अन्या से अनन्या" : (आत्मकथा) स्वर्गीय प्रभा खेतान_एक परिपेक्ष्य।
मोहन कण्डवाल मदन- 20सितंबर 2019 (भाग-1)
“उनका स्मरण सभा मे उन्हें कई रूपों मे सम्बोधित और याद किया गया। कलकत्ते के वरिष्ठ ………………………..। प्रभा खेतान नामक स्त्री का कहीं भी जिक्र नही था।”

आज 20 सितंबर 2019 के दिन लेखिका को दिवंगत हुये इक्जेक्ट ग्यारह वर्ष हो गये हैं। इस आत्मकथा का उल्लेख सबसे पहले मैत्रेयी पुष्पा जी की राजेन्द्र यादव और अपने साहित्यिक और साहित्येतर संबधों पर लिखी आत्मकथ्यीय किताब “वो सफर था कि मुकाम था?”, मे पढ़ा था। और इसी के साथ विवाहेतर नारी पुरुष संबंधों पर मैत्रेयी पुष्पा जी की “गुड़िया भीतर गु़ड़िया” और मन्नू भण्डारी जी के एक (नाम भूल रहा, (शायद पति, पत्नी और वो, यह तो फिल्म शायद, ओह या ………नाम याद आ भी जाओ भई !) उपन्यास का जिक्र भी आया था । ये तीनों उपन्यास एक ही समीचीन और ज्वलंत विषय पर अलग-अलग परिपेक्ष्यों मे लिखे जाने हेतु बहुचर्चित रहे हैं। (मैत्रेयी जी की उक्त संदर्भित आत्मकथा की किताब “वो सफर था या मुकाम था?” की समीक्षा भी मैने मैत्रेयी जी को पढ़वाई थी और उनके प्रेरित करने पर पोस्ट भी की थी।)
287 पृष्ठों की और दो सौ निन्यानबे रूपये की यह किताब तबसे खरीद ली थी पर पढ़ने का सुअवसर न मिला और इस बीच चार बार यह किताब मेरे सामने मित्रों / पढ़ाकू रिश्तेदारों को उल्लेखनीय पुस्तकें उपहार देने हेतु (कोई एक उनमें होने से ) या अन्य कारणों से आयी। पर खुद पढ़ने की भाव-भँगिमायें न परवान चढ़ पाईं। आखिरकार कल एक दिन के आकस्मिक अवकाश मे लगातार तेरह से सोलह घण्टों मे, डेढ़-एक घण्टों के दिनचर्यायिक व्यवधानों सहित ( लेखिका के महत्वपूर्ण व्यक्तिगत या राजनैतिक, सामाजिक घटनाक्रम बयान करते दस्तावेजी अंशों, अनुभव जनित वक्तव्यों और महत्वपूर्ण जीवन दशा-दिशा परिवर्तनकारी मोड़ों को चीन्हते, रेखांकित करते हुये) यह उपन्यास पढ़ ही लिया, और लिखा भी आज सुबह बाद मे।
अपनी खरीदी किताब के मुझे तो बहुतेरे सुख नजर आते हैं, पहला सार्वजनिक किताब का रंगरोगन, रेखांकन, डॉग- ईयरिंग या हाईलाईटिंग (जो समीक्षीय तत्वों के आकलन हेतु जरूरी होता है) आप नही कर सकते हैं पर अपनी किताब का यह सब कर सकते हैं। यह सब महत्वपूर्ण दृष्टाँतों, वक्तव्यों, घटनाओं, तथ्यों को पुनर्पाठ मे हृद्यंगम करने या तुरत-फुरत मानसिक आलोडन मे मददगार साबित होता है। साथ ही उल्लेेखनीय किताब को हमेशा अपनी किताब बनाकर रखने का भी अलग ही सुख है। रही बात उपहारों की लेने या देने की, मैने कभी भी अपनी पढी़ किताब (याने जूठी) नही दी है और न ही सप्रेम भेंट लिख करके दी हैं। सप्रेम भेंट या स्व- हस्ताक्षरित किताब देकर हम जाने-अनजाने अपना स्वामित्व या अहसान का भाव दिखाते हैं (और सेलिब्रिटीज तो होने से हम रहे)। यहाँ तक कि हिसाब-किताब रखने का भी कोई अर्थ नही रहता है। किताब उपहार देना (दान या प्रतिदान न समझकर), एक आत्मीय विस्तार सा कुछ समझा ही जाना चाहिये। भोले पर ढ़ीढ़ बुकदस्युओं से डर जरुर लगता है, (अपवादों को अगर न देखें तो आमतया, आज तक माँगा हुआ झाड़ू, छाता, पेन, माचिस, बीडी़ या सिगरेट पैकेट, किताब और पैंसा कभी किसी ने स्वयं समय पर, जरूरत पर वापिस किया है क्या???)। नही न!!!
और जैंसे कि खुद लेखिका इस आत्मकथा के पृष्ठ 255 पर लिखती हैं, ….” वैंसे आत्मकथा लिखना तो स्ट्रीप्टीस का नाच है। आप चौराहे पर एक-एक कर कपडे़ उतारते जाते हैं।लिखने वाले के मन मे आत्मप्रदर्शन का भाव किसी न किसी रुप मे मौजूद रहता है, मन के किसी कोने मे हल्की सी चाहत रहती है कि लोग उसे गलत न समझें कि जो कुछ भी वह लिख रहा है उसे सही परिपेक्ष्य मे लिया जाए, पर दर्शक वृन्द अपना-अपना निर्णय लेने मे स्वतंत्र है। उसका मन, वे इस नाच को देखे या फिर पलटकर चलें जाएँ।…….स्पष्ट रूप सै लिखी गई आत्मकथा का अपना महत्व है। इतना भी जानती हूँ कि उपन्यास से अधिक दिनों तक आत्मकथा जीवित रहती है। किसी भी आत्मकथा मे एक ‘मैं’ है जो प्रमाणिक रूप से अपनी यात्रा अर रहा है जिसे खारिज करना किसी के लिए सम्भव नही……….पाठक भी इस विशिष्टता को, विशेष व्यक्तित्व को पहचानता है। पाठक ओर लेखक के बीच एक साझेदारी है। दशकों बाद भी यह कहानी जिंदा रहती है और रहेगी- हाँ, इसको पढ़ने का तरीका जरूर बदलता जाएगा।………………..”
और यह बात दीगर भी है यह आत्मकथा आज भी जीवित है और कल भी जीवित रहेगी। पढ़ी जा रही है और पढ़ी भी जायेगी। नितपरिवर्तनशील सामाजिक मूल्यों के संदर्भ मे पाठकीय परिपेक्ष्य मात्र बदलते जायेंगे। और आज मै, एक पाठक निमित्त, एक ऐंसा ही परिपेक्ष्य प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नही कर पा रहा हूँ।
शायद उनके साठोत्तरी वय 2002 मे शुरु की गई यह किताब, आत्मकथा राजकमल पेपरबैक्स से छपी है {ISBN: 978_81_267_1931_0} लेखिका की मृत्यु के दो साल बाद, 2010 मे पहली बार , पहला संस्करण छपने के बाद फिर से 2018 मे पाँचवें पेपरबैक संस्करण रुप मे छपी है। यह आत्मकथा ‘हंस’ मे किस्तों मे छपी थी और बहुत ज्वलन्त तथा विवादित भी रही थी। वो #अन्या से #अनन्या बनीं या #अनन्या से #अन्या या #कुछनही से #कुछनहीं या #सबकुछ से #सबकुछ? क्या यह नवाचारी था या दुस्साहसिक आत्मघाती कृत्य या कोई और क्रमचय/संचय था या? यह मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना और बदलते पारिवारिक मूल्यों और परिवेशों मे बदलता ही रहेगा। छह उपन्यासों (मे से एक छिन्नमस्ता मेरे पास भी है), छह कविता-संग्रहों,चार चिंतन पुस्तकों, दो अनुवादों, दो विशेष संपादन कार्यों के साथ 01 नवम्बर 1942 को बंगाल मे अवस्थित, मारवाड़ी परिवार मे जन्मी एम.ए., पी एच डी (दर्शनशास्त्र) यह महिला उद्योगपति, बहुप्रतिभाशील लेखिका 20 सितम्बर 2008 मे कालगत हो गयीं। उनकी सबसे अलग-थलग करती (अच्छी कहें या बुरी) पहचान, जो है वह रीतिबद्ध विवाह सँस्था से विपरीत लीक से हटकर चलने वाली धारणा है, जिसको आजन्म उन्होंने यथासम्भव परिपालित भी किया है, वह गलत है या सही या कुछ और यह प्रश्न सदैव विचारणीय था, है और रहेगा भी।
