….आ अब लौट चलें- गाँव की ओर ..!
….आ अब लौट चलें- गाँव की ओर ..!
(मनोज इष्टवाल)
सचमुच एक ऐसा गाँव जहाँ की सौंधी माटी में पहुँचते ही आपको लगेगा कि क्यों पहाड़ में अतिथि देवतुल्य माने जाते है!
नवम्बर 2015 की यादें ताजा करता एक गाँव आज भी बरबस आँखों के सामने सपनों की तरह तैरने लगता है! तिलाड़ी काण्ड के जननायक स्वतंत्रता संग्राम सैनानी दयाराम रावत (रवांल्टा) व उनके पुत्र सुप्रसिद्ध समाजसेवी जोत सिंह रवांल्टा के गॉव कंसेरू पट्टी मुगरसंती, तहसील बडकोट जिला उत्तरकाशी में विगत दिन आयोजित की गयी कार्यशाला “पलायन एक चिन्तन….!” में अपेक्षा से कई ज्यादा लोगों के जुटने से जहाँ इस टीम का उत्साह दोगुना हुआ वहीँ इसमें शिरकत करने कुमाऊँ, दिल्ली, देहरादून. पौड़ी इत्यादि स्थानों से कई बुद्धिजीवी एक ऐसे गॉव में इकट्ठा हुए जिसने बान्हे फैलाए मेहमानों का स्वागत किया और अपने पहाड़ी ब्यंजनों की महक से सबको प्रफुलित किया.
झंगोरे की खीर, मंडूवे की रोटी, पिंडालू के गुटके, हरी पालक,राई की सब्जी, तोर व राजमा की दाल, आहा सच कहिये सारी थकान क्षण में उतर गयी.शायद यह पहाड़ का मेरी नजर में पहला गॉव मुझे दिखने को मिला जहाँ 150 परिवार रहते हों और शांयकाल में एक भी ग्रामीण के मुंह से शराब की खुशबु या बदबू आई हो.
मैं हतप्रभ इसलिए भी था क्योंकि यहाँ राणा और रावत दोनों ही राजपूत बाहुल्य के लोग हैं उसके बाद भी एक मात्र हरिजन परिवार का व्यक्ति ग्राम प्रधान है. इससे भी बड़ी बात यह है कि इस गॉव के प्राथमिक विद्यालय की दोनों अध्यापिकाएं देहरादून व ऋषिकेश की हैं
लेकिन मुख्य बाजार बडकोट से लगभग 8 किमी. दूरी स्थित गॉव में ही ये अध्यापिकाएं रहती हैं जिनका कहना है कि इस गॉव में कभी उन्हें ऊँची आवाज़ या गंदे लहजे में बात करने वाला व्यक्ति नहीं दिखा. ऐसी धरती को सचमुच चूमने का मन होता है. कंसेरू गाँव में आज भी गाँव की 100 प्रतिशत आबादी रहती है! यहाँ पलायन होता क्या है यहाँ के लोग नहीं जानते! ऐसा भी नहीं है कि यहाँ के लोग ऊँचे पदों पर कार्यरत न हों, लेकिन अपने गाँव की माटी व उसकी उर्वरा शक्ति से इन्हें इतना प्रेम है कि इसे छोड़ने का मन एक पल के लिए भी इनके दिलोदिमाग में नहीं आता!
ऐसे में भला अपना गाँव व उसमें जिए लकड़पन के पल किस इंसान को याद नहीं आते! यकीन मानिए रवाई घाटी के इस गाँव पहुंचकर मुझे तब अपना गाँव बहुत याद आया क्योंकि उसकी भौगोलिकता का मिलान काफी हद तक कंसेरू से मिलता जुलता है! मैं कई घरों में बैठा चाय पी, दूध पीया और पहाड़ जैसा आत्मीय शुकून भी पूरा पूरा लिया! तब से अब तक यही मन होता है कि – “आ अब लौट चलें गाँव की ओर…!”