आखिर क्यों जाना पड़ा निरंकार देवता को शिल्पकार के घर! निरंकार के मृत्युलोक में पहुँचने के पीछे क्या रहा कारण!

आखिर क्यों जाना पड़ा निरंकार देवता को शिल्पकार के घर! निरंकार के मृत्युलोक में पहुँचने के पीछे क्या रहा कारण!

(मनोज इष्टवाल)
यह ऐसा देवता है जिसे सवर्ण समाज जल्दी से अपने घर आसरा नहीं देता! यह ऐसा देवता है जिस पर रुष्ट हो गया तो कुष्ट फैलाने में एक मिनट भी देरी नहीं करता! यह ऐसा देवता है जिसमें चढती है सूअर की बलि! यह ऐसा देवता है जिसका पूजन करने में दलित समाज अपना सौभाग्य समझता है वहीँ सवर्ण समाज के लोग इसकी पूजा मजबूरी में देते हैं क्योंकि यह तभी सवर्ण के घर जाता है जब दलित को किसी तौर पर किसी सवर्ण समाज ने प्रताड़ित किया हो या दलित ने देवता के नाम की घात या जैकार डाली हो!

यह जहाँ गढ़वाल मंडल के विभिन्न क्षेत्रों में निरंकार के रूप में पूजा जाता है वहीँ यह कई जगह गोसाईं के नाम से जाना जाता है! सबसे बड़ी बात यह है कि हर जगह इसकी पूजा विधि एक सी है! इसकी पूजा यों तो सात दिन सात रात की मानी जाती है लेकिन ज्यादात्तर तीन दिन तीन रात ही निरंकार की पूजा की जाती है! रवाई क्षेत्र में इसे गोसाईं देवता के नाम से जाना जाता है व इसकी पूजा का नाम खोंदाई कही जाती है! जिसे इस क्षेत्र के हरिजन लोग तीसरे या पांचवें बर्ष करते हैं!
इनकी उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि तनबूट नामक ऋषि की एक कन्या थी जो भगवान् की मात्र दृष्टि पड़ने से ही गर्भवती हो गयी! अक्सर सभी माँ नौ माह पुत्र को गर्भ में धारण करती हैं लेकिन यह पुत्र 12 महीने बाद भी जब जन्म नहीं लेता तो फिर एक दिन वह माँ से बोला- माँ ये बता कि मैं जन्म कहाँ से लूँ? माँ अचकचाकर बोलती है कि जो सांसारिक राह है उस से उत्पन्न हो! लेकिन जन्म से जुडा नाम पड़ने के कारण वह आँख कान या अन्य माध्यमों से जन्म न लेकर स्तन के रास्ते जन्म लेता है! जिससे दूध की धारा फूटने लगती है और यही कारण भी है कि इसकी पूजा दूध के साथ शुरू होती है!
यह शिशु सूर्य के तेज सा तेजस्वी व प्रचंड था! एक दिन ऋषि पुत्री पुत्र को पिता भरोंसे छोड़कर किसी कार्यवश चली जाती है! शिशु रोने लगता है और जैसे ही पिता उसे गोद में उठाने की कोशिश करता है तो उसके ताप से जलने लगता है! वह शिशु को नीचे रखता है तब शिशु के दुबारा रोने की आवाज से पिता फिर उठाता है लेकिन ताप सहन नहीं कर पाता! यह सिलसिला कई बार चलता रहा! ऋषि को गुस्सा आया और उन्होंने बच्चे को एक पत्थर शिला पर पटक दिया! शिशु के 14 टुकड़े हुए जिन्हें क्रोध  शांत होने पर ऋषि ने घबराकर एक सन्दूक में बंद कर दिया ! पुत्री ने जब पिता से अपने पुत्र के बारे में पूछा तब पिता ने सारी कहानी बयान कर दी! पुत्री पुत्र के 14 टुकड़ों को देखकर चिड़िया के भेष में देवताओं के दरवार जा पहुंची जहाँ उसने ईश्वर के पास उन्हीं के पुंज से प्राप्त पुत्र के उत्पन्न होने से लेकर 14 टुकड़े होने तक का पूरा वृत्तांत सुना दिया! ईश्वर को तरस आया और उन्होंने उन 14 टुकड़ों में 13 भाई और एक बहन को बना सबको जीवित कर दिया! बहन के रूप में चंद्रमा हुई! जो आकाश में टिमटिमाने लगी लेकिन 13 पुत्रों के ओज से श्रृष्टि जलने लगी चारों ओर हाहाकार मचने लगा! पेड़ पौधे नदी नाले सूखने लगे! ऐसे में ईश्वर ने ऋषि पुत्री से कहा कि वह सब बच्चों को लेकर एक छत्त के नीचे आ जाए! इसे में सभी को बंटवारा मिला जिनमें 12 भाइयों को बारह महीने दिए गए जिनमें चैत, बैशाख, जेठ, आषाढ़, श्रावण, भादो, असूज, कार्तिक, मंगशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन के जन्म संस्कार हुए! चन्द्रमा को रात का हिस्सा मिला! 13 पुत्र सोया रहा इसलिए उसके भाग्य में कुछ नहीं आया! माँ ने इधर उधर बहुत ढूँढने के बाद पाया कि वह तो अभी सोया ही है! उसे बहुत जगाने की कोशिश की लेकिन वह जगा नहीं! तब माँ ने उसके सिरहाने सप्तमुखी शंख, व पांवों की तरफ थालियों का बड़ा ढेर लगा दिया! ताकि उसकी साँसों से शंख बजे व हिलने डुलने से थालियाँ लुढ़कें और उसकी नींद खुले! आखिर हुआ वही! जैसे ही उसकी साँसे शंख के पास गयी शंख बजने लगा जैसे ही वह हिला थालियाँ खनकने लगी! उसकी नींद खुली और वह क्रोध से चिल्लाया कि- आज किसका काल आया जिसने मेरी नींद तोड़ी! तब माँ पक्षी रूप यानि सोनपंखी गरुड़ रूप में उसे साड़ी कहानी सुनाती है व उसे श्रृष्टि रचियता के पास लेजाकर उसका हक अधिकार मांगती है!
