इतिहास, लोकगाथा, जनश्रुतियों व किंवदन्तियों में धार का नागर्जा (धारकोट) का महत्व भी ठीक सेम मुखेम के समान!
इतिहास, लोकगाथा, जनश्रुतियों व किंवदन्तियों में धार का नागर्जा (धारकोट) का महत्व भी ठीक सेम मुखेम के समान!
(मनोज इष्टवाल)
वो गया और पद्म वृक्ष के नीचे जहाँ से उसकी सीधी नजर उठे तो दूर ताडकेश्वर, भैरव व लंगूर गढ़ी, एकेश्वर व मुंडनेश्वर दीखते हैं! थोडा नीचे नजर हुए तो यक्ष पुत्रियों का निवास स्थल सतपुली, दनगल, ज्वाल्पा, भुवनेश्वरी व पीठ पीछे क्यार्केश्वर जैसे धार्मिक स्थल हैं! जहाँ नागर्जा ने अपना स्थान चुना वह ऐसा रमणीक स्थल है कि पवन के शानदार हिलोरे, वन्य पुष्पों की शानदार खुशबु और ग्रामीण परिवेश की मिलावट अपने आप में उस स्थल को पवित्र व पावन बना देता है!
महाकवि कालिदास ने यों भी इस देवभूमि को “कुमार सम्भव” में नगाधिराज की उपाधि देते हुए लिखा है- “अस्त्युत्तरस्यां दिशी देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:!” ऐसे में यह तो सर्व विधित है कीपिंग यह भूमि ही नागवंशियों की है! पुरातन इतिहास में नाग वंशियों ने सहस्त्रों बर्ष इस भूमि का सुख भोगा जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण पूरे उत्तराखंड ही नहीं बल्कि भारत बर्ष के सम्पूर्ण हिमालयी भूभाग में अनंत, वासुकी, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, दृष्ट्रराष्ट्र, तक्षक, कालीय नाग का राज्य रहा है! इन्हीं नागों में नागकन्या उलूपी का भी जिक्र है और कृष्ण अवतारी दूधाधारी नागर्जा का एक पवित्र धाम टिहरी गढ़वाल के घनशाली क्षेत्र का सेम-मुखेम पूरे गढ़वाल में प्रचलित है! वहीँ कुमाऊं में भी कई नाग मंदिरों का जिक्र आता है! इन्द्रप्रस्थ राज्य के निर्माण के समय नागों के तत्कालीन राजा तक्षक ने इन्द्रप्रस्थ बनने का विरोध किया था! महाभारत के अनुसार तब पांडवों ने खांडव वन व मगध में नागों को परास्त कर नागों की शक्तिशाली परम्परा का अंत कर दिया था! कृष्ण ने यमुना में शेषनाग व अलकनंदा के नागपुर (उर्गम क्षेत्र) में नागों से युद्ध व आपसी रजामंदी के बाद नागवंशी राजाओं को बेहद क्षीण बना दिया था! रही सही कसर टिहरी गढ़वाल के गंगू रमोला को परास्त कर कृष्ण ने वहां नागर्जा रूप में दर्शन दिए! फिर भी लगातार पांडवों व नागों में युद्ध चलता रहा लेकिन नाग्पुत्री उलूमी/उलूपी से धनुर्धर अर्जुन द्वारा गंदर्भ विवाह रचाए जाने के बाद पांडव भी उत्तराखंड में नागों जैसे ही पूजनीय हो गए और आज भी उत्तराखंड के कई इलाकों में इनके मंदिर हैं!
यों तो पूरे उत्तराखंड में नागों की पूजा देवताओं के रूप में की जाती है जिनमें शेषनाग की पूजा पांडुकेश्वर, भिकलनाग की रतगाँव, संगलनाग की तालौर, बनापा नाग- मरगॉव, लोहनदेव नाग- झेलम, पुष्कर नाग-नागनाथ, नागसिद्ध-नागांचल पर्वत, कालिया नाग- सर बडियार इत्यादि प्रमुख हैं इनके अलावा गढ़वाल में नागटिब्बा, नागथात सहित कई ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ नागों की पूजा होती है! गढ़वाल मंडल में आज भी कई राजपूत जातियां नागवंशी हैं जिनमें असवाल जाति प्रमुख है! किंवदंतियों के अनुसार इस जाति को नाग के काटने से जहर नहीं चढ़ता और न ही खेत में हल लगाते वक्त अगर हल के फल में नाग या सर्प आ जाए तो ये उसका दोष मानते हैं!
सिर्फ गढ़वाल मंडल में ही नहीं बल्कि कुमाऊं मंडल में भी मैंने अपने भ्रमण के दौरान नाग मंदिरों व स्थानों की जानकारी जुटाई ! कुमाऊं मंडल में मेहरपट्टी के बस्तरी गाँव में शेषनाग मंदिर है जबकि अकेले पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग व पुंगारो पट्टी में 8 प्रसिद्ध नागमंदिर हैं जिनमें पिंगल नाग, बेनी नाग, काली नाग, फेनी नाग, धौल नाग, कर्कोटक नाग,खरहरी नाग, अठ्गुली नाग प्रमुख हैं! नैनीताल जिले के पांडे गाँव में भी कर्कोटक नाग का पौराणिक मंदिर अवस्थित है वहीँ धनपुर में वासुकी नाग मंदिर है! पातळभुवनेश्वर व नाकुरी के बीच सैकड़ों नागों की जानकारी मिलती है! जन्मजय ने यहीं नागों की आहुति दी है!
अब आते है मुख्य बिंदु पर..! वह यह है की सेम मुखेम के नागराजा की धार्मिक आस्था के बीच अन्य नागों की तुलना में उत्तरकाशी, टिहरी और पौड़ी गढवाल के जनमानस की श्रद्धा और विश्वास ज्यादा क्यों है! क्यों इसे धार्मिक मान्यताओं में यहाँ के लोग एक तीर्थ के समान मानते हैं! जहाँ पौड़ी जिले के पौड़ी में झंडीधार चोटी में स्थित नागदेव मंदिर प्रसिद्ध है वहीँ पौड़ी गढ़वाल के बनेलस्युं में डांडा का नागर्जा व कफोलस्यूं में धार का नागर्जा सुप्रसिद्ध है!
पट्टी कफोलस्यूं के धारकोट गाँव स्थित धार का नागर्जा का वर्णन केदारखंड (गढ़वाल मंडल पृष्ठ १०२), भारतीय लोक संस्कृति का संदर्भ : मध्य हिमालय (पृष्ठ ८२), केदारपुराण (खंड ४ पृष्ट ४०९), आर्यों का आदिनिवास: मध्य हिमालय (पृष्ठ २८१ से ३०१) गढ़वाल के लोक नृत्य (पृष्ट ९६), केदारखंड (अध्याय १२८), नाग और गरुड़ गाथा-स्कन्ध पुराण (मानसखंड कुमाऊं व केदारखंड गढ़वाल), गढ़वाल का इतिहास (पृष्ठ ८१,८६), बद्रिकेदार यात्रा दर्शन (पृष्ठ १०३) केदारखंड अध्याय (पृष्ठ ६३/५) सेम-मुखेम यात्रा दर्शन, श्रीमदभगवत गीता अध्याय (१०/२८-२९) नवनाथ उपासना (पृष्ट १४१), द हिमालयन गजेटियर (भाग-२ वाटसन), गढवाल गजेटियर ( ३७४-८३५ अटकिन्सन), भारत का इतिहास (व्हीलर), हिमालय यात्रा (मार्टिनियर पृष्ठ १८७-१८९) गढ़वाल के प्राचीन अभिलेख और उनका ऐतिहासिक महत्व (पृष्ट ८६, १२१,१८५), जौनपुर के लोकदेवता (पृष्ठ १९-२३), महाभारत आदिपर्व (३६/३५), केदारखंड (८०/२१), केदार पुराण (भाग-४ पृष्ठ ३८६), लोकगीतों, लोकगाथाओं, जनश्रुतियों, एवं किंवदन्तियों व गढ़वाल एन नागपूजा महातम्य में नागराजा के वृहद् स्वरूपों का उल्लेख मिलता है!
इन्हीं रूपों में एक बिष्णु भगवान् के 16वें अवतार श्रीकृष्ण भगवान ने केदारखंड की यात्रा में अपने छल-बल का प्रयोग कर नागदेवता के रूप में अपने को पूजनीय बनाया है! जहाँ एक ओर डांडा का नागर्जा का मेला/पूजा बैशाखी पर्व में लगता अहै वहीँ धार का नागर्जा मेला या पूजा अक्सर सावन मास के शुक्ल पक्ष की नागपंचमी को आयोजित होता है!
धारकोट के धार का नागर्जा का भी बर्णन मुख्यतः जनश्रुतियों, लोकगाथाओं, जागरों में ही मिलता है! कहा जाता है कि कृष्ण भगवान् यहाँ उत्तराखंड भ्रमण के दौरान फिक्वाल भेष में आये थे! लगभग 16वीं सदी में यह गाँव कफोला बिष्टों का एक कोट (किला) माना जाता था जिसके एक ओर क्षीर गंगा/दुग्ध गंगा (खरगढ़) बहती है तो दूसरी ओर उतुंग शिखर चौडयूँ है जो इसके फैले मीलों क्षेत्रफल का सीमांकन करता है! जनश्रुतियों व सन 1890 के भूमि बंदोबस्त के अनुसार यहाँ कफोला बिष्ट, पुसोला, इष्टवाल, केन्द्रवाल/किन्द्राण नेगी, कंडारी व थपियाल जातियां रहा करती थी तत्पश्चात यहाँ पंवार रावत, झन्गोरिया रावत, दुराल रावत, शैली, पडियार बिष्ट, असवाल, जुगरान, ढौंडियाल, लोहार, कोली इत्यादि जातियों का आगमन हुआ! बाजगी जाति इन जातियों से पुरातन मानी जाती रही है!
जनश्रुतियों के अनुसार बलवंत सिंह पडियार बिष्ट, गोबिंद सिंह किन्द्राण/केन्द्र्वाल नेगी, बचन सिंह किन्द्राण/केन्द्र्वाल नेगी, गब्बर सिंह झंगोरिया रावत, उमेद सिंह कंडारी गुसाई, रामदयाल सिंह कंडारी गुसाई, विक्रम सिंह किन्द्राण/केन्द्र्वाल नेगी, गणानन्द, आदित्यराम व चक्रधर प्रसाद इष्टवाल बताया करते थे कि जब गोरखा शासन काल में पौड़ी गढ़वाल के ज्यादात्तर गाँव मरघट बन गए थे व लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया था तब पुनः ब्रिटिश काल में यह गाँव बसना शुरू हुआ और उसी दौरान उन्हें पता चला कि गया-पद्म वृक्ष के नीचे नागर्जा मंदिर है जिसकी जानकारी गाँव के भूमिया कालीनाथ भैरव ने दी थी! पूजा याचना होने के बाद नागर्जा ने अवतार लिया और जो कहानी बताई वह यह थी कि सदियों पूर्व से वे इस गाँव में हैं ! उन्हें यह स्थल पसंद आया और उन्होंने यहाँ के कफोला थोकदार से इसे भिक्षा के रूप में माँगा लेकिन कफोला ने बेहद निष्ठुरता से मना कर दिया! उन्होंने रात्री बिश्राम के लिए पुसोला से जगह मांगी तो उसने भी इनकार कर दिया आखिर नेत्रमणि नीलमणि इष्टवाल के यहाँ उन्हें जगह मिली ! उन्होंने फिक्वाल रुपी नागर्जा को स्थान दिया! कहा जाता है कि जब उन्हें गाँव से बाहर छोड़ने के लिए नेत्रमणि आये तब यहीं गया-पद्म वृक्ष के पास उन्होंने नाग रूप धारण किया और अलोप हो गये! वे साथ ही कफोला थोकदार व पुसोला पदान को श्राप दे गये कि वे इस भूमि में अब ज्यादा दिन नहीं टिकेंगे! कालगति के आगे भला किसी की क्या चलती है! हुआ भी वही और ये दोनों जातियां यहाँ समाप्त हो गयी हैं! उन्हीं की थाती माटी में फिर अन्य जातियां आई ! इष्टवालों पंडितों ने तब नागराजा की पूजा अर्चना शुरू कर दी व वही उसके पुजारी हुए! इस मंदिर का जीर्णोद्वार घरजवाई के रूप में थापली गाँव (इष्टवालों के ही दामाद) आये पंडित प्यारे लाल जुगराण ने किया कालान्तर में असवालस्यूं के दलमोट/बमणगाँव वेद लगने से ऐसा भी सुनने में आया कि वे लोग मंदिर का एक भाग रातों-रात तोड़कर चले गए! जिसे फिर हमारे काल में मरम्मत कर बनाया गया! जहाँ पूर्व में मंदिर था वहां पंडित सर्वेश्वर प्रसाद शैली ने बिश्राम स्थल बना दिया जबकि उन्हीं के भाई पंडित तुंगेश्वर प्रसाद शैली ने मंदिर का द्वार निर्माण किया है! वर्तमान ग्राम प्रधान भूपेन्द्र सिंह पंवार रावत ने मंदिर तक जाने के लिए पंचायती विभिन्न निधियों से सीढ़ियों का निर्माण करवाया है जबकि सोपाल सिंह झंगोरिया रावत वर्तमान में हर रोज मंदिर की दीया-बाती किया करते हैं! कभी कालान्तर में शत्रु दास आवजी हर दिन माँ बालकुंवारी के पंचायती आँगन में देवताओं की नौबत्त बजाया करते थे आज नौबत्त तो क्या कहीं शबद भी नहीं सुनाई देते!
धार का नागर्जा के चारों दिशाओं में सात सीम हुआ करते थे जो कालांतर में सूखने लगे हैं! इनमें भंगरा, हीत का सीम, सीसई सीम, नाव का सीम, मल्ली नवली सीम, पीपलाखील सीम, बांजा सीम इत्यादि प्रमुख हैं! ग्रामीण हर फसल में नागर्जा के नाम का रोट काटा करते थे व तिलों के तेल या सरसों के तेल को घर में ही उनकी फलियों को निचोड़कर पहले उन्ही का दिया जलाया करते थे! माघ की मकरसंक्रान्ति को हलजोत के दिन गाँव की कुलदेवी बालकुंवारी, भूमि का भूमिया भैरव, कुलदेव नागर्जा की पूजा अर्चना होती है! इस से जंगली पशु खेतों को नुकसान नहीं पहुंचाया करते थे व यहाँ के खेतों में फसल खूब लहलहा करती थी!
धार का नागर्जा को पर्चे का देवता माना गया है ! कहते हैं जो इसे सच्चे दिल से मन्नत मांगे वह पूर्ण अवश्य होती है लेकिन मन्नत पूर्ण होने के बाद देवता के उपकार को भूल जाए तो वह रुष्ट भी उतनी ही जल्दी होता है! धार के नागर्जा की पूजा अर्चना के लिए श्रद्धालु, श्रीफल, चावल, भेली, दूध-फूल की पूजा देते हैं! कालान्तर में यहाँ बकरे की बलि भी दी जाती थी जो अब पूर्णत: बंद है! यहाँ भोग के रूप में सामूहिक पुवा प्रसाद, खीर व रोट चढ़ाया जाता है व यही प्रसाद के रूप में मिलता भी है! श्रावण भाद्रपद में यहाँ नागपंचमी के अवसर पर लोग अक्सर नागर्जा को दुग्ध स्नान या दूध फूल की पूजा देते हैं कहते हैं ऐसे में उनका परिवार यानि गाई और माई सभी सुख समृधि के साथ जीवन यापन करते हैं! लोग फिक्वाल की पहचान के रूप में नागर्जा को पीला निशाँण (पीला झंडा) भी चढाते हैं! इनकी पूजा डौंर-थाली व खड़े बाजों (ढोल दमाऊं) दोनों में होती है साथ ही इनका पाठ भी चलता है! मुझे अब दुःख इस बात का होता है कि कई बर्षों से अब सेम-मुखेम के फिक्वाल रुपी पुजारी यहाँ नहीं आते जो हमारे घर से नागर्जा के नाम का चढ़ावा ले जाते थे! ये लोग घर में पानी तक नहीं पीते थे! बचपन में पैंसा होता ही कहाँ था इसलिए अक्सर मैंने अपने पिता जी द्वारा दो या पांच रूपये से ज्यादा कभी इन्हें चढ़ावा देते नहीं देखा! एक बार पिता जी ने दस रूपये दिए थे जिन्हें देखकर वहां के पण्डे ही नहीं बल्कि मैं भी विस्मित हुआ था तब पिताजी बोले –आज जेब में थे इसलिए! काश…अब भी वे सभी परम्पराएं जीवित होती जो आराध्य देवताओं के लिए सच्चे मन व निष्ठा के साथ पल्वित होती लेकिन आज हम देवताओं से भी उपर इस भौतिक युग में अपने आप को समझने लगे हैं इस से हमें बचना होगा! मुझे गर्व है कि मेरे गाँव में अभी भी यह सामूहिक प्यार प्रेम की परम्परा बेहद निष्ठा व विश्वास के साथ कायम है शायद इसीलिए पलायन की इस अंधी दौड़ में मेरा गाँव अभी तक उजड़ा नहीं है! “जय नागर्जा “
Thanks.. Manoj good job .. Tumne phikwal jo semmukhem se aate hai we Abhi .abhi bhi aatee hai. Abhi jab hamare yahan uttam ke bhagwat hue thi us din aayee the me khud unhe mela tha wo mere guru hai . We gaon me kuch purane logo ko mil kar halHchal puch kar wapas chale jate hain. Laken kafee antral ke bad aatee hai.
जीवन …यह सचमुच ख़ुशी की बात है कि अभी भी सेम मुखेम से फिक्वाल लोग गाँव आते हैं मुझे तो शायद उन्हें गाँव में देखे 30 बरस से भी ज्यादा हो गए हैं! हाँ पुरानों के नाम तो उनके पास होंगे ही! साथ ही उनके भी जिन्होंने सेम मुखेम की यात्रा की है!