अभी भी जिंदा है पहाड़ की स्वांग कला।
अभी भी जिंदा है पहाड़ की स्वांग कला।
(मनोज इष्टवाल)
“हे गुड्डू का बाबा तुम टोटका सियां छन” …! यह गीत व अभिनय आजकल सोशल साइड फेसबुक पर बेहद लोकप्रिय हो रहा है। आखिर हो भी तो क्यों नहीं। क्योंकि इसमें शुरू से लेकर अंत तक सब बनावटी ही बनावटी है जिसे पहाड़ और बिशेष रूप से गढ़वाल में स्वांग रचाना, स्वांग करना कहा जाता है।
आज से लगभग 40 बर्ष पूर्व तक जब टीवी रेडियो का पहाड़ों में प्रचलन नहीं था तब आँगणों में महिलाएं अक्सर लोकगीतों में सामूहिक नृत्य किया करती थी जिसमें पुरुष भी अपनी भागीदारी निभाते थे। लेकिन स्वांग सिर्फ महिलाओं का एक नाट्य मंचन हुआ करता था जिसे मन बहलावे के लिए महिलाएं ऐसे स्थानों पर अक्सर किया करती थी जहां पुरुष समाज की आवाजाही न हो। इसके पीछे कारण यह था कि दैनिक दिनचर्या में घटित घटनाओं की पीड़ाओं, खुशियों को वे आपस में बांटकर मन हल्का करती थी।
मेरी ताई जी श्रीमती गणेशी देवी बताया करती थी कि अक्सर रामलीला के समय पर जब हम सब महिलाएं घास काटने जंगल जाय करते थे तब वहां निश्चिंत होकर रामलीला के पात्र बन जाते थे या फिर सासु, ससुर पति देवर इत्यादि की नकल स्वांग रचकर उतारा करते थे। इससे दो काम होते थे। पहला यह कि हम अपनी परेशानियों को कुछ पल के लिए भूल जाया करती थी। दूसरा उसके बाद पूरी ऊर्जा से घास, खेती इत्यादि का कार्य किया करती थी।
स्वांग रचाकर अप्रत्यक्ष रूप से उन घटनाओं को उजागर करते थे जो दैनिक जीवन में पीड़ादायक होते थे । सच कहें तो ये मानसिक व शारीरिक पीड़ा मिटाने के लिए सबसे अच्छा माध्यम था। स्वांग सिर्फ पीड़ा भुलाने के लिए ही नहीं बल्कि सम सामायिक घटनाओं में हुई गलतियों से सबक सीखने का एक माध्यम भी था। जैसे –
रिमझिम बाजार का….मेरी बीणा ला स्वीली हूणा।
ख़य्यां छन सात लिम्बा, हे ब्वे म्यारा कमर म पीड़ा।।
एक ऐसा ही स्वांग गीत उस काल में रचा गया था जिस में एक बेटी प्रेम प्रसंग में फंसकर गर्भवती हो जाती है या फिर :-
हे रे बुढया ढ़कै सौं, ढाकर जांदी ढ़कै सौं…! गीत की संरचना किसी ससुर के कृत्यों पर। हे रे समधी समधी लो…गीत समधन समधी के अप्रत्यक्ष मजाक पर। या
चंदा हे भग्यानी चंदा, दिलों का समान, दण मण रुणि तेरी दगड़या नमान, 10 गति ब्यो छायू नौ गति खाई। निर्भगी बाघ थैंकि दया बि नि आई ….नरभक्षी बाघ द्वारा एक बेटी का भक्षण किये जाने पर रचा गया मार्मिक स्वांग गीत पहाड़ी मूल्यों व लोकसमाज की जीवटता की मिशाल हैं।
यह गीत स्वांग कला में एक औरत का वह स्वरूप प्रस्तुत कर रही है जिसका पति आलसी है। जो काम धाम कुछ करना नहीं चाहता और चाहता है कि लेटे लेटे उसे सब कुछ मिल जाए। पति की आदतों से अजीज आ चुकी पत्नी किस तरह स्वांग रचकर अपनी सहेलियों। में अपने पति की व्यथा का वर्णन करती दिखाई देती है, यही इस गीत व अभिनय का सबसे बड़ा पार्ट है। पता नहीं गुड्डू का कल्पनामय बाबा (पिता) कब और कहां रहा होगा लेकिन उस पर रचित यह गीत आज भी जीवित है ठीक उसकी आदतों की तरह।
और ये मातृशक्ति भी वही अभिनय स्वांग रचाकर ठठ्ठा मजाक में अपना मन खुश कर रही हैं जो दैनिक दिनचर्या में अक्सर देखने को मिलता है। सच कहूं तो स्वांग कला का यह अभिनय व गीत पहाड़ के ठेठ गांव में उस मनोरंजन में ले गया है जो जाने कितने बर्षों से वर्तमान तक जीवित है। देखिएगा गीत की रोचकता इस vedio के साथ:-