उत्तराखंडी लोक संस्कृति का वह अबूझ पहलु जिसमें गालियाँ खाना गर्व समझा जाता है! जिसे नाम से गाली पड़ें वह उस जश्न का हीरो!

उत्तराखंडी लोक संस्कृति का वह अबूझ पहलु जिसमें गालियाँ खाना गर्व समझा जाता है! जिसे नाम से गाली पड़ें वह उस जश्न का हीरो!

(मनोज इष्टवाल)
है न बड़ा अटपटा सा लेकिन बेहद चटपटा बिषय? भला गाली खाकर खुशियाँ कौन मनाता है. भला गाली खाकर गर्व की अनुभूति कैसे होती होगी? भला नाम से गाली पड़ने पर वह उस जश्न का हीरो कैसे हो सकता है!

आईये इन सब प्रश्नों का सीधा सा उत्तर आपको दे दूँ कि ये गालियाँ तब सगुन लगती हैं जब शादी में सालियों के मुंह से दुल्हा पक्ष सुन रहा हो. समधनों के मुंह से दुल्हे पक्ष के पिता, चाचा, ताऊ, दादा, मामा सब सुन रहे हों. लेकिन अब यह सगुन हम सबसे दूर होने लगा है. जिसे हम सभ्यता का एक अनमोल पहलु समझते हैं उस सभ्य समाज में अब शादियाँ सिर्फ और सिर्फ मामूली से रस्म हो गए हैं. रस्म से रिवाज धीरे धीरे गायब होता हुआ सीमान्त क्षेत्रों में सिमट गया है.
कभी दुल्हा या दुल्हन के चार दिनों के विवाह संस्कार के हर पहलु पर मंगल गीत हुआ करते थे. बारात दुल्हन के आँगन में क्या पहुंची कि पंडाल प्रांगण में उपस्थित महिलायें व दुल्हन की सहेलियों की गालियों की बौछार से स्वागत होता होता था. वो गालियाँ कैसी होती थी देखिये-
आड़ काटो बाड़ काटो, काटो शक्करगंद, तै ब्योला की पगड़ी देखो कौणी सी ज़िलगंड!
छि: भैय ब्योला तू पगड़ी नि लै जाणि…छि भैय ब्योला तू दगडया नि लै जाणी!!
(आड़ काटी बाड़ काटी काटी शक्करकंद, इस दुल्हे की पगड़ी देखो काउणी(पहाड़ी अनाज की बाल) सी बेतरतीबी! छि: रे दुल्हे तू पगड़ी नहीं ला पाया, छि: रे दुल्हे तू दोस्त नहीं ला पाया)
यहाँ से शुरुआत क्या हुई कि आकर मामा पर बात पहुँचती थी और गाली शुरू होती थी-
हमरा गॉऊँ लूनै की गारि, ब्योला का मामा नाक उन्दे सीन्पै की धारी! (हमारे गॉव में नमक की ढेली, दुल्हे के मामा की नाक देखो कैसे बहती)
पुटबंदी ऐसी की जिनका शुद्ध व्याकरणीय अर्थ ढूंढना बड़ा मुश्किल हो जाए. फिर दुल्हे के पिता, ताऊ या चाचा इत्यादि लक्ष्य पर केन्द्रित होते थे और गाली होती थी-
हमरा गॉऊँ म खिम्बा का खामा, ब्यौला का बुबा का जूंगा नि जामा,
जामा त जामा, मुछयळओं न ड़ामा!
(हमारे गॉव में खिन्ना (एक प्रकार की लकड़ी) के खम्बे, दुल्हे के पिता की मूंछे नहीं उगी, उगी भी तो उगी उन्हें जलती लकड़ी से साफ़ कर दो)
ऐसे भावार्थ लिखने में वह आनंद नहीं जो आनंद गढ़वाली शब्दों के अपने सार में है. फिर लक्ष्य बनते हैं दुल्हे के युवा दोस्त और बुजुर्ग एक साथ! क्योंकि कटाक्ष लड़कों के साथ उनके पिता,चाचा या बड़े बुजुर्गों पर बहुत बेहतरीन तरीके से किया गया है.
हमने बुलाये टाई सूट वाले तुम कुरता पहन क्यों आये जी,
हमने बुलाये जंटर-मंटर तुम कंटर क्यूँ लाये जी!
हमने बुलाये टोपी वाले तुम गंजे क्यूँ आये जी,
हमने बुलाये हंडसम हंडसम, तुम बूढ़े क्यों लाये जी!!

(ये गाली सचमुच तब नजरें झुका देती थी जब बाप बेटे साथ हों और बेटा टाई सूट में बैठा हो व बाप कुर्ता पाजामा पहने हों. यहाँ पर जंटर-मंटर का मतलब जेंटलमैन से है और कंटर का मतलब खाली कनस्तर से है. यानि बूढ़े व जवान एक साथ टार्गेट किये गए हैं. वहीँ हंडसम हंडसम का अर्थ हैंडसम है!)
यदि नाम पता है तो उसकी समझो लाटरी खुल गयी. अगर गालियाँ आपके नाम से पड़ने लगी तो समझो दोस्तों के बीच ही नहीं सभी के बीच आप इर्ष्या के पात्र बन गए क्योंकि सबको यह लगता है कि यह इतनी दूर तक कैसे पोपुलर है जो यहाँ की युवतियां इसे नाम से गाली दे रही हैं. और यदि नाम नहीं पता तब आपकी बिशेष पहचान से आप उनके लक्ष्य पर होते हैं. शादी की इस रंगत में मैंने अपनी युवावस्था का वह दौर भी देखा जब टाई लगी है और रात को बैठक में काला चस्मा चढ़ाकर बैठे हैं क्योंकि उस से अगर आप आस-पास की सालियों पर नजर भी रखते हैं तो बूढ़े बुजुर्ग की नजरों से बाख जाते हैं लेकिन सालियाँ तो सालियाँ हुई जैसे ही उन्हें लगा तुम उन पर नजर गढ़ाए हो तब गालियाँ अपना हंसी ठिठोली वाला रूप बदलकर कुछ यूँ सुर में शुरू होती थी-
टाई वाले बन्दे अपनी बहन को रखले संगरे, काहे भूल गयो!
चश्मे वाले बन्दे तेरी बहन क्यों न आई संग में, लाना भूल गयो !
अब गालियाँ उस चरम पर होती थी जहाँ माँ बहन चाची सब केंद्र में होती थी जैसे-
आणु क त अय्याँ पौनौ, ब्वे संग क्यो नि लय्याँ,
लाणु कु त लै छा, बाट म धूनारुं न लूटी.
वहीँ जब खाने की तैयारी हो तो गालियाँ कुछ यूँ बदल जाती हैं-
आलू काटे गुडबड गडबड, बैंगन की तरकारी जी
हमरा भयुं न सब्जी बणाई भंगयूँ ना चपकाई जी!!
या फिर –
भात देंद पौनौ करछी लांद दीठ, हमन नि जाणी पौनौ टमोटा को जायो!
मीठेई देंद पौनौ पूडखी लांद दीठ, हमन नि जाणी पौनौ हलवे को जायो.
इस तरह के दुनिया भर की गालियाँ हर रस्म के साथ तुकबंदी में ढलकर जब कानों में गूंजती हैं तब कान बार बार ऐसी गालियों को सुनने से आनंदित होते थे और बीच बीच में दुल्हे पक्ष के चकडैत चतुर मित्र व रिश्तेदार हंसी ठिठोली में कह देते थे कि हे स्याली तू कै दगड छई ब्याली? तो समझो साली जल-भुन कर पलटकर ऐसी गाली देती है कि उसका कोई तोड़ नहीं होता था.
गालियाँ सारी रात मनोरंजन का साधन हुआ करती थी तब न पर्वतीय गॉवों में बिजली हुआ करती थी न रात काटने के कुछ संसाधन! हाँ सर्दियों की रातें काटने का एक ही माध्यम होता था ढ़ोल दमाऊ पर पांडव नृत्य! तब संसाधन कम हुआ करते थे क्योंकि छोटे गॉव में बड़ी बारात हो तो सोने की जगह मिलनी मुश्किल होती थी. ऐसे में जागरण करने के यही तरीके होते थे. जहाँ गालियाँ में सालियों की कैंची सी पैनी जुबान वहीँ दुल्हे के दोस्तों की कटार सी सालियों को घूरती पैनी नजर! और फिर आपस में ठट्ठा मजाक की अतुलनीय हास-ब्यंग्य बाण!
वक्त बदला और समाज ने अपने आवरणों के साथ अपनी लोक परम्पराओं को तिलांजलि देनी शुरू कर दी. अब न वो मंगल गीत गाने वाली बुजुर्ग महिलायें दिखती है न वो सीधी सरल व्यवहारिक सालियाँ! न ही उनके मुंह की अमृतरस भरी गालियाँ! पंडितों के मंत्रोचारण व आवजी गुनिजन के ढ़ोल के बोल भी सिमट गए हैं. डीजे संस्कृति में विकृत मानसिकता के अलावा अब ग्रामीण आँचल ने भी शहरों की बराबरी करने में उस लोक समाज को भुलाने की हर संभव चेष्टा कर ली है जिसका सांस्कृतिक स्वरुप हिमालय सा बिशाल है. सिर्फ यह अब सीमान्त क्षेत्रों की परम्पराओं में सम्मिलित रह गया है. जो वहां भी तेजी से मिटने के कगार पर है. इसका विजुअल दस्तावेज तैयार करना होगा ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए हमारा लोक समाज जीवित रह पाए!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *