अफसर उत्तर प्रदेश का लेकिन उत्तराखंड के प्रति ईमानदार सोच! कैप्टेन रोहित द्विवेदी की सोच के कायल हुए ग्रामीण ! जल-जंगल व जमीन के साथ आंचलिक खान पान भी हो प्रमोट ! –कैप्टेन रोहित

अफसर उत्तर प्रदेश का लेकिन उत्तराखंड के प्रति ईमानदार सोच! कैप्टेन रोहित द्विवेदी की सोच के कायल हुए ग्रामीण ! जल-जंगल व जमीन  के साथ आंचलिक खान पान भी  हो  प्रमोट ! –कैप्टेन रोहित
(मनोज इष्टवाल)
1961में पूरे देश भर में सैनिक स्कूलों के निर्माण की अवधारणा इसलिए बनाई गयी थी ताकि इसमें अध्ययनरत बच्चे अपने भविष्य को सशस्त्र सेना के स्वर्णिम अंशों में जोड़कर देश का गौरव बढायें ! हुआ भी यही…! आज देश भर में लगभग 25 सैनिक स्कूल हैं जिनमें अध्ययनरत ज्यादातर छात्र सशस्त्र सेना के विभिन्न अंगों में उच्च पदों पर अपनी सेवा प्रदत्त कर रहे हैं।

पूरे देश भर के सबसे खूबसूरत सैनिक स्कूल की जब बात होती है तब उत्तराखंड प्रदेश का नाम शीर्ष में आता है, 21 मार्च 1966 को तत्कालीन रामपुर राजा की स्टेट का हिस्सा रहा घोडाखाल, नैनीताल जिले में स्थित यह विद्यालय बेहद खूबसूरत लोकेशन पर निर्मित किया गया।ब्रिटिश शासन द्वारा सन 1870 में घोड़ाखाल स्टेट जनरल व्हीलर को सौंपी गयी थी।तत्पश्चात रामपुर के नवाब सर सैय्यद मुहम्मद हामिद अली खान बहादुर द्वारा यह जमीन जनरल व्हीलर से खरीदी गई जिसे स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 1964 में खरीदा गया।

इस स्कूल में 1966 से लेकर आजतक सीबीएसई पाठ्यक्रम अपनाया गया है तथा कक्षा 6 से 12 तक के पुरूष छात्रों को ही प्रवेश दिया जाता है। विद्यालय का मुख्य प्रबन्धन रक्षा मन्त्रालय द्वारा संचालित सैनिक स्कूल्स सोसायटी तथा स्थानीय प्रबन्धन लोकल बोर्ड आॅफ एडमिनिस्ट्रेशन (एल0बी0ए0) द्वारा किया जाता है। एल0बी0ए0 के अध्यक्ष उत्तर भारत एरिया, बरेली स्थित मुख्यालय के जनरल आॅफिसर कमांडिंग होते हैं। स्कूल प्रशासन का दायित्व सशस्त्र सेनाओं के तीन अधिकारियों – प्रधानाचार्य (कर्नल समकक्ष), उपप्रधानाचार्य एवं प्रशासनिक अधिकारी (मेजर या ले0 कर्नल समकक्ष) के पास होता है। ये अधिकारी सशस्त्र सेनाओं के किसी भी अंग अर्थात आर्मी, नेवी या एयर फोर्स के हो सकते हैं।विद्यालय के वर्तमान प्रधानाचार्य कैप्टन (भारतीय नौसेना) रोहित द्विवेदी जो कि अप्रैल 2015 से इस पद पर आसीन हैं, ने बताया कि वे यहाँ के 17वें प्रधानाचार्य हैं। प्रथम प्रधानाचार्य विंग कमान्डर जैमल सिंह थे। पिछले पचास वर्षों में यह विद्यालय इस देश को 600 से अधिक सैन्य अधिकारी दे चुका है। उनमें से कई सशस्त्र सेनाओं के उच्चस्थ पदों पर विराजमान हैं। इनके अतिरिक्त भी विभिन्न क्षेत्रों में भी इस विद्यालय के पढ़े हुए विद्यार्थी उच्च पदों पर आसीन हैं।

