आंख में "धूल" झौंकता पलायन आयोग।

‘आंख’ में ‘धूल’ झौंकता पलायन आयोग।

(वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से)
जिस पलायन आयोग से प्रदेश बड़ी आस लगाये बैठा है, वह इतना ‘नाकारा’ निकलेगा ऐसी उम्मीद नहीं थी। दस महीने से तमाम विवादों में रहते आयोग ने जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी, वह सवालों में घिरी है। दरअसल आयोग ने जो रिपोर्ट दी है उसमें नया कुछ भी नहीं। आयोग की पहली रिपोर्ट कोई रिपोर्ट नहीं बल्कि आंकड़ों का एक ‘पुलिंदा’ है, वह भी उन आंकड़ों का जो पहले से सार्वजनिक हैं। सवाल यह है कि पलायन आयोग क्या आंकड़े जुटाने के लिये है? पलायन आयोग ने अगर सिर्फ आंकड़े ही जुटाने थे तो यह काम तो अर्थ सांख्यिकी एवं अन्य विभाग पहले से कर ही रहे हैं। जिन आंकड़ों को पलायन आयोग ने अपनी रिपोर्ट का हिस्सा बनाया हुआ है, वह आंकड़े तो सरकारी और गैरसरकारी मंचों से कई बार सामने आ चुके हैं।

उत्तराखंड में पलायन दिनोंदिन बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। अक्सर इसे बड़ी समस्या और भविष्य की चिंता के तौर पर भी प्रचारित किया जाता रहा है। हालांकि उत्तराखंड से पलायन को सिर्फ एक ही नजरिये से देखा जाना ठीक नहीं है। लेकिन फिलवक्त उत्तराखंड में पूरा ध्यान पलायन के एक ही पहलू पर केंद्रित है। बहरहाल अब तो पलायन के नाम पर ‘दुकानें’ भी सजने लगी हैं, बाकायदा ‘ब्रांडिंग’ होने लगी है।

आलम यह है कि समस्या का जिक्र तो जोरशोर से हो रहा है, लेकिन समाधान पर सन्नाटा है। जबकि वास्तविकता यह है कि पलायन पर तमाम सनसनीखेज आंकड़े, तस्वीरें, मार्मिक फिल्में आदि बहुत कुछ पहले से मौजूद हैं । अगर कुछ नहीं है तो पलायन पर व्यापक अध्ययन और इससे होने वाले नुकसान से निपटने की स्पष्ट कार्य योजना । पलायन पर कोई ‘एक्शन प्लान’ न होने के कारण राज्य की पहले ही काफी फजीहत हो चुकी है । बाकी बची कसर सरकार आयोग का गठन कर पूरी कर चुकी है । सरकार ने दस महीने पहले भारतीय वन सेवा के एक सेवानिवृत्त अधिकारी एसएस नेगी को उपाध्यक्ष नियुक्त करते हुए पलायन आयोग का गठन किया । यह कहा गया कि मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में यह आयोग पलायन पर अंकुश के लिये प्रभावी कार्ययोजना तैयार करेगा और उपाय सुझाएगा। लेकिन पहले गठन के निर्णय को लेकर, फिर वन सेवा के अधिकारी को उपाध्यक्ष बनाने और उसके बाद कार्यालय और नियुक्ति को लेकर आयोग विवादों में रहा है।
आयोग ने हाल ही में दस माह बाद जो रिपोर्ट जारी की है, वह रिपोर्ट भी उम्मीद के विपरीत है। रिपोर्ट में वही पुराने आंकड़े और परंपरागत कारणों के अलावा नया कुछ भी नहीं। जिन आंकड़ों को प्रदेश अलग-अलग रूप में सालों से देखता सुनता आ रहा है, आयोग ने उन्हें ही एक रिपोर्ट के तौर पर जारी कर दिया है। आयोग की रिपोर्ट में न तो कारणों का विस्तृत अध्ययन है और न ही समस्या के समाधान संबंधी सुझाव ।
दरअसल पलायन अकेले उत्तराखंड की ही समस्या नहीं है। यह देश के तमाम प्रमुख राज्यों की समस्या है। हिमालयी राज्यों की बात करें तो अकेले जम्मू कश्मीर को छोड़कर बाकी राज्यों में पलायन की स्थिति तकरीबन एक समान है। पलायन का राष्ट्रीय औसत 30.6 है, जबकि उत्तराखंड में पलायन 36.2 और हिमाचल में 36.1 प्रतिशत है। उत्तराखंड की बात करें तो यहां पलायन सिर्फ पहाड़ी जिलों से ही नहीं बल्कि हर जिले से हुआ है, बड़ी संख्या में गांव निर्जन हो चुके हैं । जहां तक पलायन की वजह का सवाल है तो इसकी मुख्य वजह रोजगार, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं हैं। आमतौर पर इस प्रदेश में पलायन लंबी अवधि का होता है। तकरीबन सत्तर फीसदी पलायन राज्य के अंदर ही बड़े शहरों, कस्बों और जिला मुख्यालयों की ओर हुआ है। लगभग 29 फीसदी पलायन राज्य से बाहर हुआ है।
पलायन के बारे में यह तथ्य तमाम रिपोर्टों के जरिये सार्वजिनक हैं। अब यही सब पलायन आयोग की रिपोर्ट में भी है। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य निर्माण के बाद से प्रदेश के तकरीबन सभी गांवों से पलायन हो रहा है । राज्य का औसत एक गांव से 60 लोगों के पलायन का है। पलायन करने वालों में 50 फीसदी आजीविका के लिये और 73 फीसदी बेहतर व उच्च शिक्षा के लिये पलायन कर रहे हैं । तकरीबन 10 फीसदी लोग स्वास्थ्य सेवाओं के आभाव में पलायन करने को मजबूर हैं। पुराने शोध व अध्ययन में यह आंकड़े भी पहले से मौजूद हैं।
रिर्पोट में सर्वाधिक चिंताजनक विषय निर्जन होते खाली गांव हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक प्रदेश में निर्जन गावों की संख्या 968 थी जो अब बढ़कर 1702 हो चुकी है। इसी क्रम में तकरीबन 550 गांव ऐसे हैं, जिनमें आबादी 50 फीसदी से अधिक कम हुई है । आशंका है कि आने वाले सालों में ये गांव भी पूरी तरह खाली हो जाएंगे। अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगे 14 गांव भी निर्जन हो चुके हैं और 6 गावों की आबादी पचास फीसदी से भी कम रह गयी है। रिपोर्ट में निर्जन गांवों की संख्या से जुड़ा एकमात्र यही तथ्य नया है, जिसके बारे में आयोग का दावा है कि उसने 7950 गांवों के सर्वे के आधार पर यह आंकड़ा जुटाया है । आयोग के इस सर्वे पर भी सवाल उठ रहे हैं, जानकारों के मुताबिक इसमें बड़ा झोल है ।
एकामत्र इस आंकड़े के अलावा रिपोर्ट में बाकी सभी आंकड़े पुराने हैं। अब सवाल यह है कि सरकार ने क्या सिर्फ यही जानने के लिये पलायन आयोग का गठन किया ? पलायन के आंकड़े और कारणों का पहले से पता होने के बावजूद आयोग आंकड़ों में क्यों उलझा है । ऐसा है तो निसंदेह यह जनता की आंखों में धूल झौंकने जैसा है । वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े, ग्राम्य विकास विभाग के आंकड़े, उत्तराखंड के पलायन पर राष्ट्रीय ग्राम्य विकास संस्थान हैदराबाद के अध्ययन और राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन द्वारा 2010 में किया गए सर्वे सबकुछ प्रदेश के पास पहले से तो मौजूद है । अभी तक पलायन पर काम करने वाले उसकी चिंता करने वाले इन्हीं आंकड़ों को कापी पेस्ट करते रहे हैं । लेकिन पलायन आयोग से यह उम्मीद नहीं की जाती ।
आयोग से उम्मीद थी कि वह कारणों की नए सिरे से गहन पड़ताल करेगा और सरकार को उन कारणों से निपटने के कारगर व निष्पक्ष उपाय सुझाएगा । इस रिपोर्ट के बाद तो आयोग की मंशा पर भी सवाल उठ रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक आयोग ग्रामीण क्षेत्रों में केंद्रित विकास के लिये एक दृष्टिकोण विकसित कर पलायन की गंभीरता को कम करेगा। इससे यह साफ है कि सरकार की पलायन आयोग को फिलहाल लंबे समय तक बनए रखने की मंशा है। ऐसे में प्रबल आशंका है कि यह आयोग भी राजधानी चयन आयोग की तरह प्रदेश और प्रदेश की जनता पर बोझ न बन जाए ।

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