आखिर करिश्मा बन ही गयी दुल्हन! प्रश्न यही कि..क्या पहाड़ में भी ऐसा हो सकता है?

(मनोज इष्टवाल)

कल करिश्मा की मेहँदी थी लेकिन उसकी आँखें अब भी उसी शून्य को निहार रही थी जिस शून्य का जवाब हासिल पाया शून्य ही होता है! अब वह 11 बर्षीय ऐश्वर्य नहीं बल्कि 23 बर्षीय करिश्मा हो गयी थी! आज उसके इर्द-गिर्द समाज की कुछ ऐसी ही उपेक्षित बेटियों का बड़ा सा झुण्ड था जिनमें से कई ये नहीं जानती कि उनके बचपन ने आसरे की तलाश कहाँ कहाँ की! लेकिन आज ये बेटियाँ खुशियों के एक ऐसे मंजर से रूबरु हो खिलखिला रही थी जिसकी कल्पनाएँ हर बेटी युवावस्था में प्रवेश करते ही शुरू कर देती है क्योंकि आज उनकी सहेली की मेहँदी की रस्म जो थी! भले ही मेहँदी पर ढोल की आवाज नहीं थी लेकिन रुबीना ने तो सोच लिया था वह जमकर नाचेगी ! वह सचमुच डीजे जैसे यंत्र में गीतों की स्वरलहरी के साथ जमकर नृत्य कर रही थी! करिश्मा की मेहँदी में सहेलियों के बीच घिरी करिश्मा कभी कभार हंस तो देती लेकिन उस शून्य की भरपाई उसकी आँखें नहीं कर पा रही थी जिसे विधि के विधान व मनुष्यता के कलंक ने उसके बचपन में ही उसे दे दिए!

लाल टी शर्ट में डॉ. बी.पी. बलोधी, करिश्मा, पराज की सचिव सुनीता भट्ट, व पंकज रावत

क्या है ऐश्वर्या की कहानी ……! यह मैं अवश्य आपको उस शख्स के मुंह आपको सुनवाऊंगा जिसने 12 बर्ष पूर्व करिश्मा व उसके छोटे भाई राहुल को पौड़ी गढ़वाल के एक गाँव से लेकर देहरादून तक का सफर करवाया व उसे इस लायक बनवाया ताकि वह मजबूती से खड़ी होकर आम जन की प्रथम पांत में खड़ी होकर यह साबित कर सके कि बेटी किसी की भी हो वह जब ठान लेती है तो बस ठान ही लेती है! पराज सामाजिक संस्था पौड़ी के डॉ. बी. पी. बलोधी ने कैसे इन दोनों भाई बहन की जिम्मेदारी निभाई! कैसे उन्होंने तथाकथित समाज की परवाह न करते हुए इनकी राह आसान की यह जानकारी देते हुए सचमुच डॉ. बी.पी. बलोधी की आँखों में आंसू की बूंदे मंडराने लगी थी! वह बाप की भूमिका में एक ऐसी बेटी को अपना सानिध्य दे रहे थे जिसके माँ बाप की मौत बचपन में ही हो चुकी थी! सचमुच यह दास्ताँ सुनते-सुनते मेरी भी आँखें भर आई थी!

अपनी सहेलियों के साथ करिश्मा

बहरहाल करिश्मा की मेहँदी देहरादून के एक नामी गिरामी होटल में थी ! विगत दिन ही तो डॉ. बलोधी का फोन आया था ! बोले – इष्टवाल जी, बेटी की शादी है आपको जरुर आना है! और हाँ …कैमरा लाते हुए मत भूलना! मैंने शुभकामनाएं दी ! जानता था कि अभी डॉ. बलोधी के बच्चे तो छोटे व स्कूली हैं इसलिए लापरवाही से बोला- अरे क्या, कालेश्वर (डॉ. बलोधी के बड़े भाई) की बेटी इतनी बड़ी हो गयी हैं ? बोले- नहीं, यार मेरी ही बेटी है! आओ तो सही ! बड़ी लम्बी दास्ताँ है यहीं बैठकर सुनाऊंगा! मैं एक ऐसी बेटी का बाप हूँ जिसके माँ बाप उन्हें बचपन में ही छोड़ कर चले गए थे! मेरे मुंह से ओह…शब्द फूटा! मैं जानता था जरुर डॉ. बलोधी ने फिर से किसी की जिम्मेदारी उठा ली होगी क्योंकि यही तो उनकी समाजसेवा का वह जूनून है जिसे निभाने में वह एक पल भी नहीं सोचते कि आगे चलकर इसका परिणाम क्या होगा!

