आगासिया परी लोक..जहाँ ग्रामीण ने द्रोपदा को कसकर पकड़ दिया! जहाँ गुफाओं में दिखी उलटी ओखलियां..!
और बुजुर्ग ने खीर खाते पंचभैया यानि पांडवों की द्रोपदा को जकड़ कर पकड लिया…!
पिछले अंक में आपने पढ़ा होगा…”परियों को लगा कि ये वही व्यक्ति है जिसका वे कल खिलौँना छीनकर ले गयी तब उन्होंने उस औरत के गले का घेंघा उस व्यक्ति की गर्दन पर लगा दिया!
ये दंतकथाएं इसलिए भी नहीं कही जा सकती क्योंकि इन्हें गुजरे अभी कुछ ही साल हुए हैं!
अगासिया परियों को अब इन्होने अपनी देवियाँ मान लिया है इसलिए हर साल इन्हें ये भोग के रूप में फाटी चढाते हैं तब परियां हर संभव इनके जानवरों की व फसल की रक्षा में इनका सहयोग करती हैं!
(वहीँ पंचभैया का किस्सा बेहद रोमांचक है वे किस तरह खीर खा गए और किस तरह एक बुजुर्ग ने पकड लिया)!”

(मनोज इष्टवाल)
सचमुच यह बेहद रोचक घटना है यहाँ के बुजुर्ग बताते हैं- अरे साहब, मात्रियाँ (परियां) तो मात्रियाँ हुई हमने तो यहाँ पंचभैय्यों के रथ चलते देखे हैं वे कभी बिशेष पर्व पर ही दिखाई देते हैं! मैंने प्रश्न किया- ये पंचभैय्या कौन हुए? जवाब मिला – (सीधा हाथ विराट गढ़ की तरफ उठाते हुए अंगुली से) वहां जाकर देखिये न किसका महल है! पंचभैय्या यहाँ पांडवों के लिए बोलते हैं! वहां उस टीबे के उपर आज भी राजा विराट के महल के खंडहर हैं आज भी वहां उनके नाम की नौबत बजती है! यहीं पांडवों ने अपना गुप्तवास काटा था! वहां से होते हुए वे किसी बिशेष मौके पर आज भी विराट खाई होकर यहाँ जुल्का डांडा तक आते हैं तब ढोल नगाड़ों की आवाज गूंजती है! अपुष्ट शोर सुनाई देता हैं जैसे पंडवाणी में एक साथ सब शोर मचाते हैं सीटी बजाते हैं वैसे ही! कभी शोर नजदीक से सुनाई देता है तो कभी दूर से! उनके रथ को तो हमारे कई बुजुर्गों ने खुली चंद्रमा में जाते देखा है! घोड़ों की हिनहिनाहट उनके टापों की आव़ाज …और एक अजीब सा शोर! लेकिन साब, वो कभी किसी का नुकसान नहीं करते! मुझे बड़ा अजीब सा लगता है जब कोई साब संबोधन से पुकारता है लेकिन हम पहाड़ियों का यही गुण है इज्जत से अपने से ज्यादा दूसरे का दर्जा रखना वरना जो व्यक्ति साहब करके पुकार रहे थे जितनी हमारी साल भर का वेतन उतना वह मात्र 6 माह में अपने खेतों से कमा लेते हैं!
जीत सिंह बोले- अरे साब, कभी फुर्सत से सितम्बर अक्टूबर में समय निकालिए जब अमावस्या हो या फिर पूर्णिमा! तब आपको वह रात सारे अनुभव करवा देगी!

आप बेफिक्र रहिये पंचभैय्या कभी दूसरे को नुक्सान नहीं पहुंचाते! हाँ, जिस दिन किसी ने यहाँ खीर बना दी तो समझो पंचभैय्या यहाँ जरुर पहुँच जायेंगे! एक किस्सा हमारे पूर्वज सुनाते हैं कि म्वेस (भैंस) का दूध उस दिन हम गाँव नहीं पहुंचा पाए! सोचा खीर बना लेते हैं ताकि बर्बाद न जाय! उन्होंने शानदार निर्पाणी की लसपसी खीर बड़ा पतीला भरकर बना दी! एक छोटे पतीले की तो खा गए लेकिन घी की अधिकता से खीर और नहीं खाई जा सकी! इसलिए बड़ा पतीला वैसे ही रह गया! उन्होंने सोचा चलो सुबह घर जायेंगे तो वहां ले जायेंगे! चारों छानी में ही सो गए ! चन्द्रमा पूरे यौवन पर पसर रही थी जिसकी रौशनी छोटी खिड़की के रास्ते अंदर आ रही थी! थकान इतनी की गहरी नींद पड़ गयी अचानक दरवाजे खुले और पांच पुरुष एक स्त्री ने छानी में प्रवेश किया! वे सब चौंक गए व मुंह ढककर सोने का अभिनय करने लगे! एक जरा कान कम सुनते थे उन्होंने देखा कि ये तो सब चट कर गए उन्होंने निडरता से औरत को जकड़कर पकड लिया! वे चिल्लाते रहे ये देखो मैंने एक को पकड लिया लेकिन भला किसी की मजाल जो उधर देखता! सुबह जब नींद खुली तो देखा उन्होंने खल्टा (बकरी की खाल से निर्मित थैला जिसमें आटा रखा जाता है) पकड़ रखा है व उसका आता उनके ऊपर व मुंह में फैला हुआ है! जबकि खीर का बड़ा पतीला बिलकुल चाट-पोंछकर उनकी छाती के उपर रखा हुआ है!
हंसी तो खूब आई लेकिन डर भी उतना ही लगा जब वे उठे तो उनकी शक्ल देखते ही बनती थी! बाहर आकर देखा सचमुच बर्फ में पैरों के बड़े बड़े निशान साफ़ दिखाई दिए ! जो अलग अलग साइज़ में 6 लोगों के प्रतीक होते हैं! तब जाकर गणाई- पूछवाई में पता लगा कि वो पंचभैया थे! फिर उनकी पूजा दी और सब कुछ सामान्य हुआ! जीत सिंह बताते हैं कि अब भी कभी कभार हम लोग छानी में खीर बनाते हैं लेकिन दिन में बनाने के बाद तुरंत खा लेते हैं और बर्तन मांझकर रख देते हैं ताकि पंचभैय्या न आ जाएँ! इस बात की पुष्टि चन्द्रपाल तोमर ने भी की व पास ही छानी में दिगम्बर तोमर व पूर्व प्रधानजी ने भी की! वहीँ कुछ लोगों ने इसे भी अगासिया देवी/परी से जोड़ दिया और कहा कि वह तो अगासिया परी थी!

