इगास का भैलो..! टिहरी से जबरदस्ती पलायन करवाने के बाद भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों को हरा कर रहे हैं टिहरियाल!

इगास का भैलो..! टिहरी से जबरदस्ती पलायन करवाने के बाद भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों को हरा कर रहे हैं टिहरियाल!
(मनोज इष्टवाल)
एक बाँध ने 125 गाँवों को जलसमाधि दी! और इसी बाँध ने लगभग 2 लाख लोगों को जबरदस्ती पलायन करने को मजबूर कर दिया! भले ही ये लोग आज देहरादून हरिद्वार क्षेत्र में समृद्धशाली लोगों में शामिल हो गए हों लेकिन पंकज उदास की गजल चिट्ठी आई है में देश से बाहर प्रवासी बने व्यक्तियों की जितनी आँखें सजल कर देता है उस से कई अधिक आँखें तब रोती हैं जब वे लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीत की ये पंक्तियाँ सुनते हैं-
“ भेंटी जा यूँ गौळआ-ग्वींडा जौमा खेलिकी सयाणु ह्वे तू, ग्वाया लगैनी जैंs डंडेळई जै चौक, जौं बाटों आणु-जाणु रैs तू-2 ! कखन द्यखण लथयाळआ त्वेन जलमभूमि आखिर, अबरी दां तू लम्बी छुट्टी लेकि ऐई, ऐग्ये बगत आखिर, टीरी डोबण लग्युं च बेटा डाम का खातिर…..!
कहते हैं वक्त की हर शै गुलाम! ये वक्त की करवट ही कहिये कि टिहरी निवासियों ने अब पाने आप को महानगरों के प्रदूषित पर्यावरण में ढाल दिया है लेकिन एक बड़ी चीज जो इन लोगों ने पूरे प्रदेश को दी है वह है अपने संस्कार, खान-पान और रीति-रिवाज! सचमुच इस क्षेत्र के वासियों के ऐसे कृत्यों के आगे जाने मुझ जैसे कितने पहाड़ प्रेमियों के सिर यूँहीं झुक जाते होंगे जब इनकी ब्याह शादी की परम्पराएं हों या उत्सव त्यौहारों की! ये ठेठ अपने पहाड़ीपन से सबको कायल कर देते हैं. चाहे वह टिहरी के रमेश उनियाल जी की बेटी की शादी की शुरुआत टिहरी नथ या मंगल गीतों से हुई हो या फिर नेगी जी का गढ़भोज! यकीनन इन मानसों ने पहाड़ की लोक संस्कृति को कभी अपनी वैभवपूर्ण दिनचर्या के आगे बौना नहीं होने दिया! बल्कि पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपने लोक उत्सवों खान पान और रीति रिवाजों का निर्वहन करना अपना पहला कर्तब्य व धर्म समझा है!

इसी तारमतम्य को आगे बढाते हुए एक युवा गजेन्द्र रमोला ने आगराखाल कस्मोली गाँव की फिजाओं में तैरती आवोहवा को देहरादून में ही थामने का मन बनाया और मुझे फोन आया कि इष्टवाल जी, वैसे आपने भैलो अपने गाँव में रखा है फिर भी एक राय चाहिए थी कि क्यों न हम इसे अपने प्रवासियों के बीच ले जाएँ ताकि यहाँ भी हम फक्र के साथ सर उठाकर कह सकें कि हमारी सभ्यता और संस्कृति आज भी हमारे साथ कदमताल कर रही है! मैंने पूछा- संसाधन की व्यवस्था कैसे होगी! वे तपाक से बोले – ए सब आप मुझ पर छोड़ दो! फिर क्या था जाने कब कल्याण सिंह रावत “मैती” (मैती संस्था के अध्यक्ष), गजेन्द्र रमोला (neo vission के सचिव) व गढ़भोज के प्रोपराईटर लक्ष्मण सिंह रावत  बैठे और तय हुआ कि कुंजापुरी के मैदान में भैलो खेला जाएगा!

इगास का दिन नजदीक आया. मुझे अपनी बेटी से मिलने कोटद्वार जाना था. धुकधुकी थी कि बेटी की सुनूँ या अपनी लोक परम्परा लोक संस्कृति के रचे बसे उस आभामंडल की जिसे हम बर्षों पूर्व अपने पीछे छोड़ आये! आखिर बेटी को मनाया और भैलो की तैयारी में आ इकट्ठा हुए!

गजेन्द्र रमोला जैसा जुझारू व्यक्तित्व शायद बिरला ही दिखता है. जिसे अपनी जेब से पैंसे खर्च कर अपने समाज और संस्कृति के जीवन का कीड़ा कचोटता रहता है. वह पूर्व में ऐसे सामाजिक कार्य सम्पादित कर चुका है जो यकीनन समाज के लिए मील का पत्थर कहें जा सकते हैं. चाहे वृक्षारोपण कस्मोली बुग्याल में हो या फिर क्लेमनटाउन क्षेत्र! हर ओर गजेन्द्र और उसकी संस्था निओ विजन के जलवे दिखने को मिलते हैं.

भैलो की तैयारी में जुटी श्रीमती मीनाक्षी रमोला!
इगास के भैलो की लकड़ी व मालू की छाल उन्हीं के कस्मोली गाँव से उन्होंने श्रीमती ममता रावत से मंगाई! उन के घर में उनकी माँ श्रीमती सीता रमोला, भाभी मीनाक्षी रमोला व श्रीमती ममता रावत ने छिल्ले की लकड़ी (भेमळ की बिना रेशे युक्त) व मालू की छाल से भैलो बनाने शुरू किये. गजेन्द्र रमोला बताते हैं कि वे व उनकी पत्नी उनकी बनाने की तकनीक देखते रहे. वह यह जानने को उत्सुक थे कि भैलो जब खेले जायेंगे तो उनकी रस्सी कैसे सुरक्षित रहेगी. उनकी भाभी मीनाक्षी बताती हैं कि इसीलिए भैलो पर आम रस्सी का इस्तेमाल नहीं किया जाता बल्कि मालू या अन्य बेल वाली प्रजाति के पेड़ों से इसकी रस्सी बनाई जाती है ताकि आग लगने से वह जले नहीं!
इगास के भैलो जलने से पूर्व इगास क्या है और क्यों मनाई जाती है उसका ब्यौरा बता दूँ! हमारी लोक संस्कृति में ब्याप्त कतिपय लोक गीत ऐसे हैं जो अपने आप में इतिहास संजोये हुए हैं. टिहरी गढ़वाल की इगास का जश्न अपने आप में बेहद निराला माना जाता है उसके पीछे जो तथ्य हैं वह एक माँ के अन्तस् से निकले ऐसे बोल हैं जो कलेजा चीर दें:-

“बारा ऐनी त्यौहार हे माधौ सिंघा, सोलहा ऐनी श्राद्ध माधौ सिंघा, मेरु माधौ नि आऊ रे माधौ सिंघा…! ये बोल उस माँ का मर्म है जिसने इस धरा को एक ऐसा योद्धा दिया जिसने जहां नजर फेरी वही क्षेत्र उसका हो गया! यह घटना १६वीं सदी के शुरूआती दौर की है जब वीर भड सेनापति माधौ सिंह तिब्बत फतह के लिए सेना के साथ निकला था. तिब्बत तक पहुँचते पहुँचते एक साल गुजर गया पूरे साल भर के त्यौहार आये और चले गए लेकिन माँ का व्याकुल मन व आकुल आँखें अपने बेटे माधौ सिंह को न देख पाई. उसका ढांढस दीवाली आते आते टूट गया और माँ का वह कलेजा फट पड़ा जिसने माधौ जैसे वीर को नौ माह गर्भ में रखा था. माँ किसी आशंका से प्रलाप करती है कि 12 माह के त्यौहार निकल गए साल भर के 16 श्राद्ध भी चले गए लेकिन मेरा माधौ अभी तक नहीं लौटा!

माधौ सिंह भंडारी के बारे में कहावत प्रचलित है कि –

एक सिंह रणबण एक सिंह गाय का, एक सिंह माधौ सिंह बाकी सिंह काय का!


इस गीत को जब मैंने बचपन में अपने गाँव के पंचायती आँगन में गाते हुए अपनी माँ चाची ताई दादी इत्यादि को देखा था तब ये सोचता था कि गाँव का कोई माधौ रहा होगा मुझे यह पता नहीं था कि ये तो हमारे गाँव से लगभग सौ किमी. दूर गंगा पार का मलेथा का वीर सेनापति माधौ सिंह है. मैं इसलिए यह सोचता था क्योंकि कई माँ बहनों की आँखें इस गीत को गाते भर आती थी क्योंकि उन्हें प्रदेश में नौकरी कर रहे अपने बेटे याद आ जाते थे और माधौ के ये बोल उनके बेटे तक पहुँच जाते थे.
आखिर द्वापा फतह करने के साथ जब माधौ वापस श्रीनगर पहुंचा तब दीवाली निकल चुकी थी माँ की इगास= एक आस अब पूरी हो चुकी थी! १०वें दिन महाराजा ने घोषणा की कि तिब्बत फतह व माधौ के लौटने पर पूरे गढ़वाल में इगास मनाई जायेगी! फिर क्या था दीवाली के ग्यारहवें दिन विजयी पर्व के रूप में इगास मनाई गयी.घरों की साफ़ सफाई व दीपदान के साथ मशालें जलनी शुरू हो गयी जिन्हें भैलो कहा गया तब से टिहरी जनपद के इगास के भैलो प्रचलन में क्या आये कि पूरे गढ़वाल मंडल में फ़ैल गया!

