आई बसंत बहार…! क्या फ़िल्मी गीतों के आगमन से बनते बिगड़ते गए होली के मिज़ाज!
(मनोज इष्टवाल)
विगत 20-21 मार्च 2019 की होली में तर्र तन-बदन और हृदय कई घरों में ख़ुशी लेकर आया तो पूरे देश भर में कम से कम दशमलव शून्य शून्य पांच प्रतिशत ऐसा भी रहा जहाँ मातम पसरा है! पूरे देश भर में होली की खुमारी में शराब, भांग और अन्य नशों में कई घरों के पुरुष समाज के लोग हॉस्पिटलाइज भी हुए तो कई नालियों में गिरे मिले ! किसी का हाथ टूटा तो किसी का पैर! कई वीडिओ व फोटो सोशल साईट पर अपलोड़ होती गई और पूरे देश भर की होली की रंगत के रंग व भंग दोनों नतीजे दीखते रहे!
मेरी इस बर्ष होली नहीं थी सच कहूँ तो होली मनाने का बिशेष मन तब से भी नहीं करता जब से मेरे गाँव का एक युवा भाई प्रवीण नेगी असमय कालग्रस्त हुआ ! जाने क्यों हर होली पर वह याद हो आता है! इस बार होली में दिन भर घर पर ही रहा क्योंकि ताऊ जी के बेटे मेरे बड़े अजीज भाई को गुजरे अभी सातवाँ माह हुआ है! शायद यही कारण है कि आप ऐसे बिषयों पर आत्ममंथन कर सकते हैं कि आखिर होली में ऐसा है क्या जो एक साथ देश भर में कई अनहोनी घटनाएँ घटित होने की सूचनाएं मिलती रहती हैं! शुक्र है कि होली के अगले दिन अखबार नहीं छपता वरना जाने देश भर से कैसी कैसी खबरें मिलती!
होलिका दहन के बाद शुरू हुई होली मुख्यतः बुराई पर अच्छाई की जीत का मार्ग प्रशस्त करती हुई आगे बढ़ी थी, जब भक्त प्रहलाद की जान बचाने स्वयं नारायण को आना पड़ा व नरसिंग अवतार लेकर उन्होंने हृन्याकश्यप से प्रहलाद की आत्म रक्षा कर पूरे समाज को एक खुशियाँ बांटी थी! होली के वर्तमान स्वरूप में कहीं ऐसा तो नहीं कि देश के बॉलीवुड के गीत या प्रादेशिक गीतों में परोसे गई सामग्री के कारण इसमें कुरीतियों का समागम हुआ हो! मेरा मानना है कि गढ़ कुमाऊं में खेली जाने वाली होली पूरे देश भर की सबसे आदर्श होली कही जा सकती है क्योंकि इसमें बैठकी या खडी होली का जो प्रचलन रहा है उसमें एक अनुशासन के साथ होली के हुल्यार शिरकत करते रहे हैं! गाँव -गाँव हुल्यारों की टोलियाँ ढोलक, चिमटा हारमोनियम के साथ होली के गीत गाते हुए खुशहाली की कामना करते आगे बढ़ते थे, सूखी हो या गीली होली..! होली हमेशा भाभी देवर तक ही सिमट कर रहती थी या फिर भाई चारे में एक दूसरे के मस्तक पर टीका..! अचानक कुछ बर्षों से यह ट्रेंड बदलता जा रहा है क्योंकि अब भाभी देवर की होली नहीं है बल्कि युगल जोड़ों की होली महानगरों से गाँव तक पहुँचने लगी है! अब गाँव में यह माहौल होना शुरू हो गया है कि यह हर बेटी बहु भाई बहन को रंगना एक मकसद हो गया है! शराब और कबाब ये दो ऐसे निशाचर इसमें शामिल हो गए हैं जो वर्तमान पीढ़ी के युवाओं की नसों में खून की जगह बहने शुरू हो गए हैं ऐसे में होली में कोई अनुशासन रहा हो यह कहना सम्भव नहीं है!
आइये यहाँ बात करते हैं होली के गीतों के साथ बदलते सामाजिक परिवेश की ! बर्ष 1957 में बनी फिल्म “मदर इंडिया” के गीत “होली आई रे कन्हाई होली आई, रंग छलके सूना दे जरा बांसुरी!” गीत पर ..! शमशाद बेगम की आवाज में नौशाद के संगीत से सजा यह गीत आज भी होली के अनुशासन का एक स्वरूप पेश करता है! जिसमें राग-द्वेष की कहीं कोई सम्भावना नहीं दिखती! 1959 में फिल्म नवरंग का महेंद्र कपूर व आशा भोंसले द्वारा गया गीत “अरे जा रे जरा नटखट , न छु रे मेरा घूँघट, पलट के दूँगी तुझे गाली रे” की होली की शालीनता के साथ प्रेम रास का कायदा भला होली के संदर्भित स्वरूप को कैसे भुलाया जा सकता है! 1970 में राजेश खन्ना व आशा पारेख अभिनीत “कटी पतंग” का गीत “आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, खेलेंगे हम होली” अपने आप में शानदार रंगों से रंगती आज भी दिलों को छूती हुई आगे बढती है! 1975 में धर्मेन्द्र हेमामालिनी अभिनीत शोले फिल्म का गीत “होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं!” बदस्तूर उसी परम्परा को आगे बढाता जाता है! इसमें एक पंक्ति है कि गिले शिकवे भूलकर दोस्तों दुश्मन भी गले मिल जाते हैं!
अब आते हैं 1981 के दौर में जहाँ से होली में भांग धतूरे का प्रचलन शुरू हुआ अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी , संजीव कुमार, रेखा, शशि कपूर अभिनीत गीत ” रंग बरसे भीगे चुनरवाली, रंग बरसे ..!” और यह प्रचलन यहीं से होली का मिजाज गरमा गया ! अब शंकर जी के नाम का जय जय शिब शंकर काँटा लगे न कंकड़ ये प्याला तेरे नाम का पीया …जैसा वसूल हर होली पर समझा जाने लगा! लोगों ने भांग घोटे को सीधे सीधे होली से जोड़कर इसे होली का प्रसाद बना दिया! भला पीने वालों के लिए इस से अच्छा बहाना क्या हो सकता है!
1985 में फिल्म “आखिर क्यों” में राजेश खन्ना, स्मिता पाटिल, राकेश रोशन टीना मुनीम अभिनीत फिल्म ने फिर इसे आकर संभाला और कुछ काल के लिए “सात रंग में खेल रही है, दिलवालों की टोली रे, भीगे दामन चोली रे! अपने ही रंग में रंग दे मुझको, याद रहेगी होली रे..!” गीत व फिर विगत सदी का अंतिम लोकप्रिय गीत फिल्म डर का जिसमें सन्नी दयोल, शाहरुख खान व जूही चावला ने अभिनय किया “अंग से अंग लगाना सजन हमें ऐसे रंग लगाना!” ने बॉक्स ऑफिस में जो भी धमाल मचाया हो लेकिन नशेड़ियों को नहीं सम्भाल सके!
इस सदी की शुरूआती होली गीत में बॉलीवुड का फिल “बागवां” (2003) का हेमामालिनी, अमिताभ बचन अभिनीत गीत “होली खेले रघुवीरा अवध में!” फिर से जन भावनाओं में होली के महत्व में प्रेम की पुचकार को दर्शाने की कोशिश की! 2005 में “डू मी अ फेवर, लेट्स प्ले होली”, 2013 में फिल्म “ये जवानी है दीवानी” के गीत “बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी, तो सीधी सादी छोरी शराबी हो गई!” गीत सचमुच ही महिला समाज के बीच शराब परोस गयी ! जिस उत्तराखंड की बहुत कम नारियां होली पर कभी शराब पीती रही हों उनमें 60 प्रतिशत तक वृद्धि हो गयी! और हाल के बर्षों में या
नि 2017 में फिल्म “बद्री की दुल्हनियां” के गीत “इना मारे दर्द, सूली पर चढ़ गई, ना ना करना चाहां था लेकिन मैं हाँ कर गयी, दिल तुझको मैं सेंड कर गयी रे बदरी की दुल्हनियां!” जैसे गीत ने रही सही कोर कसर भी पूरी कर दी! ऐसा नहीं कि होली पर यहीं गीत रहे हों! जोगी जी तू धीरे-धीरे, नदी के तीरे तीरे!, लहू मुंह लग गया, गोरी तू लठ मार दे, गो पागल..नजरों के कट्टे से तू मारे गोली रे …जैसे कई गीत इस दौरान होली के आते जाते रहे हैं!
फिल्म इंडस्ट्री ने हमें जो परोसा हम उसी के रंगों में रंगकर अपनी संस्कृति की छटा का हास परिहास उड़ाते गए ! शुक्र है कि उत्तराखंड में खेली जाने वाली होली में बिहार व हरियाणा जैसे फूहड़ गीतों का प्रचलन नहीं रहा ! यहाँ होली के हर गीत में बसंत ऋतु के फूलों की फुहार व हरियाली के रंगों की मिठास रही है! यह शायद पहला प्रदेश है जहाँ बांस की पिचकारी में आज भी अबीर गुलाल के साथ जौ गेहूँ या हरी बनस्पतियों का रस निचोड़कर फैंका जाता है लेकिन दुर्भाग्य देखिये जाने कहाँ से मुंह काला करने के लिए जला हुआ डीजल व काली ट्यूब बाजारों से गाँव तक पहुँचने लगी हैं !
उत्तराखंड में होली के सबसे ज्यादा गीत गाने वाले एक मात्र गायक कलाकार सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी हुए! जिन्होंने ऑडियो वीडियो व गढ़वाली फिल्मों में होली के गीतों का प्रचलन बढाया है! उनके गीतों में “पिचकारी थरररा, कैन मारी गरररा! तन मन रुझै ग्ये, भिगै ग्ये ! हो हो होरी ऐग्ये”..! से लेकर “चली बसंत बहार, फूली फुलूं म फुलार!”, होली कु खिलैय्या सहित कई गीतों को जनमानस तक पहुंचाया जिनमें कहीं भी नशे की बात नहीं थी! बातें थी तो सिर्फ बसंत की, प्रेयसी के प्यार प्रेम की या फिर प्रकृति प्रदत्त संसाधनों की! लोकगायिका कल्पना चौहान ने भी होली के गीत ” को संग खेले गडूवा हिंडोला..!” जैसा गीत ऑडियो वीडियो के माध्यम से उत्तराखंडी समाज तक पहुंचाया और आये दिन अब तो ओतने गीत बाजार में आने लगे हैं कि न गायकों की गिनती न उन कलम के धनियों की गिनती जिनमें अधिकत्तर आड़े-तिरछे गीत लिखकर समाजिक मूल्यों की इस लोक विरासत को कमजोर कर रहे हैं!
विगत बर्षों की भाँति लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने इस बार भी होली पर अपने सुर की पुरानी बयार की ताजगी अपने पौड़ी स्थित निवास स्थल पर परिजनों के साथ बैठकी होली में आम जन तक पहुंचाकर उत्तराखंड की होली के नियम और संयम की एक अनूठी मिशाल पेश की है! उन्होंने परिजनों के साथ ढोलक हारमोनियम तबला ढपली में जब “चली बसंत बहार..!” गीत गाया तो उसकी ताजगी से वे द्वार मोर खिड़कियाँ सब खनखनाकर नाचने गाने लगी जिन्होंने कई काल तक इसी कमरे के किनारे पर बने दूसरे कमरे में उन दर्जनों गीतों को लिखते सजते गाते नरेंद्र सिंह नेगी को देखा था! शायद यह तीन साल पश्चात उनके पैत्रिक आवास को पुनः होली पर ऐसी महफ़िल सजती मिली! हमें उम्मीद है कि हम होली को होली की तरह ही मनाते हुए आगे बढ़ते जाएँ प्रेम रस में लत्त-पत्त होली का लुत्फ़ प्यार की सौगात के साथ उठायें और ब्यस्नों से दूर अपनी थाती-माटी के खूबसूरत बासंती रंगों के प्यार का उलार मनाते हुए सभी के सुखद जीवन की मंगलकामनाएं करें! देखिये लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने किस तरह मनाई इस बार अपने परिजनों के साथ होली:-