किमी दूर से से लकड़ी के स्लीपर ढोकर लाते। इस स्कूल के लिये उन्होंने पक्की सड़क न होने पर भी 75 किमी दूर से श्रमिकों के जरिये लोहे के गर्डर पहुंचाये गये। तराशे गये पत्थरों से बनाया गया भवन आज उसी शान से खड़ा है जैसे कि यह बनते समय था।
जब यह भवन पूरा हुआ तो उसकी भव्यता देखकर दंग थे। इस पर कुल 1.80 लाख की लागत आई। योजना में दूसरे भवन व होस्टल भी बनाये गये। इसका आधा खर्च ब्रिटिश सरकार ने उठाया। और अपै्रल 1925 में इस परिसर का उदघाटन सैकड़ोें लोगों की मौजूदगी में जिलाधिकारी, बिशप राॅबिन्सन व श्रीमती राॅबिन्सन की मौजूदगी में कर दिया गया। 15 साल तक वीक को गढ़वाल में ही रहे और कई जगह उन्होंने अपनी सेवायें दी। बांघाट में भी उन्होंने बाद में एक पुल बनाया था। इस काम के लिये ब्रिटिश सरकार ने उनको केसरे हिन्द का खिताब भी दिया।
पौड़ी आज एक छोटे से स्थान से एक नगर में तब्दील हो चुका है। इसके आज पास दर्जनों विद्यालय खुल चुके हैं। विश्वविद्यालय के कैम्पस से लेकर एक सरकारी इन्जीनियरिंग यहां पर है। जिस क्षेत्र में उस समय 1 मात्र हाईस्कूल था वहां पर आज 200 हाईस्कूल हो चुके है। लेकिन मिशनरी ने ऐसे समय यहां पर बगैर धार्मिक विभेद व आर्थिक लाभ की प्रत्याशा में जो ज्ञान का जो दीप जलाया वैसा शायद ही सरकारी स्कूूल कभी कर सकें!
बाकी दास्तान प्रकाशनाधीन पौड़ी सफरनामा पुस्तक में
फोटो- जेएच मेसमोर, कालेज भवन, जुबली चर्च पौड़ी एवं क्रिश्चियन कालेज लखनऊ

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