उत्तरायणी लखनऊ…! सास बहू के जलवे में फूली फ़्यूलडी। गीत गढ़वाली पोशाक कुमाउनी रंगत आ गयी..!

उत्तरायणी लखनऊ…! सास बहू के जलवे में फूली फ़्यूलडी। गीत गढ़वाली पोशाक कुमाउनी रंगत आ गयी..!
(मनोज इष्टवाल)
प्रवास में अपने गांव घर, आंगन, जंगल, खेत, गीत-नृत्य, गाजे-बाजे और आत्मीयता में मिश्री घोलती वस्त्र सज्जा,गहनों का श्रृंगार…अहा मन की खुद की हूक सचमुच अंतर्मन को अपने डांडी-काँठी के देश ले जाती है। मन छटपटा जाता है उस रश्मि किरण की आह में जो पहाड़ के प्रकृति प्रदत्त श्रृंगारों की स्वर्णिम बेला सी आत्मीयता का रस घोलती कानों में रुणाट और हृदय में ऊंचे झरने से नीची घाटी में गिरती नदी के कलरव की गाज बन उभरती है और अंतर्मन उस अल्हाद में झूम उठता है तन मन के रोवें-रोवें नाचने लगते हैं।

ऐसा ही कुछ पहाड़ों से दूर लखनऊ के गोमती तट पर तब महसूस हुआ जब पर्वतीय महापरिषद द्वारा आयोजित उत्तरायणी 2018 के विशाल मंच पर सास बहुओं के जोड़े “फ़्यूलडिया त्वे देखिकी” गीत की धुन पर थिरके तो पूरा उत्तरायणी पंडाल झूमने लगा।
मुझे हैरत के साथ खुशी इस बात की थी कि गढ़ कुमाऊँ की संस्कृतियों का यह अजब गजब जोड़ था क्योंकि परिधान सारे कुमाउनी और गीत व धुन गढ़वाली। मानो एक दूसरी संस्कृति अपने अपने पकवान एक दूसरे को हंसी खुशी बांटकर स्वाद चखवा रहे हों। यह बहुदा पहले कम ही होता रहा है जब दो संस्कृतियां ऐसा घाल मेल करती रही हों। हां रेडियो में गोपाल बाबू गोस्वामी का हाई तेरी रुमाला जितना कुमाऊँ सुनता व गाता था उतना ही गढ़वाल भी। नरेंद्र सिंह नेगी का चम चमकी घाम के भी वही हाल थे लेकिन सच्चाई यथार्थ में तब भिन्न थी। तब जब उत्तराखण्ड राज्य नहीं था एक रेखा दोनों समाजों को बांटने का काम करती थी जो अदृश्य थी लेकिन आज राज्य निर्माण के बाद गढ़ कुमाऊँ ने जो संस्कृतियों का आदान-प्रदान किया तो रोटी बेटी भी बंटने लगी। लोक समाज एक दूसरे के करीब आया और प्रदेश के जनमानस ने पहाड़ को पहाड़ की तरह जीना सीखा दिया। राग द्वेष भेद भाव सब लापता।
जब मंच पर सास बहुएं एक साथ नृत्य करने के लिए उतरी तब सिर्फ मैं व्यक्तिगत रूप से श्रीमती सुधा चंदोला व उनकी बहू को ही पहचान पाया क्योंकि उनके घर का आतिथ्य पूर्व में ग्रहण कर चुका था। मूर्धन्य साहित्यकार व संस्कृतिकर्मी कौस्तुभानन्द चंदोला जी की अर्धांगनी होने का उन्हें सौभाग्य है।

(श्रीमती सुधा चंदोला व उनकी बहू)
खुशी तब आम से खास होनी स्वाभाविक थी। यह सिर्फ मंच पर नृत्य नहीं बल्कि समाज की उस मानसिकता को मिटाने का भी एक सबब दिखा जिसमें मेरी बेटी! मेरी बहू? की लकीरें विद्यमान होकर सम्बन्धों में कसैलेपन का बिष घोलती हैं।
श्रीमती सुधा चंदोला व उनकी बहू की इन जोड़ी को मैंने मंच पीछे देखा तो वे सास बहू नहीं बल्कि मेरे लिए दो खूबसूरत सहेलियां थी। अब जब मंच पर प्रस्तुति हुई तो कौस्तुभानन्द चंदोला जी आये बोले- इष्टवाल जी, पहचाना अपनी भाभी को! मैं बोला – जी भाई साहब मंच पीछे मिल चुका हूं। बोले- साथ में बहु थी दोनों ही आज आपके गढ़वाली गीत में परफॉर्म कर रही हैं।
उनके चेहरे की खुशी में जो भावनाओं का उन्माद दिखा उसे महसूस करना ही काफी था। यकीन मानिए तो मैं एक बार जरूर हिचकिचाता कि भला बहु और सास एक साथ हजारों लोगों के बीच अपने लोक समाज की सांस्कृतिक प्रस्तुति कैसे दे पाएंगी।
लेकिन जब उनका आपसी तारमतम्य देखा तो दंग रह गया।
मन हुआ कि बहु के मांजी पिताजी होते तो उनसे अवश्य पूछता कि आप माँ बाप हो या फिर श्री व श्रीमती चंदोला !
पूरी उत्तरायणी एक तरफ़ और इस गाने की प्रस्तुति एक तरफ। क्योंकि इसने जहां गढ़-कुमाऊँ की दो संस्कृतियों का मिलान किया वहीं लोक समाज में एक ऐसा उदाहरण पेश किया कि बहु और बेटी अलग नहीं बल्कि सिक्के के दो पहलू हैं।जिन्हें आप लाड़ तो दोनों ही लाड़लियां चाहे मायका हो या ससुराल उस से उतना ही लाड़ करेंगी जितनी उनकी रूह में खुशियों का अंबार है। शायद यही तो हमारा घुघुतिया त्यार है या फिर मकरैणी! जो अंतर्मन में अगाध प्यार की गंगा बहाकर लोक समाज और लोक संस्कृति की अदम्य मिशाल पेश करती है।

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