बेहद रोचक व रोमांचक किस्सों के बीच अब हम उस धार की तरफ बड़े जो यहाँ से बमुश्किल आधा किमी. उपर थी! जहाँ अगासिया देवी मंदिर था और जिसे अंयार का टीम्बा नाम से जाना जाता है! अभी बमुश्किल 50 कदम ही चल पाए थे कि घुप्प घने बादलों ने हमें घेर दिया! मुझसे पांच कदम आगे चल रहे चन्द्रपाल बमुश्किल एक साए की भाँती दिखाई दे रहे थे! कोहरा इतना घना कि हाथ को हाथ नहीं सुझाई दे रहा था! बुग्गीदार मखमली घास में तीखे पत्थरों के साथ नीचे ढलान! मानों मौत के कुंवे में कदम रख रहे हों! हवाएं इतनी तेजी से सांय-सांय कर रही थी कि उनकी ठंड से जहाँ एक ओर झुरझुरी हो रही थी वहीँ अजीब सा संगीत गूँज रहा था अपने दिल का वहम दूर करने के लिए मैं चंद्रपाल तोमर जी से बोला- तोमर जी ये तो घुप्प कोहरा छा गया है और कोहरे में इतनी नमी है कि कपड़े गीले हो रहे हैं! मेरा कैमरा भी! ऐसे में कैसे पहुंचे वहां! चन्द्रपाल बोले – सर, ऐसा कोहरा यहाँ हमेशा ही फैलता है! एक किस्सा सुनाता हूँ जब यहाँ शुरूआती दौर में बाँझ, कैल, मोरपंखी देवदार के पेड़ लगे थे तब एक जंगलात का फारेस्ट गार्ड नियुक्त हुआ था वह इतना हराम था कि किसी को यहाँ चारापत्ती तक नहीं काटने देता था! सब उस से परेशान थे लेकिन करते भी क्या! सरकारी मुलाजिम जो ठहरा..! एक बार वह ऐसे ही कोहरे में फंस गया और रास्ता भूल गया! वह कभी इधर भटकता कभी उधर..! आखिर जब उसे कुछ नहीं सूझा तो वह एक जगह बैठकर जोर-जोर से रोने लगा! लोगों ने उसका रोना सूना लेकिन कोई भी जानबूझकर उसकी मदद करने नहीं गया जब अति हो गयी तब उसे शाम तक वापस लाये तब से उसने कान पकड लिए! मैं बोला- अरे यार ऐसे मत डराओ! अब छोड़ो क्या जाना अगासिया परी मंदिर..!
चन्द्रपाल हंसा व बोला- अरे सर, बस पास ही है! लेकिन मैं क्या करूँ मुझे तो स्याली भरणा व जीतू बगडवाल याद आ गए थे! सचमुच इतने डरावने कोहरे के बीच चलना मुझे अच्छा नहीं लगा अत: चन्द्रपाल को बोला- भाई कहीं पास सुरक्षित से स्थान पर चलो, थोड़ा कोहरा कम हो तो बात बने! वह बोला- बस सर, चार कदम और..! आगे एक ओडार है! ओड़ार मतलब गुफ़ा! जिसे हम बानकोटि बोलते हैं तो कुछ बनकुड़ी ! वहां बैठते हैं! उसमें आपको गुफा के अंदर उल्टी ओखलियाँ दिखाई देंगी! बहुत सुंदर है..!

अब पूछो मत मेरे लिए आगे मौत पीछे खाई जैसी स्थिति थी! क्योंकि अब खैट पर्वत आँखों के आगे तैरने लगा था जहाँ कुण्डी की पहाड़ियों पर मैंने न सिर्फ ऐसी ओखलियाँ देखि थी बल्कि ताज़ी बासी धान की भुस्सी भी देखी थी! खैट की भराड़ी देवी जिसे भराडी आँछरी/परी भी कहते हैं सब याद हो गया! जीतू को यहीं उन्होंने घेरा था! मेरे कानों में बर्षों पुराने वो घुंघुरू स्वर खनखनाती आवाज गूंजने लगी! बस अब हम गुफा के मुआयने तक पहुँच ही गए थे जहाँ अजीब सा माहौल था! जिसकी उलटी ओखलियाँ मुंह चिढा रही थी!

(बाकी अगले अंक में…? जारी है अगासिया परी लोक)