आसरा फाउंडेशन के लोगों के बीच करिश्मा

शाम चार बजे जब मैं उनके बताये होटल पहुंचा तो एक कमरे में बैठी लगभग चार-पांच लडकियां गिफ्ट पैक कर रही थी! दरवाजे खोलने वाली लड़की से ही पता चला कि उसी की शादी है! अभी डॉ. बलोधी व पंकज रावत मंदिर में शादी की व्यवस्था करने जा रखे थे! ऐश्वर्या ने मुझे पानी पिलाया व बड़ी शालीनता के साथ डॉ. बलोधी का फोन लगाया लेकिन लगा नहीं! फिर पंकज रावत को फोन लगाया तब उन्होंने बताया कि डॉ. बलोधी पंडित जी के पास अंदर बैठे हैं व वहां नेटवर्क नहीं हैं! लड़कियों के हाथ गिफ्ट पैक करते हुए इतने पारंगत लग रहे थे मानों सबकी अपनी अपनी गिफ्ट पैक करने वाली दुकानें हों! इनमें सबसे छोटी गुंजन नेगी थी जो अपने घर परिवार के साथ रहती है लेकिन कुछ ऐसी भी थी जिन्हें यह तक पता नहीं था कि उनका घर कहाँ है और उनके माँ बाप कौन हैं! क्या रुबीना क्या शाहीना क्या तनु या फिर क्या आरती! सभी अपने कार्यों में ब्यस्त थी! शाहीना खूब चहक रही थी क्योंकि उसकी मांग का सिन्दूर बता रहा था कि वह अब बालिका निकेतन से निकलकर अपने पति के घर पहुँच चुकी थी! इधर पराज संस्था के अध्यक्ष पंकज गैरोला व सचिव सुनीता भट्ट अपने अपने कार्यों में ब्यस्त थे!

यह अजब-गजब का संयोग रहा! आज करिश्मा अपनी खुशियों के साथ पराज परिवार के खाते में भी खुशियाँ डाल गई! पराज के अध्यक्ष पंकज गैरोला जोकि पेशे से पत्रकार हैं को आज ही पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई! बहरहाल करिश्मा की ख़ुशी साझा करने के लिए तनु, आरती, शाहीना, रुबीना, गुंजन जैसी लगभग दर्जन भर बेटियाँ वहां मौजूद रहीं! सभी के चेहरे में वही नूर था वही बारात देखने के सपने वही जीजा से हंसी ठिठोली की बातें ! सब परिदृश्य में दिखाई दे रही थी! इधर पराज समाज संस्था की सचिव सुनीता भट्ट की बहन श्रीमती कविता इष्टवाल भी दुल्हन को आशीर्वाद व शगुन के तौर पर भेंट देने पहुंची थी तो दूसरी ओर करिश्मा की ताऊ ताई लोग भी….!

खैर मेहँदी की रस्म निभाते हुए मैं तो कैमरे की आँख से सिर्फ और सिर्फ करिश्मा बिष्ट के चेहरे की झंझावतें देख रहा था उसे कहीं न कहीं वह नीरसता दिखाई दे रही थी जहाँ उसकी माँ उसकी कल्पनाओं में थी ! उसे यह भी आभास हो रहा था कि काश…उसकी भाभियाँ, बुआयें, बचपन की सखियाँ, मांगल गीत गाती बुजुर्ग महिलायें, बधैs, शबद, धुंयेल , नौबत बजाते ढोल और पीट्ठू कूटती, दाल पीसती गाँव की माँ बहनें, तैका लगाते गाँव के ताऊ, चाचा, भाई, मामा इत्यादि होते तो कैसा होता! दिल का राज आँखों से भला कहाँ छुपा रहता है! उसकी फोटो तो मैं खींच रहा था लेकिन उसमें उसकी अल्हड़ता का वह स्वाद वह ख्वाब नहीं दिखाई दे रहे थे जो अन्तस् से महसूस किये जा सकें! हाँ…इतना जरुर था कि वक्त बेवक्त उसकी सखी गुंजन नेगी उसके कान में फोन सटा देती व वह बड़े अदब के साथ कहती हाँ पापा जी…! जी पापा जी! जरुर पापा जी..!

