ईड़ा क्वाठा की वह रात, थोकदार हरिओम और वे रात्री के घुड़सवार..!
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 12 अक्तूबर 1995)
विगत अंक का अंतिम …ग्वली गाँव की समैणा…!
(घर पहुँचते-पहुँचते हमारी हालात ऐसे थी कि काटो तो खून नहीं! लेकिन यह क्या हमारी नकधार गाँव वाली भाभी बोली- आ गए मौत के मुंह से बचकर! और हमें पूरा किस्सा जो हुआ वह सुना दिया! बोली- मैं सब देख रही थी और यही कारण भी था कि वह तुम तक नहीं पहुँच पाया! हाँ बीडी दे देता तो शायद तू बंदूक नीचे छोड़ देता! ध्यानी जी बोले- इष्टवाल जी! वो दिन और आज का दिन! शिकार तो दूर मैंने बन्दूक तक को हाथ नहीं लगाया! उस रात मुझे १०४ बुखार था जो उतरने का नाम नहीं लिया फिर सुबह बंधन वगैरह किया तब जाकर मैं ठीक हुआ! कहते हैं वह समैणा हो सकती है!)
आगे…….

यूँ भी पिछली रात मैं ढंग से नहीं सो पाया था! उसका कारण यह था कि ईडा क्वाठा के एक कमरे में मैं, दूसरे कमरे में हरीओम थोकदार (जो प्राय: पगला गए थे व रीठाखाल बाजार में एक रुपया मांगकर चाय पिया करते थे! उनकी पीठ में एक गरुड़ बना हुआ था! कुछ का मानना था कि वे अंडरवर्ल्ड के किसी गैंग में शामिल थे व पकडे जाने के डर से वहां से भाग गए थे व उसी दहशत में पगला गए थे, कुछ का कहना था कि वे बम्बई (मुंबई) फिल्म इंडस्ट्री में अपना भाग्य आजमाने गए थे!) व तीसरे कमरे में उनकी भाभी श्रीमती सम्पति देवी (जो अकेली लगभग इस दो दर्जनों कमरों के जीर्ण-शीर्ण हो चुके क्वाठा (किला) में रह रही थी!) !
यहाँ समस्या यह थी कि तल्ला ईड़ा जहाँ यह तीलू रौतेली के ससुरासी सिपाही नेगियों का किला था वहां के सभी सिपाही नेगी गाँव छोड़कर अन्यत्र बस गए थे! क्वाठा से बाहर पानी वाले रास्ते पर एक मकान आबाद था लेकिन वे भी अपने बच्चों के पास गए हुए थे! माता जी (श्रीमती सम्पति देवी) थोकदारी प्रथा की अंतिम कड़ी थी और यही कारण भी था कि वह उसी राजपूताना शान के साथ अकेली यहाँ जिन्दगी गुजार रही थी! इस जीर्ण-शीर्ण क्वाठा का लकड़ी का बाहरी तिबारी जो घुड़साल के छोर की थी टूट कर झड़ चुकी थी! हाँ, प्रवेश द्वारा के ऊपर तिबारी व उसके ऊपर के दो कमरे बेहद सुरक्षित थे जिसमें माता जी की रसोई व आराम कक्ष शामिल था! मेहमान कक्ष में मैं सोया था तो एक बिना खाट पलंग के कक्ष में रात्री प्रहर हरिओम थोकदार आ धमका था जिसकी चौड़ी छाती और कद काठी को देखकर मैं डर सा गया था! माता जी तब मुझे आलू लौकी की सब्जी, रोटियाँ व अपनी गौ का एक गिलास दूध परोस रही थी! उन्होंने मुझे कहा- बेटा, आप चिंता मत करो! वह किसी को कुछ नहीं बोलता! उसका जब मन करता है चला आता है और जब मन नहीं होता तो कई दिनों तक गायब रहता है! यह मल्ला ईड़ा का सिपाही नेगी है और हमारा नाते में देवर लगता है। मेरे मुंह से निकला और वह कौन थी जो…! मेरे शब्द अटक गई थे लेकिन माता जी को समझते देर नहीं लगी। अच्छा- जिसे दिन में देखा था। वह पारू है हमारी ननद। उसकी भी तकदीर खराब रही । उसी गम में वह अर्द्धविकसित सी हो गयी है।
मैंने बोला- माता जी, आप अकेले कैसे जीवन काट रही हैं यहाँ! वह मुस्कराती हुई बोली- कौन खायेगा मुझे यहाँ! मेरे पति मुझे यहीं ब्याहकर लाये थे! मेरी दो बेटियाँ हैं दोनों अपनी-अपनी ससुराल हैं! एक देहरादून रहती है! जवाई कई बार कह चुके हैं कि आप हमारे साथ चलो लेकिन चाहकर भी नहीं जा पाती क्योंकि यह झिझक रहती है कि बेटी के घर कैसे रहूँ! खैर जब हाथ पाँव जबाब दे देंगे तो जाना ही पडेगा! बाकी यहाँ कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि पड़ोस में दुःख सुख बांटने के लिए हरिजन मोहल्ला है ही! वे बेचारे मेरा पूरा ख़याल रखते हैं!