वहीँ गढ़वाल मंडल के तराई क्षेत्र और नयार घाटी क्षेत्र में भैलो का प्रचलन कम देखने को मिलता है. इस पर भी एक ऐतिहासिक कहानी सामने आती है कि चौन्दकोट के रिंगवाडा सेनापति के नेतृत्व में गढ़वाली सेना को रणचूला (निकट सराईखेत) कुमाउनी सेना से हार का सामना करना पड़ा तब से रिंगवड़ा रौत भैलो नहीं मनाते थे लेकिन पुन: असवाल सेनापति भंधो असवाल के नेतृत्व में रिंगवडा, गोर्ला, रिखोला नेगी, सिपाही नेगी सहित विभिन्न योद्धाओं की सवा लाख सेना ने कुमाऊं पर आक्रमण किया. जिसका वर्णन गढ़राजा के दरवारी कवि व चित्रकार मौला राम तुन्वर ने कुछ यों किया-

“सवा लाख संग फ़ौज सलाणी, लोधी और रिन्गवाड़ी आये,…तडा-तोमड़ा संग मही लाये, बाकी सब गढ़ के संग लागे, खसिया बामण चले जो आगे!” इस सेना ने न सिर्फ कुमाउनी सेना को खदेड़ा बल्कि इसके बाद कत्युरी साम्राज्य का बिनाश ही माना जाता है. कहते हैं इस विजय जश्न को बग्वाल के रूप में गढ़वाल में मनाया गया! लेकिन इसका ऐतिहासिक प्रमाण व किस सन की घटना है इसका अनुमान लगाना कठिन है ! कहते हैं जीत के साथ भन्धो असवाल कुमाऊं के कत्युरी वंशज की खूबसूरत कन्या पर मोहित हो गया जिसे वह जबरदस्ती अपने साथ ले आया और उसे चौकिसेरा क्षेत्र दिया गया तब से असवाल सीला, पीड़ा, कंदोली व बरस्वार इत्यादि गाँवों के थोकदार जागीरदार कहलाये! भंधो असवाल व कत्युरी राजकुमारी पंवारी वीणा के प्रेम प्रसंगों के गीत उस काल से इस काल तक फिजाओं में गूंजते हैं. बर्ष 1990 से 1994 तक ब्रिटिश गढ़वाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका पर शोध करते हुए इनके प्रेम प्रसंग का गीत मैंने नगर गाँव असवालस्यूं की एक वृद्ध माता जी के मुंह से सूना जो बेहद कर्णप्रिय था और शायद इसीलिए वह बोल मुझे आज भी याद हैं:-
“हे पंवारी वीणा तम्बू वाडू, व्हे चौकी का सेरा, ब्वे तम्बू वाडू! माल माकू माल ब्वे तम्बू वाडू, भानदयो अस्वाल ब्वे तम्बू वाडू!!
आंखी रतन्याळई ब्वे तम्बू वाडू, पीली फफन्याली ब्वे तम्बू वाडू, राणी कु शौकिया ब्वे तम्बू वाडू, ज्वान छ हौशिया ब्वे तम्बू वाडू!!
पूरी प्रेम कहानी इस गीत में जब उभरकर सामने आती है तो लगता है मानो कल की ही बात हो वो भी आँखों देखी! बहरहाल इगास व बग्वाल पर प्रचलित दंत कथाओं, पवाणों, गाथाओं और गीतों से यही प्रतीत होता है कि ये कालांतर में ठीक वैसे ही विजयोत्सव रहे हैं जैसे द्वापर में रामचंद्र के राजतिलक के समय था. कुमाऊँ में भी ये उत्सव मनाये गए लेकिन वहां खतड़ के रूप में प्रचलित हुआ और वहां की बग्वाल 4 खामों के योद्धाओं का वह आत्मबल है जो आज भी माँ बराही को एक मनुष्य के खून के बराबर खून देकर उसकी रक्तपिपासा शांत करते हैं.

लोक जीवन और लोक गाथाओं का यह सामाजिक तानाबाना कालांतर से हमारी लोक संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है और यही कारण भी रहा है कि हमारा लोक समाज आज भी इन्हीं मेले उत्सवों के माध्यम से अपनी अलग पहचान बनाए हुए है! इगास को जिस तरह ग्रामीण परिवेश से लाकर गजेंन्द्र रमोला, कल्याण सिंह मैती, गढ़भोज के लक्ष्मण सिंह रावत ने शहर के युवाओं में उत्साह भरा है वह देखते ही बनता है. उत्तराखंड फिल्म असोशियशन के अध्यक्ष सुनील नेगी, पलायन एक चिंतन के प्रेणता रतन सिंह असवाल, फिल्म पटकथा लेखक बिशाल  नैथाणी, समाजसेवी विजयपाल, श्रीमती इंदु नेगी, हेमलता बलूनी इत्यादि ने इस उत्सव की खुले मन से तारीफ़ करते हुए कहा कि यकीनन ये परम्पराएं हमसे होती हुई हमारे युवाओं और नौनिहालों तक पहुंचनी चाहिए ताकि आने वाले कल में वे अपने को असहाय या कठमाली न समझें! टिहरियाल लोग अपने लोक समाज से जुड़े उत्सवों और लोक संस्कृति से जुडी विधाओं से जिस तरह प्रवास में भी जुड़े हुए हैं यही खासियत उन्हें हम सबसे अलग बनाये हुए है. क्योंकि जो लोक अपने समाज और संस्कृति को संजोये रखता है उस से धनवान कोई नहीं!

 

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