यह सब उपक्रम चलते रहे तो रात्रि पहर मेहँदी रस्म खत्म होने व सबको खाना खिलाने के बाद जब हमारे खाने की नौबत्त आई तब तक 1 बज चुका था! मेरे हृदय में अभी भी वही सवाल घुमड़ रहे थे जिन्हें डॉ. बी. पी. बलोधी की व्यस्तता के कारण मैं पूछ नहीं पाया था! आखिर पत्रकारिता की भी तो कोई धर्म होता है वही निभाने के लिए मैंने प्रश्न उछाल ही दिया- क्या यार, डॉ. बलोधी , आप तो कह रहे थे कि लड़की के माँ-बाप कोई नहीं हैं फिर लड़की बार – बार किसे जी पापा हाँ पापा कहकर फोन पर बात कर रही थी! डॉ. बलोधी हंसते हुए बोले- सच में..! अरे वह अपने ससुर जी से फोन पर बात कर रही होगी!

उनके हाथ का गिलास दो घूँट पानी पीने के बाद बिराम करने लगा! अभी कमरे में पंकज गैरोला, पंकज रावत, डॉ. बी.पी. बलोधी व मैं ही मौजूद थे! चारों ही पेशे से पत्रकार व चारों ही लोक समाज की बातों को संजीदगी से उठाने वाले शख्स! अचानक डॉ. बलोधी बोले- अरे हां पंकज, कल विनोद पोखरियाल को जरुर बता देना कि शादी में आये! उसी ने तो दैनिक जागरण में शुरुआत की थी और फीचर लिखने के साथ ही मुझे मजबूर किया कि मैं दो किमी. की खडी चढ़ाई चढ़कर विकास खंड पाबौ के दुमलोट गाँव जाऊं! अब शुरुआत हुई असली कहानी की! इधर पंकज रावत ने एक बजे रात्री विनोद पोखरियाल को फोन लगाया उधर डॉ. बी.पी. बलोधी ने 12 बर्ष पूर्व के अतीत के पल ताजा करने शुरू कर दिए!

उन्होंने कहा- यह कार्य उनके संस्था पराज के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था क्योंकि तब यह खबर अखबारों की सुर्ख़ियों में थी! मुझे जो निर्णय लेना था वह सामाजिक परिवेश के अलावा घरेलू परिवेश से भी जुड़ा हुआ था! तब करिश्मा 11 साल की व उसका भाई राहुल 6 साल का था व चिपलघाट स्कूल में पढ़ रहे थे! जब उनके सिर से उनके बाप का साया भी उठ गया! माँ तो दो बर्ष पूर्व ही स्वर्ग सिधार गयी थी! करिश्मा के पिता सरत सिंह बिष्ट पूर्व में गाड़ी चलाया करते थे! पत्नी से अपनी असाध्य बीमारी की बात शायद कह नहीं सके और पत्नी उन से पहले संसार छोड़ चली! जब उन्हें इलाज नहीं मिला तो वे भी भगवान् को प्यारे हो गए! उनकी मौत ने उस ग्रामीण समाज को झकझोर कर रख दिया जहाँ अभी शिक्षा का उजाला पूरी तरह फैला नहीं था! तरह-तरह की बातें उठती रही! जैसे तैसे बाप की तेहरवीं ग्रामीणों की और फिर इन बच्चों की परवरिश कैसे हो यह बड़ा प्रश्न उठ खड़ा हुआ! क्योंकि दैनिक जागरण के तत्कालीन पौड़ी प्रभारी विनोद पोखरियाल इसी क्षेत्र के थे अत: उन्हें खबर मिली कि इन दोनों बच्चों की भूखों मरने की स्थिति है ! माँ बाप की असाध्य रोग से मृत्यु के बाद ग्रामीणों ने तो दूर परिजनों ने भी इनकी ओर झाँकने से इनकार कर दिया! बेचारी नन्हीं गुडिया …जब पेट की आग बुझाने के लिए पनघट पर जाती तब उसे काफी इन्तजार करना पड़ता ताकि वह पानी भर सके! और जब वह पानी भर लेती तब ग्रामीण महिलायें पनघट के उपर कई बंठे या बाल्टी पानी डालकर उसे शुद्ध करते ! उन्हें डर होता कि कहीं इनकी बीमारी हम तक न पहुंचे!

