उत्तराखंड के लिए वरदान साबित हो सकता है हस्त, काष्ट व पाषाण शिल्प! ऊन निर्यात व ऊनि वस्त्रों का उत्पादन दे सकता है बेहतरीन राजस्व!
उत्तराखंड के लिए वरदान साबित हो सकता है हस्त, काष्ट व पाषाण शिल्प! ऊन निर्यात व ऊनि वस्त्रों का उत्पादन दे सकता है बेहतरीन राजस्व!
(मनोज इष्टवाल)
ऋग्वेद की बात करूँ जहाँ गडरियों के देवता पश्म की स्तुति का ब्याख्यान है या फिर समसू देवता के क्षेत्र भेडालों द्वारा भेड़ बकरियों की देवी आँछरियों की स्तुति या फिर महाभारत काल की जिसमें कांबोज (बदख्शाँ और पामीर) के लोगों ने राजसूय यज्ञ के अवसर पर युधिष्टर को सुनहली कढ़ाई के ऊनी वस्त्र (ऊर्ण) भेंट में दिए थे? या लौटकर सदी प्रारम्भ में चांदपुर राजा भानुप्रताप के राजकाज में धारा नगरी के राजा कनकपाल द्वारा संवत 612 ईस्वी काल का वृत्तांत जिसमें बदरीनाथ यात्रा पर आये राजा कनकपाल को शीत से बचने के लिए राजा भानुप्रताप ने ऊनि वस्त्र भेंट किये थे!
ऊनि वस्त्र का काल यूँ तो हजारों साल पुराना है और सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश के प्रत्येक हिमालयी राज्य में ऊनि वस्त्रों का प्रचलन कालान्तर से वर्तमान तक बदस्तूर जारी है! भले ही 18वीं सदी तक पहुँचते पहुँचते सूती वस्त्रों की दखल के कारण ऊनि वस्त्र उद्योग प्रभावित हुआ है लेकिन आज भी अमृतसर, लुधियाना, भदोई, मिर्जापुर, आगरा, वाराणसी, मछलीपट्टनम, बंगलुरु, एन्नौर, श्रीनगर इत्यादि इसके प्रमुख उत्पादन केंद्र हैं! जम्मू कश्मीर देश का एक मात्र ऐसा पहाड़ी राज्य है जहाँ से ऊनि वस्त्र विदेशों में निर्यात होता है!
क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि उत्तराखंड प्रदेश के तीन जनपद जिनमें उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ व चमोली ऊन उत्पादन के बहुत बड़े केंद्र हैं उनका आजतक कोई ट्रेड मार्क नहीं है और न ही वे ऊन उत्पादक जिलों में कहीं गिने ही जाते हैं! इतना मात्र इन 18 वें साल में प्रवेश पर हुआ है कि उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम 2000(अधिनियम संख्या 29 सन 2000) की धारा 87 के प्राविधानों के क्रम में अधिसूचना 3387, 17 अगस्त 2002 के अंतर्गत उत्तराखंड खादी ग्रामोद्योग बोर्ड का गठन हुआ जिसने इन बर्षों में भेड़ बकरी पालकों से ऊन खरीद की और उसे बाजार दिया फिर भी यह बोर्ड यह उपलब्धि दर्ज न कर पाया कि उत्तराखंड भी ऊन उत्पादक प्रदेश है!
इसे केंद्र में प्रदेश के अल्मोड़ा सांसद व केंद्र सरकार के कपड़ा राज्य मंत्री अजय टम्टा भी नाकाफी मानते हैं क्योंकि आज भी भेड़ बकरी पालकों का लगभग 60 प्रतिशत ऊन संसाधनों की कमी के कारण खराब हो जाता है! अब जबकि केंद्र सरकार ने हस्त, काष्ठ व पाषाण शिल्प पर मोनिटरिंग हेतु एक टीम उत्तराखंड सरकार के माध्यम से गठित की है जो प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में हस्तशिल्प, काष्ठ शिल्प, पाषाण शिल्प पर सर्वे करेगी तब कहीं यह अवश्य लगने लगा है कि हो न हो ऊन या ऊनि वस्त्र हथकरघा उद्योग पुन: नए युग की उत्तराखंड से शुरुआत करेगा!
आपको जानकारी दे दें कि ऊन का पांच तरह से वर्गीकरण किया गया है जिसमें महीन ऊन, मध्यम ऊन, लंबा ऊन, वर्णसंकर ऊन और कालीनी ऊन प्रमुख रूप से पाई जाती हैं! हमारे ऊनि वस्त्रों के हथकरघा निर्माता ही नहीं बल्कि भेड़ बकरी पालक भी सर्वाधिक संख्या में उत्तराखंड राज्य के सीमान्त जिले हैं जिनमें पिथौरागढ़, चमोली व उत्तरकाशी प्रमुख हैं! उत्त्रखाशी जिले के बोर्ड गंगा घाटी डुंडा व रवाई घाटी के मोरी क्षेत्र में पूरे प्रदेश की सबसे ज्यादा ऊन खरीद होती है! यहाँ आज भी सबसे अधिक भेड़ बकरी पालक हैं जिनकी आजीविका का सबसे बड़ा स्रोत ही ऊनि वस्त्र निर्माण या ऊन विक्रय या भेड़ बकरी के अन्य स्रोत हैं!