सिंह, कुमाऊं केसरी, शिवालिक और गढ़वाल हाउसों में बंटा यह सैनिक स्कूल समुद्रतल से 6000 फिट (1800 मीटर) की उंचाई में देवदार के सुंदर वृक्षों से आच्छादित है साथ ही सैनिक स्कूल से लगा गोल्जू देवता का पौराणिक मंदिर यहाँ की धार्मिक आस्था का प्रतीक है।
अनुशासन प्रिय व बेहद व्यवहारिक स्वभाव के प्रधानाचार्य कैप्टन (भारतीय नौसेना) रोहित द्विवेदी जोकि मुख्यत: उत्तर प्रदेश से हैं,ने एक मुलाक़ात में अपने मन की पीड़ा उदगारित करते हुए कहा कि सेना में कर्मभूमि और मातृभूमि अलग-अलग नहीं होते।जो भी सैनिक जब तक जहाँ कार्यरत है वही उसकी कर्मभूमि और मातृभूमि भी होती है। उन्होेंने कहा कि मैं जब तक उत्तराखंड के इस बेहद खूबसूरत स्कूल में कार्यरत हूँ यही मेरी मातृभूमि एवं कर्मस्थली है। इसकी समृद्धि, संवर्धन एवं प्रगति सुनिश्चित करना ही उनका धर्म है। उन्हें पीड़ा सालती है कि यहाँ प्रकृति के व्यापक संसाधन होने के बावजूद भी हम, यहाँ का आम नागरिक उसे प्रमोट करने में असफल हैं।वह पहाड़ से हो रहे अंधा-दुन्ध पलायन पर कोई राजनैतिक वक्तव्य देने की जगह कहते हैं कि हम अपनी दिनचर्या की वस्तुओं का सचमुच सही दोहन नहीं कर पा रहे हैं।उन्हें बेहद पीड़ा होती है जब बाहर का आदमी यहाँ आकर अगर पहाड़ के व्यंजनों का रसास्वादन करना चाहे तब भी उसे मुंहमांगी कीमत पर वह नहीं मिल पाता। जबकि हमें यहाँ दक्षिण भारत का इडली सांबर, चाइना तिब्बत का थुप्पा-मोमो, चाउमिन, पंजाब का सरसों का साग व रोटी इत्यादि आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। उन्होंने अँगुलियों में गिनाते हुए कहा कि हम अपने चैंसा, फाणा, ठठ्वाणी, मंडूवे की रोटी, बाड़ी, पळयो, काफली, धबडी, राई. सरसों, पहाड़ी पालक (पलिंगु), पहाड़ी-मूला, चोलाई, झंगोरे की खीर,छचिन्डा, कुल्थी ;गहथ दाल की भरवा रोटी, दोनाली-रोटी, टूखलू (कद्दू के पत्तों) का साग, मैलु, तिमला, खैणा, घींगारू, बेडू, हिसालू, किलमोड़ा, काफल इत्यादि को प्रमोट क्यूँ नहीं करते हैं? शायद यह हीन भाव है या फिर इसे मार्किट करने का हमारे पास तरीका नहीं है।

प्राकृतिक संसाधनों का तरीके से दोहन करने की बात करते हुए कैप्टेन रोहित द्विवेदी का कहना है कि हमें अपने लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य व प्रकृति के हर उस सोपान का रसास्वादन तो करना ही होगा जो हमें कुदरत ने नेमत में भरपूर दिए हैं और अगर यह सब मिट गए तो फिर हमारा अस्तित्व ही क्या रह जाएगा। उन्हें पीड़ा कचोटती है जब वे गॉव की ओर जाकर बड़े-बड़े घरों में ताले लटके देखते हैं और खेत खलिहान बंजर देखते हैं। उनका कहना है कि कुछ महीनों पहले गॉव के बिलकुल बगल में जंगलों को जलते  देख उन्होंने ग्रामीणों  को  कहा भी कि आप इस तरह देख क्या रहे हैं आओ साथ मिलकर आग बुझाते हैं। तब उन्हें जवाब मिलता है कि यह वन विभाग का कार्य है उनका नही!  वे खिन्न मन से खुद ब खुद प्रश्न करते हुए कहते हैं कि आखिर हम जा किस ओर रहे हैं!

उन्होंने कहा  कि जब  भी उन्हें छात्रों के बीच लेक्चर देने का समय होता है वे अपने ऐसे ही जमीनी मुद्दों पर बात करते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी हमारा अनुसरण कर अपने जल, जंगल, जमीन का संरक्षण कर सकें व उसमें पैदा होने वाले हर उन पौधों एवं जीवों का ख्याल रख सकें जो पूरे देश की समृद्धि में सहायक हों।
उन्होंने कहा कि नैनीताल जिले के इस गौरवशाली विद्यालय में वे चाहे जितने भी समय के लिए कार्यरत् रहें, उपर्युक्त सभी विषयों के सम्बन्ध में विद्यार्थियों को अवगत एवं सम्वेदनशील बनाने हेतु विभिन्न कार्यशालाओं तथा जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने के प्रयास करते रहेंगे। उनका विश्वास हैं कि यदि प्रदेश के सभी विद्यार्थियों को अकादमिक एवं समसामयिक विषयों के अतिरिक्त अपने आस-पास के पर्यावरण, रीति-रिवाज़, लोक संस्कृति, स्थानीय वनस्पतियों, जीवों, वेशभूषा, स्थानीय व्यंजन, धरोहरतथा स्थानीय भाषा इत्यादि का समावेश किया जाये तो न केवल उनका सर्वांगीण विकास होगा अपितु वे इस सुन्दर पर्वतीय राज्य में ही अपने उचित जीविकोपार्जन एवं सुनहरे भविष्यका स्वप्न साकार कर सकेंगे।

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