यह सब सुनाते हुए डॉ. बी.पी. बलोधी की मनोदशा देखते ही बनती थी ! मैं देख रहा था उनके हाथों में अभी भी वह निवाला जैसा का तैसा था जो उन्होंने तब तोडा था जब मैंने उन्हें प्रश्न किया था! वे धाराप्रवाह बोलते हुए उस बिषाद को मिटाने का भरपूर यत्न कर रहे थे जो जो उन्होंने देखा व इन 12 बर्षों में झेला! बोले- इष्टवाल जी, मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि अपना पहाड़ी समाज भी इतना निरंकुश हो सकता है! आखिर इन मासूमों पर जो पहाड़ टूटा था उसकी भरपाई करने वाले विधाता को भी शायद शर्म नहीं थी कि आखिर इस सब के पीछे इनका क्या दोष! जब मैं दुमलोट गाँव पहुंचा था तब ये दोनों बच्चे स्कूल जा रखे थे! इनकी घर आंगन में पहुँच एक महिला ने इशारे से बताया था कि ये है उनका घर..! समय काफी था इसलिए सोचा- देख लूँ कि घर के अंदर इन लोगों के पास है क्या! आपको ताजुब होगा यह सुनकर कि घर के कोने पर दो आलू पड़े थे व एक बर्तन में सिर्फ मुट्ठी भर आटा ही बचा था! एक गद्दा व एक फट्टी सी रजाई एक कोने पर थी जिस से बदबू आ रही थी! फिर भी इन बच्चों का साहस देखिये – स्कूल जा रहे थे! मुझसे मेरे आंसू नहीं रोके गए ! मन ही मन सोचा अभी इ बच्चों को साथ उठाऊं और पौड़ी ले चलूँ लेकिन यह भी मजबूरी थी कि अभी घर में किसी से इस सम्बन्ध में बात नहीं की थी! शाम ढलने लगी थी! स्कूली बच्चे घर पहुँच गए थे लेकिन अभी तक ये दोनों घर नहीं पहुंचे थे! मेरी आशंका थी कि कहीं बच्चे भूख से त्रस्त हो अपनी जान न गँवा बैठे हों!

मेरी ब्यग्रता बढ़ी तो दो बच्चों को उन्हें आवाज लगाने के लिए भेजा तो देखा दूर पहाड़ी से जवाब आया ! दोनों भाई बहन वहां बैठे हुए थे! खैर आवाज देने के बाद घर आये! मेरे पास समय नहीं था ! मैंने जेब से करिश्मा को कुछ रूपये निकालकर दिए और उसे कहा कि वह अपने भाई को लेकर कल सुबह पौड़ी की बस में बैठकर आ जाए! उसे कैसे आना था यह सब समझाया और वहां से चला आया! रास्ते भर यही झंझावत थे कि कहीं माँ ने मना कर दिया या फिर श्रीमती ने तो क्या होगा! खैर मैं जानता था कि मेरा घर परिवार मेरी सामाजिक भूख को अच्छी तरह पहचानता है! घर जाकर सब ठीक ठाक हुआ तो दूसरी सुबह ये दोनों बच्चे घर पहुँच गए! पेट की भूख और आस की किरण भला कहाँ किसी को मजबूर नहीं करती! अभी इन दोनों को मेरे घर पर एक माह ही हुआ था कि मन में प्रश्न उठने लगे कि हो न हो लोग ये सोचने लगे कि अपने घर का काम करवाने के लिए वह चालाकी से इन बच्चों को नौकर बनाने ले आया! पंकज रावत से बात हुई उसने बड़ा दिल दिखाया व एक माह इन दोनों को अपने घर रखा! तत्कालीन जिलाधिकारी पौड़ी दिलीप जावलकर साहब से बात की तो उन्होंने दोनों की व्यवस्था बालिका निकेतन देहरादून में कर दी!

बालिका निकेतन में जब भी मैं इनसे मिलने जाता तो करिश्मा मुझ पर ऐसे चिपक जाती जैसे माँ की छाती से बच्चा चिपका होता है! वह फफक-फफककर रोती और कहती – मुझे यहाँ से ले चलो, मुझे यहाँ नहीं रहना! सचमुच बालपन के आंसू अंतर्मन को झकझोर देते थे! इनसे विदा होकर ऐसे लगता था माना अपनी बेटी को विदा कर लौट रहा हूँ! हाँ..इसके इस प्यार ने इतना तो कर ही दिया कि मैंने इसके नाम से डाकघर में एक खाता खोल दिया और जब भी जो बन पाता उसमें जमा कर लेता! यह अच्छा हुआ कि मेरे निर्देशों पर दोनों भाई बहनों ने पढ़ाई नहीं छोड़ी! बालिका निकेतन के बाद इन्हें सचमुच आसरे की तलाश आवश्यक हो गयी थी! मेरी भी चिंता थी कि कैसे इनका भविष्य बनाया जाय! समाज और सामाजिक बदलाव शाम का खाया सुबह याद नहीं रखता भला किसी को क्या चिंता होती! आखिर लगभग दो तीन साल बाद इन्हें आसरा नामक संस्था द्वारा आसरा दिया गया! वहीँ से करिश्मा ने एमए तक पढ़ाई की और फिर होटल मैनेजमेंट कर अपने लिए स्वयं ही नौकरी ढूंढ ली! यहीं नया गाँव हाथी बडकला के पंकज नेगी पुत्र राजेन्द्र सिंह नेगी से इनकी मुलाक़ात हुई! पंकज भी होटल मैनेजमेंट ही कर रहे थे! आज देखिये करिश्मा हमारी बेटी दुल्हन बनकर पंकज की सहधर्मिणी बन रही है! यह कहानी सुनने के बाद भला कौन आँख हो जिसके पोर गीले न हुए हों! ऐसा ही कुछ हम सभी के साथ था! मुझे पराज सामाजिक संस्था के उन सामाजिक मूल्यों पर अभिमान हो रहा था जिनका कभी मैं भी हिस्सा रहा हूँ! बतौर संयोजक मेरे द्वारा पौड़ी गढ़वाल के राठ क्षेत्र में ही रिप्रोडक्टविटी चाइल्ड हेल्थ पर कार्य किया गया था तब मेरी टीम में अनुभवी योगम्बर पोली, रमन रावत, गीता भट्ट जैसे सामाजिक कार्यकर्ता जुड़े थे! आज यही पराज फिर वरदान बनकर सामने आई तो अन्तस् में मीठी पीड़ा के साथ गर्व का आभास हुआ!