रवाई घाटी के पर्वत क्षेत्र के कई ऐसे गाँव आज भी अपनी आजीविका का सबसे बड़ा संसाधन भेड़ बकरी पालन मानते हैं वहीँ नेहरु माउंटेनिंग इंस्टिट्यूट उत्तरकाशी ने एक अनूठे प्रयोग के तौर पर केदारघाटी (जिला रुद्रप्रयाग) में गोट फार्मिंग को प्रोत्साहित करने का जिम्मा उठाया है जिसमें वे किसी हद तक सफल भी हुए हैं! यही नहीं टिहरी जनपद के पन्तवाड़ी में भी किसी संस्था द्वारा गोट विलेज बनाया गया है जहाँ यह संस्था दावा करती है कि वह यहाँ उन्नत नस्ल की बकरी पालन को बढ़ावा देना चाहती है लेकिन उसके “बकरी स्वयम्बर” फोर्मेट को सरकार ने सिरे से नकार दिया है क्योंकि इस से धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँच रही थी! क्यों न इस फोर्मेट को बदलकर पंतवाडी गोट विलेज की यह संस्था इसे पुरातन नुणाई परम्परा से जोड़कर इसका हर बर्ष नागटिब्बा थात में मेला आयोजित करे व उसी पैटर्न में भेड़ बकरी पालकों को प्रोत्साहित करे!
बकरी पालन में जहाँ टिहरी का जौनपुर क्षेत्र भी अग्रणीय रहा है वहीँ देहरादून जिले का जौनसार बावर क्षेत्र भी प्रमुखता से इस व्यवसाय से जुड़ा हुआ है लेकिन ये भेड़ बकरी पालन का व्यवसाय तेजी से घट रहा है उसके पीछे लोग तर्क यह देते हैं कि सरकार इस व्यवसाय के प्रोत्साहन के लिए कोई बिशेष प्रयास नहीं कर रही है!
आपको बता दें कि भेड़ बकरी पालकों में उत्तरकाशी जनपद में ऐसे कई लामण (गीत) प्रचलित हैं जिन्हें धाडा मारना कहा गया है! धाडा मारने का मतलब है कोई एक दूसरे की हजारों भेड़ बकरियां चुरा ले जाए! ऐसे कतिपय लामण आज भी प्रचलन में हैं जिनमें सर बडियार गाँव के जय चंद की लामण सबसे महत्वपूर्ण है !
उत्तरकाशी जनपद की रवाई घाटी का पर्वत क्षेत्र व आराकोट बंगाण भेड़ बकरी पालकों का स्वर्ग कहा जाता है! यहाँ के भेड़ बकरी पालक क्षेत्र के धनासेठ कहलाते हैं! अकेले जखोल गाँव की अगर बात की जाय तो यहाँ आज भी हजारों भेड़ बकरियां हैं और सैकड़ों ऐसे हथकरघे जिन पर रोज ऊनि वस्त्र काते व बुने जाते हैं! यहाँ की आर्थिकी का यह मुख्य स्रोत में से एक है! गाँव के मालदार गंगा सिंह रावत कहते हैं कि पहले ऐसा कोई परिवार नहीं था जिसकी यहाँ सौ डेढ़ सौ भेड़ बकरियां न रही हों लेकिन अब लोगों का धीरे धीरे रुझान इस ओर कम हो रहा है क्योंकि उन्हें इस क्षेत्र में राज्य सरकार से आशातीत सहायता नहीं मिल पा रही है ! उनका कहना है कि अगर उत्तराखंड सरकार इस क्षेत्र में जल्दी ही कोई सटीक पहल नहीं करती तो यह तय मानिए कि आगामी 10 बर्षों में पर्वत क्षेत्र से भी भेड़ बकरी पालक ऐसे गायब हो जायेगें जैसे राज्य के अन्य जिलों से हुए हैं क्योंकि यहाँ आलू, राजमा व सेब अच्छी फसल दे रहा है इसलिए ग्रामीण इस व्यवसाय से तेजी से विमुख होता चला जा रहा है!
बहरहाल सूत्रों के हवाले से जानकारी मिली है कि केंद्र सरकार अब न सिर्फ ऊनि हस्त शिल्प बल्कि पाषाण व काष्ठ शिल्प को भी बड़ी गंभीरता से ले रही है व उत्तराखंड में इसके सर्वे के लिए केंद्र सरकार द्वारा एकमुश्त धनराशी भी दी गयी है ताकि प्रदेश की इस पुरातन शिल्प को जीवित रखा जाय और इसे कुटीर उद्योग के रूप में पुनर्स्थापित किया जा सके!