एक दशक से गाँवों को बंजर होने से बचाने में लगी है ये आयरन लेडी! 8 गाँव का लगाती हैं हल!
(मनोज इष्टवाल)
वो कूली काम कर जैसे-तैसे 10 हजार जमा करती हैं, उनसे एक जोड़ी बैल खरीद लाती है और फिर हल से फाड़ती है उन बंजर खेतों का सीना जिन्हें ग्रामीणों ने बंजर छोड़ दिया था! लोग उसकी गरीबी का मजाक न उडाये इससे पहले ही वह खुद को इस काबिल बना देती हैं कि जो भी कौशल्या नाम सुनता है उसके कार्यकौशल की प्रशंसा किये बगैर नहीं रह पाता!
यह कहानी एक ऐसी गरीब महिला की है , जिसकी डोली बर्षों पूर्व बनगढ़स्यूं विकास खंड कोट, पौड़ी गढवाल से ग्राम कठुड सितोंनस्यूं आई थी! जाने उन आँखों ने तब कितने सपने समेटे होंगे! क्या क्या ख्वाब पाले होंगे लेकिन पति की शराब की लत ऊपर से आर्थिक तंगी ने कौशल्या देवी को मजबूर कर दिया कि वह ऐसा कुछ करे ताकि चार बच्चों की परवरिश हो सके! उसने हर दुःख का सामना हंसते-हंसते किया और एक दिन खबर मिली कि शराब के नशे में पति की गिरकर मौत हो गयी!
श्रीमती कौशल्या देवी रावत अब पत्नी स्व० जयकृत सिंह रावत ग्राम-कठूड़, पट्टी सितोनस्यूं, जिला पौड़ी गढ़वाल हो गई! जिसके भाग्य में तीन बेटियाँ व एक पुत्र के अलावा बचत पूँजी कुछ न थी! गाँव वाले भी ढांडस बंधाने के अलावा क्या कर सकते थे! भला गरीब को कोई उधार दे सकता है वह भी तब जब उसे पता हो कि यह उधार वह चुकता कैसे करेगी!

कौशल्या ने कमर बांधा सड़कों से लेकर गाँव में कूली काम किया व जैसे तैसे 10 हजार की रकम इकठ्ठा की! उसने पति के साथ हल चलाना तो सीख ही लिया था! हल काँधे पर लादा, चूल-बंसुली व बीज उठाया और चल दी खेत जोतने! कौशल्या जानती थी कि सिर्फ अपने खेत आबाद कर देने मात्र से उसका आय का कोई जरिया नहीं बनेगा! उसे गाँव के ऐसे परिवार चिन्हित करने में देर न लगी जिनके खेत तो थे लेकिन उनका घर में कोई ऐसा संसाधन नहीं था कि उन्हें आबाद किया जा सके क्योंकि सब नौकरी पर गाँव से बाहर थे! दिनों-दिन एक के बाद एक की छूटती खेती भी कौशल्या देवी को निराश किये थी! उसने एक एक करके 12 परिवारों को बोला! खेत बंजर मत छोड़ो नहीं तो गाँव बंजर हो जाएगा! जो मर्जी मेरी ध्याड़ी दे देना मैं तुम्हारा हल चलाऊँगी!
एक कहावत है – “अंधे क्या चाहिए? बोले- दो आँखें!” लोगों को घर बैठे आप्शन मिल गया! एक साल दो साल नहीं लगातार कई साल 12 परिवारों के खेत आबाद करने की खबर जब आस-पास के गाँव पहुंची तो सबसे ज्यादा पलायनवादी ब्राह्मण समाज के अन्य गाँवों से भी कौशल्या देवी को उनके खेत पर हल चलाने का ऑफर आने लगा! यह लगता छोटा काम है लेकिन है बेहद कठिन! सिटोंनस्यूं की माटी में हल चलाना मतलब हथेलियों को घायल करने जैसा है क्योंकि यहाँ की चुपड़ी माटी वह भी कुछ बंजर खेत आबाद करने सरल बात नहीं है! कौशल्या देवी ने किसी को निराश नहीं किया क्योंकि उसे भी अपने बच्चों की अच्छी परवरिश करनी थी! उनके दिमाग में एक ही बात चलती कि अगर खेत बंजर हो गये तो गाँव बंजर हो जायेंगे! फिर जन जीवन कैसा होगा?

राज्य पशु कल्याण बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष सरिता नेगी ने जब दूरभाष पर मेरी बात कौशल्या देवी से करवाई तो उन्होंने बताया कि वह नियमित सुबह साढ़े तीन बजे उठ जाती हैं! पांच बजे तक बच्चों के लिए चाय नाश्ता इत्यादि बनाकर वह काँधे में हल उठाये बैलों को लेकर खेत जोतने चली जाती हैं व दोपहर डेढ़ से दो बजे घर लौटती हैं! खाना खाने के बाद बकरियों को चुगाने जाती है! लेकिन आजकल बच्चों की स्कूल की छुट्टी हैं तो वह बकरी चुगाने में मदद कर देते हैं! जब बच्चे बकरी चुगाने निकलते हैं तो वह आधे दिन की ध्याड़ी मजदूरी पर निकल पड़ती हैं! जब खेती का समय नहीं होता तब वह कूली काम करके अपना व अपने बच्चों का गुजर करती हैं!कौशल्या देवी ने बताया कि अभी वह अपने गाँव कठुड में 8 परिवारों का हल चला रही हैं जबकि इसके अलावा ग्राम नवन, सिरकुन, स्यलिंगी, कंडेलगाँव, जमलागाँव व पंचुर गाँव का भी हल लगाती हैं!
यानि कि कौशल्या देवी ने 8 गाँव आबाद कर रखे हैं! है न आश्चर्यजनक बात..! क्या आपका मन नहीं होता इस आयरन लेडी को सलूट करने का! ठेठ ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी यह महिला यकीनन गढवाल की चिपको महिला गौरा देवी, तीलू रौतेली से कमतर नहीं हैं! इस से बड़ा एक और आश्चर्य यह है कि यह महिला कोट विकास खंड के बेहद निकटवर्ती गाँवों का हल लगाती है! लेकिन आजतक किसी जनप्रतिनिधि ने इन्हें कृषि दक्षता पुरस्कार तो रहा दूर कृषि कार्यों हेतु उपकरण भी उपलब्ध नहीं करवाए!

सोशल साईट पर राज्य पशु कल्याण बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष श्रीमती सरिता नेगी की पोस्ट के बाद जब मैंने कौशल्या देवी के बारे में संज्ञान लिया तो पता चला कि कौशल्या देवी अभी उन्हीं के घर किसी वश आई हुई हैं!
श्रीमती सरिता नेगी ने दूरभाष पर कौशल्या देवी सम्बन्धी जानकारी साझा करते हुए कहा कि बच्चों की परवरिश के लिए रात दिन मेहनत ने कौशल्या देवी के बदन का एक हिस्सा सुन्न करना शुरू कर दिया है जिसके लिए वह महीने में तीन हजार रूपये की दवाइयां खाती हैं लेकिन फिर भी आराम नहीं करती! डांटने पर कहती हैं बड़ी बेटी 12वीं में पढ़ रही है उसका रिश्ता कैसे करुँगी! कौशल्या को एक हजार रुपया पेंशन मिलती है जो तीन माह बाद आती है, जो अक्सर उसके घर का तेल पानी का खर्चा चला लेता है लेकिन बच्चों की फीस, कपड़े इत्यादि के लिए तो उसे भागना ही पड़ता है ना! सरिता नेगी कहती हैं कि अगर उन्हें कहा जाय कि हल चलाना छोड़ दे तो वो कहती हैं यह माटी अनमोल है, जिसने छोड़ी वह बंजर तो हुई लेकिन अपने साथ साथ उस खानदान का नाम भी लील गयी जो इसे छोड़कर पलायन कर गया!
श्रीमती सरिता नेगी कहती हैं कि भारत के 48 प्रतिशत कृषि संबंधित रोजगार में औरतें हैं, जबकि करीब 7.5 करोड़ महिलाएं दुग्ध उत्पादन तथा पशुधन व्यवसाय जैसी गतिविधियों में सार्थक भूमिका निभाती हैं। कृषि क्षेत्र में कुल श्रम की 60 से 80 फीसदी तक हिस्सेदारी महिलाओं की है। पहाड़ों में तो पुरूष सरकारी कर्मचारियों को छोड़कर लगभग सारा ही श्रम महिलाओं का पारिश्रमिक है लेकिन उन्हें आज भी पुरुषों से कम मिलता है और यह उनकी दयनीय स्थिति का सबसे बड़ा कारण है। इतने योगदान के बाद भी हम अपनी मातृशक्ति की मेहनत के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं।
कोरोना महामारी के इस मुश्किल समय में भी कौशल्या देवी हल लगाकर अपने दो बच्चों का पालन-पोषण करने के साथ-साथ गाँव में बसे रहने के लोगों के सपने को भी जिंदा रखे हुये है। उनके जीवटता को प्रणाम।
सचमुच इस आयरन लेडी की जीवटता को प्रणाम ही नहीं शत-शत नमन है क्योंकि आजकल कोरोना के दौर में वह उन लोगों का हल जोत रही है जिनके खेत बंजर छूट गए थे! ग्रामीणों का कहना है कि खेत के ढेले इतने सख्त हैं कि कुदाल से नहीं फूट रहे इसलिए वे उन्हें कुल्हाड़ी से फोड़ रहे हैं!
मेरा राज्य सरकार व तमाम उन झंडा बरदारों से आग्रह है कि ऐसी मातृशक्ति के सम्मान में आगे आयें और सच कहूँ तो बिना फाइल बनाए ही ऐसी आयरन लेडी को “तीलू रौतेली” जैसे राज्यीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिए!