आंदोलनकारी जिसने गैरसैण के लिए जान दे दी थी।

आन्देालनकारी जिसने गैरसैण के लिये जान दे दी थी।
(वरिष्ठ पत्रकार एलमोहन कोठियाल की कलम से)

राजधानी गैरसैंण बनाये जाने के मुद्दे पर बात चल रही हो तो पृथक राज्य आन्दोलन के नेता अग्रणी आन्दोलनकारी ाबा मोहन उत्तराखण्डी का स्मरण हो आना स्वाभाविक व जरूरी भी है। बाबा मोहन राज्य आन्दोलन के नाम पर शहीद हुई अकेली ऐसी दिवंगत विभूति हैए जिन्होंने 9 नवम्बर 2000 राज्य बन जाने के बाद भी अपने संघर्ष स्थगित नहीं किया। राज्य का नाम उत्तरांचल से बदलकर पौराणिक नाम उत्तराखण्ड बहाल किये जाने व राजधानी गैरसैंण बनाये जाने समेत कुल पांच मांगों को लेकर अपने शहादत दिवस तक संघर्षरत रहे।
बाबा ने गैरसैंण राजधानी बनाने की मांग को अपने अकेले का पहला आमरण अनशन अपनी जन्मभूमि परगना चैंदकोट के देवीधार महादेव मंदिर परिसर में 11 जनवरी 1997 को शुरू किया जो 21 दिनांक तक चला उसके बाद बाबा के अनशन आन्दोलनों का सिलसिला बाबा की शहादत दिवस 8 अगस्त 2004 तक चलता रहा। इस दौरान उन्होंने अपने प्रथम अनशन आन्दोलन के बाद भी जब राज्य नहीं बना तो बाबा ने जिला पौड़ी के नयारघाटी सतपुली के निकट सती माता मंदिर में अनशन किया। फिर 1 अगस्त 1998 से दस दिन तक लंगूरगढ़ चोटी पर अनशन किया अपने गृह जिले से बाहर भी बाबा ने आंदोलन अपने बूते पर जारी रखाए जिसमें राज्य निर्माण के बाद सन् 2001 में 9 फरवरी से 5 मार्च तक चमोली जिले के नंदाठोक ;गैरसैंणद्ध में लगातार 24 दिनों तक बाबा ने राजधानी गैरसैंण को लेकर अन्नत्याग आन्दोलन चलाया। 2001 में पौड़ी बचाओ आन्दोलन के तहत् भूख.हड़ताल कीए फिर राजधानी मुद्दे को गरमाने के एि अपने गृह विकासक्षेत्र एकेश्वर ;चैंदकोटद्ध की चैंदकोट गढ़ी में दिसम्बर 2002 से फरवरी तक अनशन किया। अगस्त 2003 में कनपुर गढ़ी थराली ;चमोलीद्ध व फरवरी 2004 में कोदियाबगड़ में बीस दिनों तक बाबा मोहन अनशन पर बैठे। टिहरी जिले में भी बाबा ने खैट पर्वत पर उक्रांद नेताओं के साथ आन्दोलन भी अलख जलाई।
जब राज्य निर्माण के चार वर्ष बाद भी राजधानी व नाम के मुद्दे पर तत्कालीन राज्य सरकार ने कोई निर्णय नहीं लिया तो बाबा ने मजबूत इरादे के साथ सरकार से आर.पार की लड़ाई का मन बना लिया और अपने अंतिम अनशन के लिए बाबा ने प्रस्तावित राजधानी गैरसैंण के निकट ही आदि बद्री पौराणिक धाम से सटे बेनीताल के निकट टोपरी उड्यार को चुना और सोच समझकर 2 जुलाईए 2004 से अकेले अनशन शुरू कर दिया। अनशन के एक माह बीत जाने के बाद जिला प्रशासन हरकत में आया और बाबा को जबरन उठाने की चाल चली जाने लगी तो बाबा ने 31 जुलाई 2004 को शासन प्रशासन को चेताते हुये एक सार्वजनिक घोषणा स्वहस्तलेख से आम कर दीए जिसमें उन्होंने अपनी मुख्य मांग व अपनी अंतिम इच्छा समेत सात बिन्दुओं का उल्लेख किया हैं कि वे बिना मांग पूरी हुये अनशन नहीं तोडेंगे उनके बलिदान का जिम्मा राज्य सरकार व प्रशासन का होगा और इस घोषणा के एक सप्ताह भीतर 8 अगस्तए 2004 को अनशन स्थल पर बाबा ने शरीर त्याग दिया 9 अगस्त को रूद्रप्रयाग के सरकारी अस्पताल में चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दियाए इस तरह बाबा उत्तराखण्ड राज्य की नई अलख के लिए हमारे बीच से चले गये ।
पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध परगना चैंदकोट के एकेश्वर ब्लाॅक की दक्षिण मौन्दाड़स्यूॅ पट्टी के बंठोली गांव के सिपाही नेगी परिवार में सेवानिवृत्त सैन्य अफसर मनवर सिंह नेगी व सरोजनी देवी के घर में 3 दिसम्बर 1948 को द्वितीय पुत्र के रूप में जन्मे थे। मोहन सिंह नेगी की प्रारम्भिक शिक्षा आधारिक विद्यालय मौंन्दाड़ी में हुईए दादा रेंजर कुंदनसिंह नेगी इलाके के रसूखदार लोगों में थे। बाबा ने इंटर तक की पढ़ाई में दुगड्डा गढ़वाल के डी0ए0वी0 इंटर काॅलेज से प्राप्त की 1969 में उन्होंने रेडियो आपरेटर ट्रेड में आई0टी0आई0 प्रशिक्षण लिया तथा 1970 में भारतीय सेना के बंगाल इंजीनियर्स में बतौर कलर्क भर्ती हुये। सामाजिक सरोकारों से जुड़े मोहन सिंह ने 1975 में फौज की नौकरी छोड़ दी व घर में खेती बाड़ी कर समाजसेवा में लग गये। 1985 से 1991 तक अपने गांव बंठोली के प्रधान रहे। 1970 के दशक में ही बाबा की शादी कमला देवी से हुई। इस बीच वे दो पुत्रियों व एक पुत्र के पिता भी बने पुत्र शैलेन्द्र नेगी गढ़वाल राइफल्स में सेवारत है।
मोहन सिंह नेगी पक्के शिवभक्त व कट्टर धार्मिक विचार के थे। लेकिन वे समाज में फैली अनावश्यक सामाजिक वर्जनओं के विरोधी व जातिगत भेदभाव के खिलाफ थे। 1990 में उक्रांद से जुड़कर वे पृथक उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई के अगुवा बन गये। 1994 के राज्य आन्दोलन के बाद से तो वे चैबीसों घंटांे के आन्दोलनकारी बन गये। इस बीच उन्होंने नागरिक मंच के बैनर तले नयारघाटी सतपुली में हनुमान मंदिर परिसर में तीन सौ दिनों तक क्रमिक अनशन राज्य की मांग को लेकर किया। 1994 को हुये 2 अक्टूबर रामपुर तिराहा व मुजफरनगर कांड से आहत होकर एक संकल्प के तहत मोहन नेगी ने दाढी.बाल छोड़ दिये व भगवा धारण कर कुछ दिनों के लिए घर भी त्याग दिया। वे सिर्फ रात्रि के समय भोजन ग्रहण कर पूर्णकालिक समर्पित आन्दोलनकारी बन गये। उन्होंने अपने नाम से ठाकुर जाति सूचक शब्द नेगी हटाकर उत्तराखण्डी जोड़ दिया। ;इस लेख के लेखक जो बाबा के मूल गांव बंठोली के हैं । 1994.95 से एक पत्रकार के रूप में बाबा के सफर के साथी रहेद्ध ने जनवरी 1995 में पहली बार मोहन सिंह उत्तराखण्डी को बाबा उपनाम दिया इस तरह मोहनसिंह नेगी बाबा मोहन उत्तराखण्डी बन गये । राज्य आन्दोलनकारी बनने से पूर्व अपनी जवानी के दिनों मोहनसिंह नेगी अपनी दबंग छवि के लिए भी विख्यात रहे ।
राजधानी गैरसैंण बनाये जाने की मांग को लेकर बेनीताल में किये अपने अंतिम 38 दिनों के अनशन के बाद प्राणोत्सर्ग कर सर्वोच्च बलिदान देकर बाबा मोहन उत्तराखण्डी ने अपना नाम सदैव के लिए उत्तराखण्ड व गैरसैंण से जोड़ दिया। बाबा का बलिदान गैरसैंण की मांग को बल तो मिला पर शहादत सरकारों ने इस शहीद का सम्मान नहीं किया ।
जब सब चाहते हैं कि राजधानी गैरसैंण में बने तो इस राह में रोड़ा क्या हैघ् स्पष्ट है कि कांग्रेस व भाजपा जैसे बड़े राष्ट्रीय राजनीतिक दल जो अब तक इस नवोदित राज्य में सत्ता की अदला बदली करते रहे हैए इस सवाल पर संजीदा नहीं है। भले ही कांग्रेस ने बीत वर्ष गैरसैंण को राजधानी बनाने का प्रहसन किया होए लेकिन मौजूदा सरकार की नीयत भी इस मुद्दे पर अभी तक साफ नहीं लग रही हैं नही ंतो देहरादून के रायपुर में विधान भवन बनाने की मंशा के क्या मायने हैं। यद्यपि इन दोनों दलों के कतिपय बड़े नेताओं का गैरसैंण को पूरा समर्थन हैए यह स्वागत योग्य है। लेकिन वे भी अपनी पार्टी के भीतर इस मुद्दे पर निर्णायक दबाव नहीं बना पा रहे हैं। यह भी सच हैए कि विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े उत्तराखण्उ के अधिसंख्य चुनावबाज सियासतदान अब देहरादून की चमक.दमक छोड़कर पहाड़ पर चढ़ने के पक्ष में नहीं हैं जो भी है पहाड़ी राज्य की राजधानी ठेट पहाड़ी स्थल पर होना ही इस हिमालयी राज्य की सार्थकता व बाबा मोहन उत्तराखण्डी जैसे शहीद आंदोलनकारियों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
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