आज चाँद पूरे शरूर पर था! हलके बादलों से अटखेली खेलता चाँद खिड़की के रास्ते मेरी निवाड़ की चारपाई तक पहुंचकर मुझे आनंदित कर रहा था! शाम के समय में क्वाठा के पूरे कमरों का निरिक्षण कर लौटा था जिनमें से कुछ कमरों की छत्त टूटी हुई थी तो किसी कमरे का पाल उजड़कर निचले माले चला गया था! यहाँ आज भी सजा घर (जेल) में हैड-हिंगोड थी! जिसे सजायाफ्ता मुजरिम बांधा जाता था! एक तरह मरघट की सी शान्ति थी तो दूसरी तरफ सामने के कमरे से हरिओम थोकदार के डरवाने खर्राटों की आवाज! माता जी शायद थकी हारी थी इसलिए उनके कमरे से कोई भी चहल पहल की आवाज नहीं थी! मैंने माता जी द्वारा सिरहाने के पास रखे लोटे से पानी पिया और फिर करवट बदलकर लेट गया! मुझे इस बात का आश्चर्य था कि माता जी इस उम्र में भी इतना सुंदर साफ़ सुथरा चादर वाला बिस्तर मेहमान कक्ष में कैसे लगाईं होंगी! दूसरी तरफ इसी असमंजस में था कि क्या हर युग में प्रकृति अपना नियम बदलती है? क्योंकि कभी यहाँ सिपाही नेगियों की बादशाहत थी जिनके किस्सों में कत्युरी काल का इतिहास रचा बसा था व जिन्होंने गढ़वाल राज बिस्तार के लिए अनेकोनेक लडाइयां लड़ी! अचानक ध्यान आया कि जब यह किला बनाया गया था तब इसकी बुनियाद में दो मानवबली दी गयी थी! कुछ का कहना था कि दो दुश्मनों को इसमें ज़िंदा चुना गया था!
यह याद आते ही घड़ी पर नजर पड़ी तो देखा रात्री के बारह बजने में तीन मिनट ही बाकी हैं! मानव बली की बात याद आते ही बदन ने पूरी झुरझुरी ली व मैंने कसकर आँखें बंद कर दी! व सोने का पूरा यत्न करने लगा! अब भला नींद और डर का आपस में क्या सम्पर्क..! मुझे अब आँखों के आगे लम्बी लम्बी तलवार लिए पारु थोकदार जैसे दर्जनों हथियार बंद सिपाही नजर आने लगे! यह सब बंद आँखों से चल ही रहा था कि अस्तबल क्षेत्र से घोड़ों की हिनहिनाहट की आवाज सुनाई दी! फिर घोड़ो के टापों की आवाज के साथ चिलम के सुट्टे से उड़ता धुंवा व उस धुंवे में भांग मिली खुशबु ने मेरे पूरे बदन पर पसीना ला दिया था!
मुझे चाँद की रौशनी के साथ क्वाठा के बाहर से एक साथ कई घुड़सवार जाते हुए दिखाई दे रहे थे! जिनकी सफ़ेद पगड़ियां थी, माथे पर रक्तिम तिलक व बड़ी-बड़ी मूंछे, म्यान पर लटकी तलवारें थी व दांयें हाथ में पकड़ी घोड़े की लगाम व बांये हाथ से मूछों पर ताव देते हाथ में मोटा सा धागुला दिखाई दिया! मेरी कुछ पल के लिए आँखें मिली तो लगा वे आँखें नहीं अंगारा थी! मैंने कसकर सिरहाना पकड़ लिया और जोर से चिल्लाना चाहा लेकिन चिल्ला नहीं पाया! ठहाकों की गूँज के बीच किसी असहाय स्त्री की पुकार व पायल व चूड़ियों की खनक ने मेरे होश फाक्ता कर दिए थे! मुझे लग रहा था मेरा बदन कांप नहीं रहा है बल्कि पूरा बिस्तर हिलहिला रहा है! लगा कोई बड़ा भूकम्प आने वाला है व यह पूरा क्वाठा टूटकर मेरे उपर गिरने वाला है! अभी यह सब चल ही रहा था कि कानों में आवाज पड़ी- हे बुबा..उठ लेदी ! एक दांवें चा ठंडी व्हेग्या! मिल ज़रा पन्द्यर भी जाण..! बिजां काम छन…! ली चा पी (हे बेटे..उठ जा! एक बार की चाय ठंडी हो गयी! मैंने पनघट भी जाना है! बहुत काम पड़े हैं! ले चाय पी)! मैं हडबडाकर उठ बैठा तो देखा- माता जी चाय का गिलास लेकर खड़ी हैं! मेरे पूरे शरीर पर पसीना देख कर बोली- तबियत तो ठीक है न ! कहीं बुखार तो नहीं..! इतना पसीना क्यों आया है! मैंने मुस्कराकर चाय का गिलास थामा और बोला- नहीं, मुझे सोये में अक्सर ऐसा ही होता है! माता जी चली गयी तो चाय पीते पीते ईश्वर का धन्यवाद दिया कि शुक्र है वैसा कुछ नहीं हुआ जो मैं देख रहा था! अब मुझे विश्वास हो गया था कि वह सब एक सपना व मन का वहम था!
क्रमशः……!