बिना किसी भूमिका या पुरोवाक् के, पूरे दो सौ बय्यासी पृष्ठों मे सिमटी आत्मकथा को पढ़ते हुये मुझे तो कुल चौबीस मील के पत्थर नजर आये हैं जिनसे लेखिका की जीवन दशा-दिशा बदलती दिखती है। क्रमशः पृष्ठ 5, 10, 65, 107, 152, 155, 156,180, 192, 199, 219, 215, 226, 238, 245, 247, 250, 251, 252, 254, 255, 257, 259, 261, 263, 278, 281, 285 और पृष्ठ 287 पर ये घटनायें पदार्पित या पटाक्षेपित होती हैं। दो अशुद्धियाँ भी हैं, पेज 38 पर खुश का #खुद और पेज 181 पर फ्रीज का #फ्रिज होना इत्यादि। यहाँ लेखिका दार्शनिकों, कम्युनिस्टों के दर्शन/विचार से प्रभावित तो हुई ही है पर सीमोन द बोउवार की विचारदृष्टि से प्रभावित लेखिका को महादेवी वर्मा जी और अमृता प्रीतम जी से भी गुफ्तगू करने का सुअवसर मिला है। भारतवर्ष और अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम के परिवृत्त मे पश्चिम बंगाल का महीन राजनैतिक, सामाजिक घटनाक्रम केन्द्रीय भूमिका मे है। राजनैतिक, सामाजिक घटनाक्रमों से प्रभावित होते सर्वहारा, पूंजीवादी व्यवस्थाओं का भी सटीक चित्र जहाँ, तहाँ नजर आता है।
“सती को प्रणाम ! सती माँ ! तेरा आदर्श मेरे सामने हमेशा रहा, मैने खुद को उसी परम्परा मे ढ़ालने की कोशिश की। मेरे लिए सती का अर्थ था, पति की एकनिष्ठ भक्ति, सूचना समर्पण , किसी पराए मर्द की ओर आँख उठाकर भी नही देखना। लेकिन आज मेरे भीतर बची हुई स्त्री को प्रणाम। बहुतेरे रूपों मे बहुत दिन जी चुकी हूँ और आज साठ की हो चुकी हूँ। आधी शताब्दी से ऊपर। कल ही तो…….”
(इसी पुस्तक से….)
बहुत कुछ है लिखने को, कहने को, पर ज्यादा हो जायेगा और सबकी पाठकीय उत्सुकता और रुचि बनी रहे उसके लिये भी शायद यह जरूरी होगा। इसे “भाग-एक” ही समझिये बस। “भाग-दो”, उन चौबीस बिंदुओं पर केन्द्रित होना ही है, जो सब आत्मकथ्यीय उपन्यास का ताना-बाना बुनते हैं। साथ ही कई यादगार चरित्र, जीवन-दर्शन वक्तव्य और समेकित समीचीन देश, समाज और खुद के स्थिति और आत्म-विश्लेषण संग लेखिका के एक कदम आगे और दो कदम पीछे या दो कदम आगे और एक कदम पीछे होने के सतत उहापोह से जनित पाठकीय जिज्ञासा का शमन हो पाता है या नही, यह है बडा़ प्रश्न जरुर पर अभी बताना उचित नही होगा। यह भाग- दो मे ही देखा-सुना और पढा़ जाये तो….. सही रहेगा। फिलहाल आज उन्हें एक श्रद्दांजलि- स्वरूप पाठकीय परिपेक्ष्य (भाग -एक) आज पोस्ट कर रहा हूँ।
पढ़कर खुली आलोचनाओं, सुझावों और सहमतियों/ असहमतियों का स्वागत है। बस कृपया लाईक्स कर के ही पठन- कथन इतिश्री न करें।
(#क्रमशः)