ईश्वर ने आँखें बंद की और आखिर उसे कहा कि तू जा गोसाईं! पूरा मानव मंडल तेरा हुआ यानि मृत्युलोक! मृत्युलोक तो मिल गया लेकिन वहां पहुंचना इतना आसान भी नहीं था! वहां पहुँचने के लिए वह लोहार सुनार से लेकर सबके पास गया लेकिन किसी के पास ऐसा सूत नहीं मिला जो उसे मृत्यु लोक पहुंचा दे! आखिर सिदवा ने उसे सूत दिया और वह निराकार रूप में निरंकार होकर मृत्युलोक/मानवलोक पहुंचा! यही निरंकार को अवतरित करने की परम्परा भी है! जहाँ भी उसकी पूजा होती है सभी परिवार गौबंद होकर अपनी श्रधा दिखाते हैं और निरंकार प्रकट होते ही पूछता है कि आखिर किसका काल आया जो मुझे जगाया गया!
ऐसा नहीं है कि निरंकार आते ही सीधे दलित के घर चला गया वह मानवलोक में सर्वप्रथम राजपूत के घर गया जहाँ वह फूल प्रसाद के साथ सत्यनारायण रूप में प्रकट हुए! ब्राह्मण के घर उनका भात पकोड़े से स्वागत हुआ तो वे पितृ देवता कहलाये! राजा के महल गए तो उन्हें बकरे की बलि चढ़ाई गयी तो उन्हें वीर-बेताल के रूप में पूजा गया! अभी वह भ्रमण कर ही रहे थे कि उन्हें एक खूबसूरत दलित महिला दिखाई दी! जो टोकरी में पुआ प्रसाद / या गहत की दाल का बना आटे का पराठा लेकर जा रही थी उसके पीछे पीछे सुअर चल रहा था! उनका मन ललचा गया और मुंह में पानी आ गया! बस तब से वे दलित के घर के ही निवासी माने गए उन्हें शिल्पकार समाज खुश करने के लिए आटे का रोट, आटे का हलवा व बलि के रूप में सुअर दिया करता है! रवाई में उन्हें गहत की दाल का इंड्रा बनाकर भोग चढ़ाया जाता है! वहीँ उनकी पूजा में चावलों का जमीन पर “बार” लगाया जाता है व इस बार में जितना भी चावल इकट्ठा होता है उसका एक चौथाई हिस्से का दूध भात या भात उनके भोग के लिए पकाया जाता है बाकी तीन चौथाई चावलों को उनके जगरिये/डंगरिये/ पुजारी ले जाते हैं! इस अनुष्ठान के लिए पच्चीस रोट पकाए जाते हैं जो प्रत्येक बीस मुट्ठी यानि एक खारी (खारी बराबर एक पाव आटा । प्रत्येक 20 मुट्ठी आटे का एक रोट। अर्थात 500 मुट्ठी आटे के 25 रोट) के समान माना जाता है! मूलतः 20 दोण की एक खार मानी जाती है अर्थात 32×20=640 किलो। और अगर 640 किलो के मात्र 25 रोट बनाये जाएं तो एक रोट लगभग 25किलो 600 ग्राम का हुआ।  किसी काल में जब गांव सम्पन्न हुआ करते थे तब यकीनन ग्रामीण ऐसा ही करते थे लेकिन यह बाद में निमित माना गया व प्रत्येक मुट्ठी को एक दोण निमित माना गया ताकि 20 मुट्ठी से एक खारी बनाई जा सके। इन 20 मुट्ठियों का एक रोट बनने लगा व ऐसे 500 मुट्ठी के 25 रोट तैयार  किये जाने लगे।निरंकार जिस पर अवतरित होते हैं उसके सिर के उपर कंडी रखी जाती है जिसमें फलफूल भोग मिष्ठान रखे जाते हैं व व दोहरे सूत नौ इंच की नौ डंडियाँ सीढ़ी के रूप में बनाई जाती है इसके बाद इन्हें रुई की बत्तियों/फुहावों से सजाया जाता है जिसे “सिंवरी सजाना” कहा जाता है!
निरंकार अंतिम दिन सबके बाक बोलता है जो भी वहां चावल की बारी लेकर आता है वह उन्हें दिल खोलकर दुआ देता है व उनकी तरक्की व निरोगी त्वचा का आशीर्वाद देता है! वर्तमान में सुअर बलि इस पूजा से हटा दी गयी है व मात्र श्रीफल की बलि से ही गोसाईं या निरंकार को प्रसन्न किया जाता है!

(सम्पूर्ण कहानी विभिन्न जागरियों/ धामी/ डंगरीयों से पूछकर लिखी गयी है जिसमें सबका निरंकार की उत्पत्ति सम्बन्धी एक ही कथन है! कोई और जानकार इस से अधिक जानता हो तो कृपया मार्गदर्शन करने की कृपा करें)!

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