इस विभाग (शिक्षा) को ये क्या हो गया है?*
शिक्षा विभाग राज्य का सबसे बड़ा रोजगार देने वाला विभाग रहा है। राज्य के लगभग 160000 कर्मचारियों में से लगभग 90000 कर्मचारी और शिक्षक अकेले शिक्षा विभाग से जुड़े हैं। राज्य का शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो इस विभाग का हितग्राही नहीं होगा। सदैव राजनीति का शिकार यह विभाग शिक्षकों/अधिकारियों के अच्छे कार्यों के लिए कम और व्यवस्था/स्थानांतरण आदि के लिए अधिक चर्चा में रहा है। यह विभाग हमेशा इस प्रदेश के राजनीतिक लोगों और उनसे जुड़े दलालों की आय का सबसे बड़ा श्रोत रहा है। इस विभाग से जिसे भी आर्थिक लाभ नहीं मिल पाया उसी ने इस पर जम कर कीचड़ उछालने का काम किया।
राज्य निर्माण से ही इस विभाग ने एक अपयश अपने माथे पर लिखना शुरू कर दिया। जो भी इस विभाग का मंत्री/अधिकारी बना उसका कैरियर तबाही की ओर बढ़ चला और जो इस विभाग का कर्मचारी बना उसके माथे पर निकम्मा होने का ठप्पा जनता और मीडिया ने लगा दिया। अर्थात इस विभाग का पैसा जिस ने भी खाया उसके हिस्से अपयश ही आया।
ऐसे में सरकार का कोई भी मंत्री इस विभाग को भला क्योंकर गले लगाना चाहेगा। यही कारण है कि राज्य निर्माण से लेकर आज तक यह विभाग या तो सबसे अनुभवहीन और अनिच्छुक मंत्रियों के हवाले रहा। परिणाम स्वरूप इस विभाग की स्थिति हमेशा अंधेर नगरी चौपट राजा वाली ही रही। अधिकांश मंत्रियों और उनके दलालों ने पैसा बनाने वाली मशीन के रूप में ही इसे देखा। अधिकारियों ने भी सुधार और नवाचार के नाम पर विभाग और शिक्षा व्यवस्था का बेड़ा गर्क ही किया है। और अब जब यह विभाग पूरी तरह सड़ चुका है तो इस सड़ांध का ठीकरा फोड़ने के लिए विभाग के सबसे नीचे पायदान के कार्मिकों (शिक्षकों) का सिर चुन लिया गया है। मंत्रियों के पापों के भागीदार अधिकारी अब नवोन्मेषी तरीकों से शिक्षकों को इस व्यवस्था के बीमार होने का जिम्मेदार ठहराने के दिन-रात जतन कर रहे हैं।
राज्य निर्माण के 18 वर्षों बाद राजनीतिक दलों को तबादला कानून बनाने की सुध आई है। कठिनतम हालातों में शिक्षा की इस जर्जर व्यवस्था को संचालित करने वाले शिक्षक, समन्वयक सभी अयोग्य, अप्रशिक्षित और नकारा घोषित कर दिए गए हैं।
हद तो तब हो गई जब विभाग ने अपनी ही एस सी ई आर टी द्वारा शिक्षकों की कठिन मेहनत से तैयार की गई पाठ्य-पुस्तकों को भी नकारा करार दे दिया है। और अब एन सी ई आर टी से पुस्तकों की भीख मांगी जा रही है।
एन सी एफ-2005 और शिक्षा का अधिकार अधिनियम की अनुशंसाएं भी इस राज्य की महान शिक्षा व्यवस्था के आगे बौनी साबित होने लगी हैं। राज्य ने इन सब को धत्ता बताते हुए कक्षा 5 और 8 के लिए बोर्ड परीक्षा की अनुशंसा तो की ही, राज्यस्तरीय (बोर्ड के समकक्ष) मासिक परीक्षायें करवाने का विनाशकारी निर्णय भी लिया है।
जब इतने से भी मन नहीं भरा तो राज्य की सरकार ने भ्रष्ट बताते हुए राज्य के शिक्षा एवं परीक्षा बोर्ड को ही भंग कर केन्द्र के हाथों में सौंपने की तैयारी पूरी कर ली है।
अर्थात इस राज्य की शिक्षा व्यवस्था में अब राज्य का कुछ भी अपना नहीं बचने वाला।
तो कोई बताएगा कि अब इस राज्य में शिक्षा मंत्री की क्या जरूरत है? क्यों न केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ही इसे देखें?