पराज के अध्यक्ष पंकज गैरोला बोल पड़े- पराज की टीम में हम लोगों ने आपसी सहयोग से जो कुछ भी किया वह तब गौण हो गया जब मैं राजपुर/मसूरी विधायक गणेश जोशी जी के पास इस बेटी/बहन की पीड़ा लेकर गया था उन्होंने तुरंत फोन पर खाने की व्यवस्था व टपकेश्वर मंदिर में शादी की व्यवस्था अपने स्तर पर करवा दी! शायद यह उनका बडप्पन कहा जा सकता है! यकीनन यही तो विधायक गणेश जोशी की सहजता है कि उनके यहाँ से कोई खाली हाथ नहीं जाता और यही कारण भी है कि वह लगातार मसूरी विधान सभा क्षेत्र से चुनाव जीतते आ रहे हैं! काश…ऐसे ही विधायक पूरे प्रदेश में होते जो निश्वार्थ मन से सामाजिक कार्यों के लिए हाथ बंटाते हैं!

बहरहाल यह करिश्मा की अकेली कहानी नहीं है! जाने समाज में ऐसी कितनी बेटियों हैं जिन्हें सामाजिक रूडीवादिता से दो चार होना पड़ता है लेकिन हर कोई करिश्मा बन भी पाती है कि नहीं यह बड़ा प्रश्न है! क्योंकि करिश्मा ने हर मोर्चे की लड़ाई में अपने मजबूत इरादों की बुनियाद के साथ आगे कदम बढाए! वह यह अच्छे से जानती थी कि उसके पहाड़ी संस्कारों की मजबूती के पीछे खडी पराज संस्था की टीम व डॉ. बी.पी. बलोधी का मान सम्मान उसके साथ जुड़ा है , इसीलिए आज करिश्मा की शादी में हम सब एक साथ शिरकत भी कर रहे हैं लेकिन प्रश्न आज भी ज्यों का त्यों खड़ा है कि क्या देवभूमि के समाज में करिश्मा जैसी पहली घटना है जिसने सामाजिक व पारिवारिक मूल्यों का बुरी तरह ह्रास किया! डॉ. बी.पी. बलोधी की मानें तो उनका कहना है कि उन्होंने जितने भी इन बच्चों के रिश्तेदार थे हर किसी को इनकी देख-भाल के लिए कहा! यहाँ तक भी कहा कि इनका पूरा खर्चा वे स्वयं वहन करेंगे लेकिन एक ने भी अपनी रजामंदी नहीं दी! उन्होंने करिश्मा के ससुर व सासू माँ की जी भरकर प्रशंसा की व कहा कि करिश्मा के ससुर ने कहा हमें बेटी दो कपड़ों के साथ भेजिए हमें स्वीकार्य है लेकिन मैंने भी तो करिश्मा को बेटी ही माना है! कोशिश कर रहे हैं कि उसके हृदय में मलाल न रहे! यह आश्चर्यजनक है कि ऐश्वर्या के रिश्तेदारी का एक भी व्यक्ति यहाँ मौजूद नहीं रहा ! लेकिन करिश्मा ने इतना तो करिश्मा कर ही दिया कि उसकी रजा के आगे उसके ताऊ व ताईजी अपनी हाजिरी लगाने आखिर पहुँच ही गए! क्या यही हैं हमारे सामाजिक व पारिवारिक रिश्ते..! प्रश्न सचमुच आज भी मुंहबाये खड़ा है!

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