जब इस राज्य में भ्रष्टाचार के चलते शिक्षा व्यवस्था को केन्द्र के हाथों सौंपा जा सकता है तो फिर क्यों नहीं इस राज्य के राजनैतिक भ्रष्टाचार और अपरिपक्वता को आधार मानते हुये इसे एक पूर्ण राज्य से अवनत करते हुए एक केन्द्र शासित प्रदेश बनाकर केन्द्र के हाथों सौंप दिया जाना चाहिए?
ये एक तरह की राजनीतिक स्वीकारोक्ति है कि इस प्रदेश के नेताओं में प्रदेश का शासन चलाने की काबिलियत नहीं। इस राज्य का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है।
राज्य निर्माण से ही इस विभाग ने एक अपयश अपने माथे पर लिखना शुरू कर दिया। जो भी इस विभाग का मंत्री/अधिकारी बना उसका कैरियर तबाही की ओर बढ़ चला और जो इस विभाग का कर्मचारी बना उसके माथे पर निकम्मा होने का ठप्पा जनता और मीडिया ने लगा दिया। अर्थात इस विभाग का पैसा जिस ने भी खाया उसके हिस्से अपयश ही आया।
ऐसे में सरकार का कोई भी मंत्री इस विभाग को भला क्योंकर गले लगाना चाहेगा। यही कारण है कि राज्य निर्माण से लेकर आज तक यह विभाग या तो सबसे अनुभवहीन और अनिच्छुक मंत्रियों के हवाले रहा। परिणाम स्वरूप इस विभाग की स्थिति हमेशा अंधेर नगरी चौपट राजा वाली ही रही। अधिकांश मंत्रियों और उनके दलालों ने पैसा बनाने वाली मशीन के रूप में ही इसे देखा। अधिकारियों ने भी सुधार और नवाचार के नाम पर विभाग और शिक्षा व्यवस्था का बेड़ा गर्क ही किया है। और अब जब यह विभाग पूरी तरह सड़ चुका है तो इस सड़ांध का ठीकरा फोड़ने के लिए विभाग के सबसे नीचे पायदान के कार्मिकों (शिक्षकों) का सिर चुन लिया गया है। मंत्रियों के पापों के भागीदार अधिकारी अब नवोन्मेषी तरीकों से शिक्षकों को इस व्यवस्था के बीमार होने का जिम्मेदार ठहराने के दिन-रात जतन कर रहे हैं।
राज्य निर्माण के 18 वर्षों बाद राजनीतिक दलों को तबादला कानून बनाने की सुध आई है। कठिनतम हालातों में शिक्षा की इस जर्जर व्यवस्था को संचालित करने वाले शिक्षक, समन्वयक सभी अयोग्य, अप्रशिक्षित और नकारा घोषित कर दिए गए हैं।
हद तो तब हो गई जब विभाग ने अपनी ही एस सी ई आर टी द्वारा शिक्षकों की कठिन मेहनत से तैयार की गई पाठ्य-पुस्तकों को भी नकारा करार दे दिया है। और अब एन सी ई आर टी से पुस्तकों की भीख मांगी जा रही है।
एन सी एफ-2005 और शिक्षा का अधिकार अधिनियम की अनुशंसाएं भी इस राज्य की महान शिक्षा व्यवस्था के आगे बौनी साबित होने लगी हैं। राज्य ने इन सब को धत्ता बताते हुए कक्षा 5 और 8 के लिए बोर्ड परीक्षा की अनुशंसा तो की ही, राज्यस्तरीय (बोर्ड के समकक्ष) मासिक परीक्षायें करवाने का विनाशकारी निर्णय भी लिया है।
जब इतने से भी मन नहीं भरा तो राज्य की सरकार ने भ्रष्ट बताते हुए राज्य के शिक्षा एवं परीक्षा बोर्ड को ही भंग कर केन्द्र के हाथों में सौंपने की तैयारी पूरी कर ली है।
अर्थात इस राज्य की शिक्षा व्यवस्था में अब राज्य का कुछ भी अपना नहीं बचने वाला।
तो कोई बताएगा कि अब इस राज्य में शिक्षा मंत्री की क्या जरूरत है? क्यों न केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ही इसे देखें?
जब इस राज्य में भ्रष्टाचार के चलते शिक्षा व्यवस्था को केन्द्र के हाथों सौंपा जा सकता है तो फिर क्यों नहीं इस राज्य के राजनैतिक भ्रष्टाचार और अपरिपक्वता को आधार मानते हुये इसे एक पूर्ण राज्य से अवनत करते हुए एक केन्द्र शासित प्रदेश बनाकर केन्द्र के हाथों सौंप दिया जाना चाहिए?
ये एक तरह की राजनीतिक स्वीकारोक्ति है कि इस प्रदेश के नेताओं में प्रदेश का शासन चलाने की काबिलियत नहीं। इस राज्य का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है।